नाटक “बैजू बावरा”

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समीक्षा — अनिल गोयल
मराठी और बंगाली रंगमंच से आक्रान्त होने की सीमा तक प्रभावित रहे हिन्दी रंगमंच में कुछ चरित्र, विशेषकर भारतीय इतिहास, संस्कृति और धर्म से जुड़े हुए लोग किनारों पर ही रहे… जिसमें विभिन्न विचारधारावादी बौद्धिकों का बहुत बड़ा योगदान रहा. हालांकि, हमारे फिल्म-जगत ने ऐसे अनेक व्यक्तियों पर फिल्में बनाईं. स्थिति में परिवर्तन आने से, नकार दिये गये ऐसे कुछ चरित्र अब रंगमंच के प्रकाश-पुंज की परिधियों में आ रहे हैं.


ऐसे ही एक महान संगीत-नायक बैजू बावरा के जीवन पर 2024 के जनवरी माह की चौथी तिथि को अरविन्द सिंह चन्द्रवंशी ने अपना नया नाटक ‘बैजू बावरा’ दिल्ली के श्रीराम सैंटर में गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा के सौजन्य से प्रस्तुत किया. नाटक का लेखन विशाल सिंह और अरविन्द सिंह ने किया है.


यह नाटक एक बार फिर से इस बहस को जन्म देता है कि क्या उन व्यक्तियों का कोई अस्तित्व कभी रहा होगा, जो राजदरबारों में नहीं रहे, जिनका उल्लेख राजाओं-बादशाहों के द्वारा लिखवाये गये इतिहास में नहीं है, और जिनकी भव्य राजसी समाधियाँ या मजारें नहीं बन सकीं! ऐसे अनेक ऐतिहासिक लोगों के योगदान को उनके अपने क्षेत्रों के दिग्गज तो स्वीकार करते हैं, परन्तु हिन्दी रंगकर्मी अपनी दृष्टि उन दिग्गजों तक नहीं पहुँचाना चाहते. एक वर्ग कुछ गैर-ऐतिहासिक चरित्रों पर ‘अनारकली’ और ‘मुगले आजम’ जैसी फिल्में बना लेता है. परन्तु दूसरा वर्ग तुलसी, मीरा, सूरदास, रसखान, बैजू बावरा, शिवाजी, महाराणा प्रताप, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और इन जैसे अनगिनत महान चरित्रों को गुमनामी के अन्धेरों में खोये रहने को ही विवश करता आया है.


इस बहस से बाहर निकल कर, आज के काल के हिन्दी रंगमंच के परिदृश्य में, अत्यन्त सीमित साधनों में इस प्रकार के एक ऐतिहासिक नाटक को करना साहस का नहीं, अपितु दुस्साहसिक कृत्य ही कहा जायेगा! अरविन्द की इस नाटक की यह पहली प्रस्तुति थी, जिस कारण से इस प्रस्तुति से बहुत अधिक अपेक्षाएँ की भी नहीं गई थीं. और एक संगीतमयी नाटक में सबसे पहली आवश्यकता होती है गायक-अभिनेताओं की. आज की तिथि में दिल्ली में गायक-अभिनेताओं की खोज करना रेगिस्तान में पानी ढूँढ़ने के समान ही होगा. पर्वतीय कला केन्द्र से जुड़े कुछ रंगकर्मियों को छोड़ दें, तो बाकी अभिनेता और अभिनेत्रियों को इस विषय में कोई विशेष दक्षता प्राप्त नहीं है. ऐसे में, इस नाटक का क्या भविष्य होगा? इस प्रश्न का उत्तर तो भविष्य ही दे पायेगा! हाँ, अभिनेताओं ने अपनी ओर से भरपूर मेहनत करके नाटक के विषय को दर्शकों तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.


इस नाटक में मंच-आलोकन ने निराश ही किया… आज यदि रंगमंच के प्रकाश-आयोजक नृत्य के लिये बनाई गई लाईटें नाटकों में प्रयोग कर रहे हैं, मंच के पीछे से दर्शकों की ओर को, उनकी आँखों पर प्रकाश फेंक रहे हैं, जर्क या झटके के साथ प्रकाश को खोल और बन्द कर रहे हैं, अकारण ही पूरे नाटक में धुएँ का प्रयोग कर रहे हैं, तो वे रंगमंच को हानि ही पहुँचा रहे हैं. रंगमंच एक सामूहिक प्रक्रिया है. यदि प्रकाश, संगीत, परिधान इत्यादि किसी भी क्षेत्र का व्यक्ति एकाधिक बार रिहर्सल में आ कर विषय को समझने की चेष्टा नहीं करता, तो नाटक कैसे उठ पायेगा? आज मुम्बई में फिल्म इंडस्ट्री में भी, गानों के गायन के समय पर इस सामूहिक प्रक्रिया को एकल बना दिया गया है, जहाँ पहले से रिकार्डेड ट्रैक्स हैं, एक गायक आते है और गा कर चला जाता है, फिर कभी और, दूसरा गायक आता है और अपनी पंक्तियाँ गा कर चला जाता है, तो उस गाने में भाव और फिल्म के दृश्य के लिये आवश्यक कोमल संवेदनाएँ कैसे पैदा होंगी? बहुत सुनियोजित तरीके से हिन्दी फिल्म संगीत की हत्या की जा रही है. आशा है कि दिल्ली के रंगकर्मी इससे कुछ सीखेंगे और अपने काम को एक सामूहिक प्रक्रिया के रूप में ही स्वीकार करेंगे… अन्यथा दिल्ली के रंगमंच के दरवाजे सदा के लिये बन्द हो जाने वाले दिन शायद बहुत दूर नहीं होंगे!


एक अछूते विषय को लेकर नाटक करने के लिये अरविन्द सिंह को फिर बधाई!

Anil Goel

Anil Goel

Anil Goel has worked as a free-lance journalist, columnist, theatre-critic, election-analyst, translator and researcher with various leading Hindi and English newspapers, magazines, journals, All India Radio, Wikipedia, Facebook etc. since 1976. His research assistance assignments have been spread from Delhi University to IIT Delhi, JNU and Illinois University, Chicago. In his golden years, he has turned to being a novelist, story- writer and poet. His Hindi novel ‘Kahin Khulta Koi Jharokha’ was published in July 2022. Presently, he has devoted himself to more novel-writing and film-script writing. A bi-lingual writer, Anil has chosen to write primarily in his own language Hindi, but has written articles and a book & "Museums and Collections of Delhi", published in 1998, in English also. He has been member of the selection committees of many national and state level theatre festivals. Anil has been working on the history of Delhi’s theatre for long. He takes pleasure in organising seminars and exhibitions on theatre-personalities, museums etc. He has been awarded the Best Theatre Critic’s Award by the Natsamrat Theatre Group, Delhi, as well as Natya Bhushan Award by Haryana Institute of Performing Arts

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