रामानुजन

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रामानुजन
— अनिल गोयल


दिल्ली के रंगप्रेमी दर्शक साठ और सत्तर के दशकों से लेकर एक लम्बे समय गम्भीर नाटकों के साक्षी रहे हैं. परन्तु पिछले कुछ समय में हास्य-व्यंग्य के कुछ हल्के और कुछ बहुत सस्ते नाटक ही दिल्ली के रंगमंच परिदृश्य पर अधिकतर छाये रहे हैं. ऐसे में एक गम्भीर नाटक में, विपरीत परिस्थितियों में भी दर्शकों की उपस्थिति बहुत उत्साहवर्धक रही, और इस बात के प्रति आश्वस्त करती है कि दिल्ली में अभी भी गम्भीर नाटकों के दर्शक हैं.
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रताप सहगल के नाटक ‘रामानुजन’ का हिमांशु यादव द्वारा साहित्य कला परिषद दिल्ली के युवा नाट्य समारोह में प्रदर्शन किया गया. यह इस नाटक का कहीं भी पहला प्रदर्शन था. 12 जनवरी 2024 के दिन, इस नाटक से पहले एक और नाटक एल.टी.जी. प्रेक्षागृह में चल रहा था, जो बहुत लम्बा खिंच गया, और नाटक ‘रामानुजन’ अपने निर्धारित समय से एक घंटे से भी अधिक देरी से प्रारम्भ हो पाया. लेकिन फिर भी हॉल लगभग पूरा भरा हुआ था, जिसे देख कर बहुत सन्तोष हुआ.
हॉल देरी से मिलने के कारण प्रकाश परिकल्पक रमन कुमार लाइट्स भी ठीक से व्यवस्थित नहीं कर सके. लेकिन तो भी, अरविन्द सिंह के मार्गदर्शन में हुए इस नाटक के प्रथम प्रदर्शन ने ही दर्शकों को इतना आकर्षित किया कि अन्त तक भी सभी दर्शक बंधे बैठे रहे.
नाटक प्रसिद्ध गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन की जीवन-यात्रा की एक झलक है. इसमें पाठकों और दर्शकों को एक बहुत गरीब घर में जन्मे रामानुजन की अद्भुत, कुछ सीमा तक दैवीय प्रतिभा की जानकारी मिलती है. रामानुजन बचपन से ही गणित की अद्भुत प्रतिभा ले कर पैदा हुए थे, जिसे उन्होंने ग्यारह वर्ष की आयु में ही दिखा दिया था! हाई स्कूल में वे गणित के उच्च-स्तरीय सूत्रों, प्रश्नों और अन्य सिद्धान्तों को आसानी से सुलझाने लगे थे. इस समय तक वे अपने साथियों के लिये एक पहेली बन चुके थे, और उनके साथी उन्हें बहुत श्रद्धा की नजरों से देखने लगे थे; हालांकि गणित पर बहुत अधिक जोर देने और अन्य विषयों की उपेक्षा करने के कारण वे उच्चतर परीक्षाओं में सफल न हो पाये! फिर गरीबी के कारण वे अपना समय मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी करके गँवाने को मजबूर हुए.
उन्होंने इंग्लैंड में कैम्ब्रिज में वहाँ के गणितज्ञों के साथ पत्र-व्यवहार प्रारम्भ किया. कुछ समय पश्चात उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें मद्रास के बोर्ड ऑफ स्टडीज इन मैथेमेटिक्स के द्वारा लन्दन जाने के लिए स्कालरशिप दी गई. विषम आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों से लड़ते हुए वे जैसे-तैसे लन्दन पहुँचे और अंग्रेज गणितज्ञ जी.एच. हार्डी के संरक्षण में गणित पर अपना शोध करते रहे. लेकिन स्वास्थ्य के बिगड़ने पर उन्हें भारतवर्ष लौटना पड़ा, जहाँ वे बहुत लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सके.
नाटक में उस समय की विषम सामाजिक परिस्थितियों, और उनके चलते रामानुजन के संघर्ष को युवा निर्देशक हिमांशु यादव ने बहुत सफलता के साथ दर्शाया है. साथ ही, असाधारण प्रतिभा वाले लोगों के, जो साधारण डिग्रियाँ में कई बार असफल रहते हैं, संघर्ष को भी उकेरा गया है. मद्रास के बोर्ड ऑफ स्टडीज में रामानुजन को स्कालरशिप दिये जाने के प्रश्न पर हुए विचार-विमर्श से यह स्पष्ट नजर आता है. इस दृश्य में निर्देशक ने उस समय की परिस्थितियों के तनाव को दिखाने में सफलता पाई है. परन्तु रामानुजन का संघर्ष यहीं नहीं समाप्त होता, उसे अपने परिवार के उस समय के गुलाम भारत के रूढ़िवादी विचारों से भी जूझना पड़ता है, हालांकि यह शोध का विषय हो सकता है कि रामानुजन की बूढ़ी दादी सबसे पहले उसे विदेश जाने के लिये अनुमति कैसे दे देती है! इन सब संघर्षों के बीच से निकल कर लन्दन जाने, वहाँ के अत्यन्त ठण्डे मौसम के साथ संघर्ष करने, और उस समय पर चल रहे प्रथम विश्वयुद्ध की विपरीत परिस्थितियों में भी, जहाँ उसे शाकाहारी होने के कारण खाने के लिये आलू के अतिरिक्त कुछ और नहीं मिलता, यह सब परिदृश्य रामानुजन के अनेक-स्तरीय संघर्ष को बहुत सुन्दरता के साथ उभारता है! इसी के साथ-साथ लन्दन के अनेक गणितज्ञ उसके काम को समझ न पा कर नकार भी देते हैं. यही चीज ‘स्ट्रक्चर्ड’ और ‘नॉन-स्ट्रक्चर्ड’ अध्ययन के बीच के अन्तर को भी दिखाती है, और भारतवर्ष की पराधीनता की बेड़ियों को भी दिखाती है! ऐसे में प्रोफेसर हार्डी उसके काम को पहचान कर उसका साथ देते हैं, जिससे रामानुजन की समस्याएँ कुछ सीमा तक कम हो पाती हैं!
रामानुजन के रूप में विपिन कुमार ने एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति के चरित्र को बहुत अच्छे से जिया है. इसमें उन्हें अन्य सभी कलाकारों का भरपूर सहयोग मिला, जिससे यह नाटक अपनी तमाम समस्याओं और कमियों के उपरान्त भी एक दर्शनीय कृति बन गई. रामानुजन की पत्नी जानकी के रूप में पूजा ध्यानी नाटक का एक प्रमुख आकर्षण रहीं, जिन्होंने हर समस्या में रामानुजन को पग-पग पर सम्भाला! रामानुजन के साथ लन्दन जाने से पहले के समुद्र-किनारे के भावपूर्ण दृश्य की बात हो, रामानुजन से उसके पत्रों का उत्तर न मिलने की बात हो, या फिर रामानुजन की मृत्यु के अन्तिम दृश्य की बात की जाये, पूजा ने हर स्थान पर अपने सशक्त और भावपूर्ण अभिनय से नाटक को गति प्रदान करके दर्शकों को अपनी सीटों पर बैठे रहने को मजबूर किया! अम्मा (प्रज्ञा बैस) और प्रो. हार्डी (अतुल ढींगरा) से लेकर छोटे रामानुजन (भाग्येश कौशिक) तक सभी कलाकारों ने अच्छे से अपने चरित्र निभाये!
भारतवर्ष का हजारों वर्ष पुराना इतिहास, और सांस्कृतिक विविधताओं वाला एक विशाल देश होने के कारण यहाँ इस प्रकार के व्यक्तित्वों पर नाटक लिखने की अपार सम्भावनाएँ हैं, परन्तु उन पर काम नहीं किया गया है. प्रताप सहगल का जीवनचरित्र दिखाने वाला यह नाटक नाटक नये उभरते नाटककारों को इस ओर काम करने के लिये प्रेरणा देगा. नाटक केवल एक व्यक्ति के जीवन की कथा को ही नहीं दिखाते, अपितु वे अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से भी दर्शकों को परिचित करवाते हैं! समाज में बड़े स्तर पर उथल-पुथल मचा देने वाला एक नाटक बांग्ला नाटकार दीनबन्धु मित्र का 1860 में प्रकाशित नाटक ‘नीलदर्पण’ रहा, जिसने न केवल भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की थी, बल्कि यूरोप के अनेक क्षेत्रों के किसानों की दशा के बारे में भी चिन्तन को प्रारम्भ किया था.
मुकेश झा के संगीत सयोजन ने नाटक को आगे बढ़ाने में सहयोग दिया. नाटक में दृश्य-संयोजन में कुछ अनुशासन रख कर निर्देशक दर्शकों के प्रति न्याय कर सकेंगे, पूरे मंच पर पूरे समय गणित के फॉर्मूले दिखा कर निर्देशक ने दर्शकों का ध्यान भंग ही किया है. साथ ही, समुद्र-किनारे के रामानुजन और जानकी के बीच के भावपूर्ण दृश्य में भी रामानुजन के हाथों में स्लेट थमा कर निर्देशक रामानुजन के चरित्र के प्रति न्याय नहीं कर पाये हैं. इन एक-दो छोटी-मोटी चीजों के होते हुए भी, अरविन्द सिंह के मार्गदर्शन में एक सुन्दर नाटक की प्रस्तुति देख कर दर्शकों को एक अच्छा नाटक देखने का सुख मिला, इसके लिये अरविन्द बधाई के पात्र हैं!

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