गली दुल्हन वाली
गली दुल्हन वाली
टिप्पणी — अनिल गोयल
दिल्ली की रामलीला से अपने अभिनय-जीवन का प्रारम्भ करने वाले सुभाष गुप्ता 1975 में ‘नाटक पोलमपुर का’ में समरू जाट की भूमिका से ‘अभियान’ रंगसमूह से जुड़े. अभियान की स्थापना इसके कुछ ही पहले, 1967 में, दिल्ली के कुछ उत्साही रंगकर्मियों ने की थी. सुभाष गुप्ता के द्वारा ‘अभियान’ के लिये रूपान्तरित और निर्देशित नाटक ‘गली दुल्हन वाली’ का प्रदर्शन 15 अप्रैल 2023 को दिल्ली के लिटिल थिएटर ग्रुप प्रेक्षागृह में हुआ. यह नाटक मीरा कान्त की इसी नाम की कहानी पर आधारित है. केवल सन्दर्भ के लिये, मीरा कान्त अपनी इस कहानी को स्वयं भी एकल नाटक के रूप में रूपान्तरित कर चुकी हैं.
‘गली दुल्हन वाली’ नगीना नाम की एक अनपढ़ स्त्री के संघर्ष की कथा है. नगीना विवाह के पश्चात् एक कसाई रज्जाक की ‘दुल्हन’ बन कर आती है, और अपने पति के द्वारा पीटे जाने और दुर्व्यवहार का शिकार होती है. वह जिस गली में रहती है, वह गली ही नगीना के दुल्हन वाले रूप का वहन करती हुई ‘गली दुल्हन वाली’ के नाम से पहचानी जाने लगती है. नगीना काफी समय तक अपने पति के दुर्व्यवहार को सहती रहती है. लेकिन जब वही सब कुछ उसके बच्चों के साथ होता है, तो वह इस सब को अस्वीकार करके अपने बच्चों की रक्षा के लिये खड़ी हो जाती है. वह शिक्षा को ही अपने बच्चों के उद्धार का माध्यम मानती है, और इस विषय पर अपने पति से किसी समझौते के लिये तैयार नहीं होती. अपनी नाबालिग बेटी के एक बड़ी वय के आदमी के साथ विवाह के प्रश्न पर वह खुल कर अपनी बेटी की रक्षा में आ जाती है. उसके पड़ोस में रहने वाली एक हिन्दू महिला, गौरी की माँ एक पड़ोसन के नाते उसके इस संघर्ष में उसका साथ निभाती है. किस प्रकार से अत्यन्त साधारण से लगने वाले प्राणी छोटे-छोटे संघर्ष कर के समाज में बड़े परिवर्तन ले आते हैं, इस नाटक को देखने से नजर आता है. यह नाटक मनुष्य की इच्छा-शक्ति के बल को रेखांकित करता है. अपने पति से लगातार पिटते रहने वाली वह अनपढ़ स्त्री एक सीमा के बाद, केवल अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर ही, उसके विरुद्ध खड़ी हो पाती है और उसके सामने झुकने से इंकार कर देती है.
बहुत वर्ष पूर्व, दिल्ली में एक बंगाली नाटक ‘शानु रॉयचौधरी’ में स्वातिलेखा सेनगुप्ता को एकल अभिनय करते देखा था. भाषा का अवरोध होते हुए भी, लगभग ढाई घंटे के नाटक में मंच पर स्वातिलेखा अकेले ही लगातार दर्शकों को बांधे रही थीं. कुछ वैसा ही अनुभव इस नाटक में श्रुति मेहर नोरी को नगीना की भूमिका में देख कर हुआ. सुभाष गुप्ता ने इस एक-पात्रीय कहानी को रूपान्तरित करते हुए नगीना के पति रज्जाक का भी चरित्र नाटक में बना दिया है. रज्जाक की भूमिका में नीतीश पाण्डे के पास सीमित ही सम्भावनाएँ उपलब्ध थीं, जिनका उन्होंने अच्छे से उपयोग किया. लेकिन नगीना के चरित्र में विद्यमान अपार सम्भावनाओं का श्रुति ने भरपूर उपयोग किया, और नाटक को दर्शनीय बनाया. नीतीश और श्रुति दोनों ही कलाकार हैदराबाद के निवासी हैं, हालाँकि नीतीश का मूल स्थान उत्तर भारत है.
और इसी कारण, नाटक के संवादों में विशुद्ध पुरानी दिल्ली या दिल्ली छः के उच्चारण को प्राप्त कर लेने का श्रेय नाटक के निर्देशक को भी जाता है. हैदराबाद के भारी-भरकम लहजे वाली उर्दू को छोड़ कर उन्होंने श्रुति से पुरानी दिल्ली वाले लहजे को इस नाटक में बहुत सफलता के साथ प्रयोग करवाया. दिल्ली छः की भाषा का उसकी बारीकियों को जाने बिना ही विभिन्न फिल्मों में बड़ा व्यापारिक उपयोग किया गया है. लेकिन सुभाष गुप्ता का स्वयं का बचपन वहाँ बीता है, अतः वे इस नाटक की भाषा के साथ न्याय कर पाये हैं.
एकल नाटक में एकरसता या मोनोटोनी की समस्या सदैव ही रहती है. यों भी, दिल्ली का आजकल का दर्शक बहुत जल्दी ऊब जाता है. ऐसे में, एक तो नाटक के आलेख को सम्पादित करके कुछ छोटा करने की आवश्यकता है. दूसरे, इस नाटक में एकरसता की समस्या कुछ अधिक ही अनुभव की गई, विशेषकर नाटक के पूर्वार्द्ध में, जब तक रज्जाक का प्रवेश नहीं हुआ था. दर्शकों को बांधे रखने के लिये निर्देशक को इस पक्ष पर विचार करना होगा. आलेख में कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन करके नगीना के इस सशक्त चरित्र को कुछ और अधिक बहुआयामी बनाने की सम्भावनाएँ नाटक में हैं. लगातार फ्लैशबैक में चलने वाले इस नाटक में, गली में बहुत सी घटनाएँ घटित होती हैं. गली में घटित होने वाली घटनाओं को दिखाने के लिये, घर के दरवाजे को किसी अन्य स्थान पर स्थानान्तरित करके भी बहुत सशक्त तरीके से प्रस्तुति की एकरसता को समाप्त किया जा सकता है. इससे नगीना और रज्जाक दोनों ही का चरित्र और अधिक उभर कर आयेगा.
एकल नाटक होने के कारण कलाकारों के परिधान में बहुत अधिक सम्भावनाएँ नहीं थीं. और अभियान तो बिना टीम-टाम के, अपनी सादगीपूर्ण, यथार्थवादी प्रस्तुतियों के लिये ही जाना जाता है. फिर भी, फ्लैशबैक के दृश्यों में यदि एकाध स्थान पर कलाकारों के परिधान बदले रहते, तो नाटक की एकरसता को तोड़ा जा सकता था.
अभियान पिछले पचपन वर्षों से अधिक से नाटक करता आ रहा है. उनके पास मंच पर और मंच के पीछे एक बहुत सशक्त टोली है. उस सशक्त आधार को प्रयोग करके, और कुछ नये नाटकों और आलेखों का प्रयोग करके अभियान दिल्ली के सुप्तप्रायः रंगमंच-जगत में नई जान फूँकने की क्षमता रखता है. इसके साथ ही साथ, उनके पास अपना एक बहुत सशक्त दर्शक-वर्ग भी है. ऐसे में दिल्ली के दर्शकों की अभियान से कुछ अलग विषयों पर, और कुछ नये नाटकों की अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा! हिन्दी में पुराने और नये भी बहुत से अच्छे नाटक हैं. आशा है कि अभियान इस ओर ध्यान देगा.
आजकल दिल्ली में नाटक करने के लिये प्रेक्षागृह तीसरे पहर दो बजे ही मिल पाता है! और पाँच या छः बजे शो होता है. उसके पहले कलाकारों के द्वारा एक रिहर्सल भी जरूरी होती है. ऐसे में, मंच-आलोकन करने वाले व्यक्ति को कठिनाई से एक-दो घंटे का ही समय लाइट-डिजाईन करने के लिये मिलता है! इतने कम समय में क्या मंच-आलोकन सम्भव है? और यदि यह सम्भव नहीं है, तो क्या दिल्ली में मंच-आलोकन की कला समाप्त हो जायेगी? इस प्रश्न पर दिल्ली के रंगकर्मियों को गम्भीरता से विचार करना होगा, और इस विषय में कुछ कदम उठाने ही होंगे; अन्यथा, आजकल की तथाकथित “इंटैलीजैंट लाइट्स” मंच-आलोकन की प्रयोगशीलता को समाप्त कर देंगी!
Wonderful !
I feel pained when I read about atrocities on women , specially married ! Being uneducated is not a sin for most creatures in this universe donot go to school or colleges but still can manage to live in Peace & Harmony !
It is authors choice to present realities still existing in our society & author has great command & skill in presenting ground reality of our society !
Great columnist & journalist, he has turned into an excellent *novelist, story- writer & a poet*
His work on history of Delhi’s theatre has been well appreciated.
*You are no less in contact with such renowned Artists !*
Wishing you and the author all the best for his great research in his selected field !
DK
So many thanks, Mr. D.K. Sharma!