मन के भँवर

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मन के भँवर
अनिल गोयल


हिन्दी में नाटकों की कमी का रोना रोते रहना हमारे रंगकर्मियों का प्रिय व्यसन है, जबकि हजारों नाटक हिन्दी में लिखे गये हैं. लगभग पाँच दशक पूर्व लिखी गई डॉ. दशरथ ओझा की पुस्तक ‘हिन्दी नाटक कोश’ में ही अनगिनत नाटकों का विवरण दिया गया है; इसके बाद से तो और न जाने कितने नाटक लिखे जा चुके हैं. किसी भी अच्छे पुस्तकालय में नाटकों की सैंकड़ों पुस्तकें मिल जाती हैं. रुदाली के इस व्यसन में रत हमारे रंगकर्मी मराठी, बंगाली, कन्नड़ इत्यादि भारतीय भाषाओं, तथा विदेशी भाषाओं से भी नाटकों का हिन्दी में अनुवाद करके काम चलाते रहे हैं.


इससे कहीं अधिक आसान काम था अपनी ही भाषा में मंचन-योग्य नाटक खोजना. किन्तु वह काम हमारे रंगकर्मियों ने नहीं किया. ऐसे में, अपने उत्कृष्ट अभिनय के लिये संगीत अकादमी सम्मान से सम्मानित भूपेश जोशी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नाटककार दया प्रकाश सिन्हा के नाटक ‘मन के भँवर’ को खोज कर और उसे मंचित करके एक प्रशंसनीय कार्य किया है. हिन्दी के एक प्रतिष्ठित लेखक के एक लगभग भुला दिये गये एक मूल हिन्दी नाटक को प्रस्तुत करना सचमुच भूपेश की खोजी नजर को दर्शाता है. साठ और सत्तर के दशकों में आकाशवाणी पर मनोवैज्ञानिक घटनाक्रम वाले अनेक नाटक प्रसारित हुए. परन्तु उन्हें रंगमंच पर शायद ही कभी मंचित किया गया होगा. रेडियो नाटक को नाटक की विधा क्यों नहीं माना गया, यह शोध का विषय हो सकता है, हिन्दी साहित्य की ही तरह हिन्दी रंगमंच भी अपने-अपने दड़बों में बन्द रहने की प्रवृत्ति का शिकार रहा है…
सन 1960 में लिखा गया नाटक ‘मन के भँवर’ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित एक बहुत ही संवेदनशील नाटक है। तलाक का कानून पारित हो जाने के बाद, साठ के दशक में भारतीय समाज में परिवारों के विघटन का काल प्रारम्भ हो चुका था. स्वतन्त्रता के बाद भारतीय समाज में तीव्र गति से परिवर्तन भी आ रहे थे. इन सब परिवर्तनों के चलते पति-पत्नी के बीच की बढ़ने वाली दूरियों और परिवारों के विघटन का चित्रण इस नाटक में किया गया है. अचम्भे की बात है कि मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में ही दया प्रकाश सिन्हा ने इस पारिवारिक टूटन और विघटन का इतना सटीक चित्रण कैसे किया! और उससे भी अधिक अचम्भे की बात है हिन्दी रंगमंच-जगत की इस नाटक की पूर्ण उपेक्षा. दया प्रकाश सिन्हा के अनुसार, इस नाटक के लिखे जाने के बाद के कुछ वर्षों में इसके कुछ मंचन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) और लखनऊ इत्यादि में हुए थे. लेकिन उसके बाद साठ वर्षों तक, नाटकों की कमी का रोना रोते रह कर भी किसी ने इस नाटक पर ध्यान नहीं दिया! 1968 में प्रकाशित इस नाटक के पचपन वर्षों में इस नाटक की पूर्ण उपेक्षा हिन्दी रंगमंच की सोच को बखूबी दर्शाती है!


नाटक का शीर्षक ‘मन के भँवर’ नाटकों के दो प्रमुख पात्रों डॉ. वशिष्ठ और उनकी पत्नी छाया के मन में उठते विचारों के भँवर का ही चित्रण है. विचारों की भँवरों में डूबती-उतराती युवा गृहिणी छाया अपने जीवन के पिछले दिनों में ही कैद है, और उससे बाहर आने का कोई प्रयास वह नहीं करती है. दूसरी ओर, डॉ. वशिष्ठ अपने रोगियों की चिकित्सा में पूर्ण समर्पण भाव से रत हैं. वे अपनी एक मनोरोगी पूनम के उपचार के लिये उससे बहुत कोमलता और मधुर तरीके से बातचीत और व्यवहार करते हैं. छाया उन दोनों के बीच की बातचीत को उनके बीच बढ़ती नजदीकियाँ मानने की भूल करती है, और डॉ. वशिष्ठ के साथ व्यंग्यात्मक तरीके से बातचीत करके उनके चरित्र पर उँगलियाँ उठाने लगती है. इससे पति और पत्नी के बीच टकराहट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और तदुपरान्त वे दोनों खुल कर एक-दूसरे पर प्रहार करने लगते हैं.
वास्तव में, इन दोनों के बीच के अन्तर का मूल कारण इन दोनों की बिल्कुल अलग-अलग पृष्ठभूमि का होना, और छाया का पूर्ण असहयोगी रवैया हैं. आर्थिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न परिवार से आई छाया के मन में अपने पति के लिये तनिक भर भी सम्मान नहीं है, न ही उसका अपनी वाणी या व्यवहार पर कोई नियन्त्रण है. छाया का यह असंवेदनशील व्यवहार पति-पत्नी को एक-दूसरे से दूर कर देते हैं, जिसमें परिवार जैसी किसी चीज के प्रति छाया के मन में बिलकुल भी सम्मान नहीं है. इसी बीच, छाया के कॉलेज के दिनों का मित्र, एक निम्न स्तर का फिल्म-अभिनेता देवेन्द्र छाया के घर आता है, और उसे अपनी बातों के सब्जबाग दिखा कर अपने साथ भगा ले जाने में सफल होता है. डॉ. वशिष्ठ अकेले पड़ जाते हैं, और अपना पूरा समय अपने रोगियों की सेवा में लगा देते हैं. बाद में छाया के मर जाने का समाचार आता है. डॉ. वशिष्ठ को उनकी सेवाओं के लिये भारत सरकार और यूनेस्को से सम्मान प्राप्त होता है, तो नगर के लोग उनका सम्मान करने के लिये जलूस के रूप में उनके घर आ रहे हैं. तभी मृत-घोषित छाया वहाँ आ जाती है, और डॉ. वशिष्ठ से अपने लिये सहारा माँगती है, क्योंकि तब तक देवेन्द्र की भी मृत्यु हो चुकी है, और अब छाया अकेली है. डॉ. वशिष्ठ उसे स्वीकार नहीं कर पाते, और छाया वहाँ से चले जाने पर मजबूर हो जाती है. लेकिन घर के बाहर निकलते ही उसकी मृत्यु हो जाती है. डॉ. वशिष्ठ को जब किसी ‘अनजान’ स्त्री के उनके घर के सामने मर जाने का समाचार दिया जाता है, तो वे छाया के एक अनजान महिला की लाश के रूप में ले जाये जाने पर चुप रह जाते हैं, हालांकि इस समाचार से वे गहरे मानसिक दबाव में अवश्य आ जाते हैं. और उसी दबाव के फलस्वरूप, अपने को इस सब के लिये दोषी मान कर वे विष खा कर अपना प्राणान्त कर लेते हैं.


इस नाटक में छाया एक ऐसा दुरूह चरित्र है, जिसके पास जब सब कुछ था, तो उसने उसकी महत्ता नहीं समझी। और फिर, जब उसके हाथ से सब कुछ छूट गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। समय रहते उसने रिश्तों को सम्मान नहीं दिया, और फिर वह उलझ गई मन के भंवर में। प्रताप सहगल इस नाटक को ‘कथा एक कंस की’ के साथ दया प्रकाश सिन्हा के दो श्रेष्ठ नाटकों में से एक मानते हैं. नाटक में छाया के रूप में मोहिनी सुंगर ने, और डॉ. वशिष्ठ के रूप में नाटक के निर्देशक भूपेश जोशी ने बहुत सुन्दर अभिनय किया. भूपेश जोशी सामान्य चरित्रों की अपेक्षा जब इस प्रकार के मनोवैज्ञानिक चरित्रों के रूप में आते हैं, तो उनके अभिनय में एक अलग ही निखार आ जाता है… मानसिक दबाव को झेलता, अपनी सिगरेट से अपनी बेबसी को झलकाता हुआ, अपने को समाज की सेवा में पूर्णतः समर्पित कर चुका एक आदर्शवादी डॉक्टर कैसे अपनी घमण्डी और नासमझ पत्नी के व्यवहार का शिकार होता रहता है, कैसे वह अपने विवाह के तुरन्त बाद से लगातार एक बेबसी का जीवन जीने को विवश हो जाता है, भूपेश ने चरित्र में डूब कर बहुत सशक्त तरीके से इसको जिया. इसी प्रकार, अपने प्रेमी देवेन्द्र के मर जाने पर अकेली पड़ जाने के बाद छाया जब डॉ. वशिष्ठ के पास लौटती है और उनके सामने गिड़गिड़ा कर उससे अपने को वहाँ रहने देने की भीख माँगती है, इसे मोहिनी सुंगर ने बहुत सुन्दरता के साथ मंच पर प्रस्तुत किया.
लेकिन ऐसे सुन्दर नाटक में किस प्रकार के प्रकाश-संयोजन की आवश्यकता है, इसे इस नाटक के प्रकाश संयोजक नहीं समझ पाये. डॉ. वशिष्ठ और छाया के पल-पल बदलते मूड को यदि उचित प्रकाश-परिकल्पना का सहयोग मिला होता, तो नाटक और भी अधिक प्रभावशाली बन पाता!

प्रकाश-सञ्चालन को ले कर भी निराशा ही हाथ लगी. मंच-आलोकन में कथानक और चरित्रों की मनोदशा को यदि प्रकाश-संयोजक न समझ पाये, तो नाटक दर्शकों पर अपना सम्पूर्ण प्रभाव छोड़ने में विफल हो जाता है. इस प्रकार के नाटकों में लाईटों का खेल नहीं, बल्कि नाटक के मूड के अनुसार अति-संवेदनशील

प्रकाश-व्यवस्था करने से ही नाटक दर्शकों तक पहुँच पाता है. यदि इस नाटक का कथानक बहुत सशक्त न होता, तो यह नाटक एक विफल नाटक की श्रेणी में आ जाता! रवि शंकर शर्मा का संगीत अवश्य इस नाटक के प्रवाह को सम्भालने में एक सीमा तक सफल रहा.

Published earlier in Mitwa News

Anil Goel

Anil Goel

Anil Goel has worked as a free-lance journalist, columnist, theatre-critic, election-analyst, translator and researcher with various leading Hindi and English newspapers, magazines, journals, All India Radio, Wikipedia, Facebook etc. since 1976. His research assistance assignments have been spread from Delhi University to IIT Delhi, JNU and Illinois University, Chicago. In his golden years, he has turned to being a novelist, story- writer and poet. His Hindi novel ‘Kahin Khulta Koi Jharokha’ was published in July 2022. Presently, he has devoted himself to more novel-writing and film-script writing. A bi-lingual writer, Anil has chosen to write primarily in his own language Hindi, but has written articles and a book & "Museums and Collections of Delhi", published in 1998, in English also. He has been member of the selection committees of many national and state level theatre festivals. Anil has been working on the history of Delhi’s theatre for long. He takes pleasure in organising seminars and exhibitions on theatre-personalities, museums etc. He has been awarded the Best Theatre Critic’s Award by the Natsamrat Theatre Group, Delhi, as well as Natya Bhushan Award by Haryana Institute of Performing Arts

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