लन्दन की गैसलाइट दिल्ली में
समीक्षा: अनिल गोयल
लन्दन की गैसलाइट दिल्ली में
1965 के आसपास एक फिल्म आई थी, ‘इन्तकाम’. रहस्य और रोमांच से भरपूर एक क्राइम थ्रिलर. साठ और सत्तर के दशकों में ऐसी अनेक फिल्में आईं… सुनील दत्त और लीला नायडू की ‘ये रास्ते हैं प्यार के’, विनोद खन्ना की ‘इम्तिहान’ इत्यादि. फिर फिल्मों का यह जॉनर या श्रेणी समाप्त हो गई. बाद में टेलीविजन पर ‘करमचन्द’ के नाम से जासूसी सीरियल आया, परन्तु उसमें भरा मसखरापन उसकी गम्भीरता को प्रभावित करता था. उसके कुछ समय बाद एक लोकप्रिय धारावाहिक ‘ब्योमकेश बख्शी’ आया, जो एक बंगाली कहानी पर आधारित था. दिल्ली के अंग्रेजी रंगमंच पर तो ऐसे क्राइम थ्रिलर लगातार खेले जाते रहे हैं, परन्तु हमारे हिन्दी रंगमंच पर ‘क्राइम थ्रिलर’ की विधा को बहुत कम प्रयोग किया गया है.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) के तीसरे वर्ष के विद्यार्थी शेखर काँवट ने अपनी पढ़ाई पूरी होने के बाद, ब्रिटिश उपन्यासकार और नाटककार पैट्रिक हैमिल्टन के क्राइम थ्रिलर नाटक ‘गैसलाइट’ को अपनी डिप्लोमा प्रोडक्शन के लिए मंचित किया. इसका हिन्दी में अनुवाद प्रियम्वर शास्त्री ने किया है.
बहुत वर्षों से रानावि में डिप्लोमा प्रोडक्शन के लिए प्रयोगात्मक या एक्सपेरिमेंटल थिएटर, अथवा सीन-वर्क ही प्रस्तुत किया जाता रहा है, या फिर ‘डिवाईज्ड’ प्ले… पूरा नाटक करने की क्षमता वहाँ के विद्यार्थी बहुत कम प्रदर्शित कर सके. सीन-वर्क विद्यार्थियों के प्रशिक्षण का एक हिस्सा हो सकता है, किसी विद्यार्थी की नाटक को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की क्षमता को वह नहीं दरशा सकता. तीन वर्ष की स्नातकोत्तर पढ़ाई करने के बाद प्रयोगात्मक या एक्सपैरिमैंटल नाटक, ‘डिवाईज्ड’ प्ले या सीन वर्क को डिप्लोमा प्रोडक्शन के रूप में सामान्य जन-दर्शकों के सामने प्रस्तुत करना उस विद्यार्थी की क्षमता को सार्वजानिक रूप से प्रदर्शित करने से रोकना ही कहा जा सकता है! साथ ही, दर्शकों ने भी ऐसे ‘नाटकों’ से अपने को धोखा खाया हुआ ही अनुभव किया है, जिससे दर्शक रंगमंच से दूर ही हुए हैं.
ऐसे में शेखर काँवट के द्वारा अपने में एक सम्पूर्ण नाटक का प्रस्तुत किया जाना चाहे एक नई परम्परा का निर्माण कर रहा है, या फिर एक पुरानी, भुला दी गई परम्परा को फिर से जीवित कर रहा है, लेकिन वह दर्शकों के लिए एक सुखद अनुभव अवश्य रहा. और नाटक तो दर्शकों के ही लिए होता है. डिजाईन, एक्सपैरिमैंट, ‘डिवाईज्ड’ प्ले या सीन वर्क सामान्य दर्शक के लिए नहीं होते.
और शेखर ने इस नाटक को प्रस्तुत करते समय दर्शकों के प्रति अपनी जिम्मेवारी को पूरी सफलता के साथ निभाया है. नाटक की कहानी लन्दन की एक धुंध भरी सन्ध्या में एक समृद्ध व्यक्ति जैक के घर की है, जिसमें जैक अपनी पत्नी को पागल सिद्ध करना चाहता है. उस घर में पहले भी एक हत्या हो चुकी है. अब से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व उस समय पर, लन्दन में सन्ध्याकाल में घर की बत्तियाँ या लाइट्स गैस से जलती थीं, और वही सांयकाल की चाय का भी समय होता था… उसी से पैट्रिक ने अपने नाटक का नाम ‘गैसलाइट’ रखा.
नाटक में लाइट्स शेखर ने स्वयं डिजाईन की थीं, जिनका ऑपरेशन शेखर की सहपाठी पस्की ने किया. लाइट्स, कॉस्टयूम, सैट्स, दृश्य-परिकल्पना, पोस्टर और निर्देशन, सभी कुछ शेखर काँवट का था. नाटक में एक अच्छी चीज रही धुएँ का कम से कम प्रयोग – धुंध भरी सन्ध्या का दृश्य होने पर भी, शेखर ने धुंध दिखाने के लिये केवल प्रारम्भ के कुछ क्षणों में ही धुएँ का प्रयोग किया था, उसके बाद फिर नहीं किया. अकारण मंच पर धुएँ का प्रयोग न केवल दृश्य को अनचाही छद्मता प्रदान करता है, बल्कि हमारे रंगकर्मियों के स्वास्थ्य को कितनी हानि पहुँचा रहा है, यह उन्हें समझना होगा!
एक अचम्भित कर देने वाला परिवर्तन विद्यार्थियों के इस वर्ष की पहली डिप्लोमा प्रस्तुति में नजर आया, और वह था प्रस्तुति में बाहर के विशेषज्ञों के ‘मार्गदर्शन’ का प्रयोग न करना. डिप्लोमा किसी विद्यार्थी की उसके परिक्षण-काल की अन्तिम परीक्षा होती है… ‘पासिंग आउट ऑफ ए ग्रेजुएट’. और परीक्षा में तो यही देखना होता है कि विद्यार्थी ने अपने तीन वर्षों में यहाँ क्या सीखा. उसमें यदि वह सभी बाहर के विशेषज्ञों के सहयोग या ‘मार्गदर्शन’ के द्वारा ही अपना काम दिखा रहा है, तो फिर कैसे यह समझा जायेगा, कि उसने स्वयं ने तीन वर्षों के प्रशिक्षण में क्या सीखा? इस बार विद्यालय की ओर से विद्यार्थियों को कहा गया कि अपने डिप्लोमा के लिये वे नाटक को स्वयं ही तैयार करेंगे; उन्हें जो भी सहायता रानावि से चाहिए, वह उन्हें मिलेगी, लेकिन डिप्लोमा के नाटक को उन्हें स्वयं अपने से ही तैयार करना होगा. बाहर की तकनीकी सहायता यदि कहीं आवश्यक है, तो वह मिल सकेगी, लेकिन बाहरी मार्गदर्शन इत्यादि नहीं होंगे! पता चला है कि अभ्यास के समय पर विद्यालय के अध्यापक रिहर्सल में आकर बैठते थे, उसका निरीक्षण करते थे. इसी के चलते, इस नाटक में केवल ध्वनि प्रवाह या साउंड डिजाईन के तकनीकी काम को सन्तोष कुमार सिंह ‘सैंडी’ ने किया (जिन्हें पश्चिमी संगीत पर अच्छी पकड़ है), बाकी सभी काम इन विद्यार्थियों ने स्वयं किये! और उसके सुखद परिणाम निकले… दर्शक, जो किसी भी नाटक की सफलता के सर्वोच्च निर्णायक होते हैं, इस नाटक से बहुत प्रसन्न नजर आये… जिनके लिये, शेखर कहता है कि उसने यह नाटक तैयार किया था! नाटक में दर्शक के प्रति शेखर की निष्ठा स्पष्ट नजर आती थी, “इंटेलेक्चुअलिटी से दूर रह कर मैंने यह नाटक तैयार किया था; मैं ऐसा नाटक नहीं बनाना चाहता था जो दर्शकों की समझ में ही ना आये”! इसीलिये मैंने नाटक के बाद किसी दर्शक को शेखर को रंगमंच का तारेंतिनो कहते हुए सुना!
इस परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के नये निदेशक चित्तरंजन त्रिपाठी विशेष रूप से अभिनन्दन के पात्र हैं. वे स्वयं यहीं से पढ़े हुए हैं, और बहुत सारी चीजों की आवश्यकता और अनावश्यकता को गहरे से समझते हैं. इस प्रकार का परिवर्तन लाने के लिये अकादमिक परिषद को तैयार करना अवश्य ही कठिन रहा होगा. आशा है कि भविष्य में विद्यालय में और भी अनेक अपेक्षित परिवर्तनों को वे ला सकेंगे. इस प्रकार के परिवर्तन से शेखर को स्वयं भी प्रस्तुति के समय पर बहुत मन्थन करना पड़ा, लेकिन परिणाम सुखद ही रहे!
नाटक के मंच की परिकल्पना दो-मंजिला बॉक्ससैट के रूप में की गई थी, जिस का प्रयोग बहुत कठिन होता है. रॉबिन दास, राजेश बहल जैसे गिने-चुने सैट-डिजाइनर्स ही इस प्रकार के प्रयोग कुशलतापूर्वक करते रहे हैं. परन्तु शेखर ने बहुत कुशलता से इस तकनीक का प्रयोग करके इस नाटक को लुभावना बना दिया. शेखर का लाइट्स का प्रयोग भी सुन्दर था, जिसमें दर्शकों की आँखों पर बहुत कम प्रकाश आ रहा था. एक अच्छी बात यह रही, कि शेखर ने इस नाटक को हिन्दी में प्रस्तुत करके भी इस अंग्रेजी नाटक को “रूपान्तरित” करने का प्रयास न करके नाटक को उसके मूल स्वरुप में प्रस्तुत करने का जोखिम उठाया, जिसकी स्वीकार्यता कठिन होने का खतरा था. लेकिन दर्शकों ने नाटक को बहुत सराहा!
नाटक की सबसे सुन्दर चीज थी इसके अभिनेताओं का अभिनय! जैक की युवा पत्नी बेल्ला के रूप में प्रियदर्शिनी पूजा ने सबसे अधिक प्रभावित किया. अपनी पत्नी को पागल बना देने का षड्यन्त्र रचने वाले एक धनी और क्रूर व्यक्ति जैक के रूप में मनोज यादव का अभिनय भी किसी से कम नहीं था… उसके लम्बे बालों ने सचमुच जैक के चरित्र को ठीक से उभारने में मदद की. पुलिस अधिकारी रफ के रूप में अमोघ शाक्य ने सभी दर्शकों को प्रभावित किया. घर की सहायिकाओं के रूप में आईशा चौहान और अंजली नेगी ने भी छोटी भूमिकाएँ होने के उपरान्त भी अपनी उपस्थिति सशक्त रूप से स्थापित की, विशेषकर ऑपेरा-गायन के द्वारा, या फिर घर के मालिक के साथ के अपने प्रेम-प्रसंग को लेकर. पुलिस के सिपाही के रूप में सौरभ पांडे और सुनील थे. अपने सैट्स और प्रकाश-परिकल्पना, तथा कलाकारों से ऑपेरा के गायन का प्रयोग करवा कर शेखर ने नाटक में ब्रॉडवे का वातावरण निर्मित कर दिया था!
रानावि से निकलने के बाद शेखर की आगे की राह क्या रहेगी, यह तो कैसे जाना जा सकता है! लेकिन इस नाटक के रूप में प्रदर्शित उसकी अपने काम में कुशलता उसके अपने और उसके सभी साथियों के उज्जवल भविष्य की परिचायक तो है ही!
Very well written