सुख भरी नींद का सपना

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सुख भरी नींद का सपना
– एक नया बिदेसिया

     — अनिल गोयल

Shabdayatan
Courtesy: Shabdytan/Ed.Partap Sehgal

“हियाँ के गाँव और गाँवन के जैसे नईं लगत ऐं!” खिड़की के बाहर तेजी से भागते, पीछे छूटते मकानों, दुकानों, खलिहानों को देखती हुई वह बोली.

बस में बैठ कर अपने मोबाईल में खो जाना तो आजकल हर उम्र के लोगों का स्वभाव हो गया है.  जैसे बड़े शहरों में लोगों को अपने पडोसी का नाम भी मालूम नहीं होता, वैसे ही आजकल पाँच-सात घन्टों का सफ़र कर लेने पर भी बस में साथ बैठे लोग एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देखते-पहचानते; सफ़र के दौरान बीच के किसी शहर में बस के रुकने पर आप यदि नीचे उतर कर चाय पीने चले जाएँ और कोई अन्य व्यक्ति आपकी सीट पर आकर बैठ जाये, तो आपके पडोसी को पता भी नहीं चलेगा… वो जमाने अब कहाँ रहे, जब रेल के सफर के पूरा होते-होते तक उस दिन पहली बार एक-दूसरे से मिली दो स्त्रियों के पोते-पोती की शादियाँ भी तय हो जाया करती थीं!

लेकिन यह स्त्री तो अपने से दुगने से भी बड़ी उम्र के श्यामलाल जिन्दल से यात्रा के शुरू होने के समय से ही ऐसे घुलमिल कर बातें करती चली आई थी, जैसे छुटपन से ही उनको जानती रही हो.  कोई स्त्री अपने पति और बच्चों के बारे में या तो अपने मायके वालों से बातें करती है, या फिर अपने ऑफिस की लड़कियों से!  किसी अनजान आदमी से कौन औरत ये सब घरेलू बातें करेगी भला!

लेकिन जिन्दल साहब को इस पिछले एक-डेढ़ घन्टे में ऐसा लगने लगा था, कि जैसे वे इसके पिता के कोई पुराने मित्र हैं जो कभी रोज शाम को उनके साथ बैठ कर चाय पिया करते थे!  तभी तो दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे पर बस में बैठने के बाद से वह श्यामलाल जी को अपने पति और बच्चों ही नहीं, सास-ससुर और देवर और माँ-बाप से लेकर गाँव-मोहल्ला, और अपनी तथा अपने पति की नौकरी तक के भी बारे में सारे विवरण, सारी जानकारियाँ दे चुकी थी.  शुरू में वे उसकी एक-दो बातें सुनने के बाद फिर अपने मोबाईल में व्हाट्सैप पर सन्देश देखने लगे थे.  लेकिन फिर बगल में बैठी इस स्त्री की बातों की अविराम तेज़ धारा में बहते-बहते कुछ समय बाद उन्होंने अपना मोबाईल बन्द ही कर दिया; उन्हें समझ में आ गया था कि इसकी बातों में सिर्फ हाँ-हूँ करने से काम चलने वाला नहीं है – इसकी बातों में एक वाचाल स्त्री का सा अनर्गल प्रलाप तो है, लेकिन एक अजीब सी आत्मीयता भी है, जिससे यह तुरन्त सम्बन्धों की नवीनता की दूरियों को मिटा देने की क्षमता रखती है!

अपने सफ़ेद बालों के प्रति कुछ ज्यादा ही सचेत रहने वाले जिन्दल साहब जब बस-अड्डे पर बस में चढ़े, तो बस में इस लड़की के साथ वाली यही एक सीट खाली थी, बाकी सब सीटों पर यात्रीगण विराजमान थे.  एक बार तो उनका बुजुर्ग मन हिचकिचाया, सोचा कि अगली बस पकड़ लेंगे;  लेकिन कोई और चारा न देख कर सकुचाते-से वहीं बैठ गये – उन्हें हिसार में काम निपटा कर उसी शाम दिल्ली वापिस भी लौटना था.  और यह बस छोड़ दी, तो फिर अगली बस न जाने कितनी देर में मिले!  अतः उस युवा स्त्री की बगल में बस की इस गलियारे वाली सीट पर बैठने के अतिरिक्त और कोई चारा न था.

बैठते ही उस स्त्री ने सवाल दागा था, “हिसार जाय रए आप भी?”

“हां,” कह कर जिन्दल साहब ने अपनी इस सहयात्री को ध्यान से देखा – मुश्किल से सत्ताईस-अठाईस वर्ष की यह स्त्री, एकदम सुघड़ तरीके से साधारण लेकिन एकदम साफ-सुथरे कपडे पहने बैठी थी.  उसकी अत्यन्त साधारण दशा का फीकापन उसके चेहरे के एक अजीब से आत्मविश्वास की चमक से दमक ही रहा था.  कपड़ों के अत्यन्त साधारण होने पर भी आत्म-विश्वास की भव्यता कैसे चेहरे को दमका देती है, यह बात इस लड़की को देख कर अनायास ही समझ में आ जाती थी!  और फिर जैसे पुराने जमाने के स्पूल-रिकॉर्डर का बटन एक बार दबा देने पर गाने अनवरत चलते ही रहते थे, वैसे ही यह स्त्री पिछले डेढ़ घन्टे से लगातार बोले ही जा रही थी – इस टेप-रिकॉर्डर में आवाज को बन्द करने का बटन लगाना भगवान जैसे भूल ही गया था!

“आप कहाँ सर्विस करत हैं?”  उसने पूछा, तो वे बोले, “अखिल भारती बैंक में…”

“क्या हैं आप वहाँ?”

“चीफ मैनेजर हूँ,”  कह कर वह सोचने लगे कि अपने किसी भाई-बन्द की नौकरी लगवाने की बात ना कर दे अब यह.  लेकिन वह तो कुछ और ही बोली, “कितने साल हो गये दिल्ली में रहते आपको?”  उसे मेरे ओहदे से कोई फर्क पड़ा होगा, मुझे सन्देह था!  उसका निस्संकोच प्रश्न मेरा मुँह ताक रहा था.

“हम तो जन्म से यहीं हैं.  पैदा गाँव में हुए थे, लेकिन पिताजी की नौकरी दिल्ली में थी, तो रहे दिल्ली में ही!”

“कैसे आपने जिन्दगी के पचास-पचपन साल दिल्ली में काट लए?  हमारा तो आठ सालों में ही दम घुटने लगा है यहाँ!”

“मैं भी सोचता हूँ कि रिटायरमैंट के बाद गाँव वापिस लौट जाऊँगा.”

“कैसे जायेंगे!  मोड़ा-मोड़ी सब शहर में होएंगे!  कैसे छोड़ पाएँगे उनैं?”  अद्भुत ब्रह्मज्ञान उसके श्रीमुख से झर रहा था!  बात तो उसकी ठीक थी.

श्यामलाल जी बोले, “हमारा मामला थोड़ा अलग है.  घर-परिवार सब गाँव में ही रहा, बुआ-चाचा-ताऊ, सब वहीं हैं, पूरा डेढ़ सौ लोगों का कुनबा है आस-पास के गाँवों में.  दिल्ली में तो हम अकेले ही हैं.  लड़की हमारी कानून पढ़ कर मजिस्ट्रेट हो गई है, शादी करके अपने घर चली गई!  बड़ा बेटा हैदराबाद में है, छोटा लड़का हमारा भोलेनाथ जी हैं, उनका क्या – दिल्ली में रहें या गाँव में, उसने तो अपनी बिसाती की दुकान चलानी है.  दिल्ली में तो न तो ढंग से साँस ले सकते हैं, न रात को चैन से सो सकते हैं… इतनी तेज बत्तियाँ गलियों में लग गई हैं कि नींद ही नहीं आती उनके मारे – चैन की नींद तो जैसे सपना ही हो गई है वहाँ!  मैं तो दिल्ली का मकान बेच कर गाँव में जमीन खरीदूँगा, नीचे दुकानें बनाऊँगा, ऊपर दो मंजिलें रहने के लिये!  एक मकान एक दुकान खुद के लिये रखेंगे, एक दुकान एक मकान किराये पर चढ़ाएँगे – थोड़ा-बहुत किराया आयेगा, और ठाठ से अपनी दुकान भी चलाएँगे.”

यह योजना आज तक जिन्दल साहब ने अपनी घर वाली को भी नहीं बताई थी… इस अनजान लड़की के सामने यह पूरी योजना कैसे खुल गई, उन्हें खुद भी समझ नहीं आया!  शायद उस स्त्री की वाचालता का असर उनके जैसे कड़कपन और मितभाषिता के लिये बदनाम बैंक-मैनेजर पर भी हो गया था!

उस स्त्री को भी दिल्ली छोड़ कर गाँव में जा बसने का सपने देखने वाला कोई और व्यक्ति शायद अभी तक मिला नहीं था – यह पहला मनुष्य था जो दिल्ली छोड़ने की पगलाई सी बात कर रहा था.  लेकिन हरियाणा के गाँव उसने देखे थे, अतः बात कुछ-कुछ उसके पल्ले पड़ भी रही थी.

“हओ, गाँव यहाँ के अच्छे तो हैं – सड़कें भी अच्छी हैं, लोग भी अच्छे हैं.  उठाईगिरी, लुच्चागिरी, लफँगई बिल्कुल नईं दिखती.  कभी भी कहीं भी जाऔ, कोई समस्या नईं ऐ… बस, बोली यहाँ की बहुत ख़राब हती… भाषा तो एकदम उजड्ड है… अड़ै-उड़ै करके बोलत ऐं.  इसीलिये हम अपने बच्चौं को अपने साथ दिल्ली में ही रखत ऐं, यहाँ तो हमारे बच्चों की भाषा ख़राब हो जाती.  भाषा ही यदि ठीक नईं है, तो क्या ठीक होएगा!”

यहाँ के समाज का इतना सुन्दर विश्लेषण खुद जिन्दल साहब कभी नहीं कर पाये थे, जो इस ब्रम्हज्ञानी लड़की ने तुरत-फुरत कर दिया!  ज्ञान स्कूल जाकर किताबों से ही मिले, अपने यहाँ तो कभी ऐसी मान्यता ही नहीं रही है!  अगर ऐसा ही होता, तो संसार भर के ज्ञान की बातें नॉएडा की किसी फैक्ट्री में काम करने वाली, कभी स्कूल का मुँह भी जिसने नहीं देखा था ऐसी इस साधारण-सी ग्रामीण महिला के श्रीमुख से धड़धड़ न झर रही होतीं.

साँपला के बस-अड्डे से बस बाहर निकली, तब वह बोली, “बस बहुत धीमे नहीं चल रही ऐ?”

बस तो अपनी गति से ठीक ही चल रही थी!  जिन्दल साहब ने कोई उत्तर नहीं दिया.  जल्दी के चलते चाह तो वे भी रहे थे कि आवाज लगा कर ड्राईवर को बस को थोड़ा और तेज चलाने को बोलें.  लेकिन वे जानते थे कि हरियाणा में ऐसा करना खतरे से खाली नहीं होता था.  अपने यहाँ के ड्राईवरों के कैसे मनोरंजक जवाब उन्हें मिल सकते हैं, वे भली-भांति जानते थे, अतः उन्हें चुप रहना ही ठीक लगा – याद आ गईं बचपन से अब तक की यहाँ की हजारों बस-यात्राएँ… ड्राईवर को बस तेज चलाने के लिये बोलने पर क्या-क्या जवाब सवारियों को मिल सकते थे… एक बार एक ड्राईवर किसी से बोला था, ‘रै डट ले ना ताऊ, जल्दी पहुँच कै के आपणी बुआ के फेरे देक्खैगा!’  मतलब, आदमी को जल्दी केवल बुआ के ब्याह के ही कारण हो सकती है?  एक बार एक ड्राईवर किसी सवारी से बोला था, ‘रै ताऊ, इतनी गारती ना तारै, इबी तै बहुत सावण के झुल्ले झुल्लेगा तौं ताई गेल!’  सावन के झूले!  और यदि उस आदमी का अपनी पत्नी से छत्तीस का आँकड़ा रहता हो, और उनहोंने जीवन भर में कभी एक बार भी इकट्ठे झूला न झूला हो, तो?  लेकिन वह ड्राईवर तो उन दोनों को सावन का झूला झुला कर ही रहेगा, फिर चाहे झूले के पटरे पर दोनों आगे-पीछे एक-दूसरे की तरफ को पीठ करके ही बैठें!  शायद पिछले जन्म में मैरिज काउंसलर रहा हो यह ड्राईवर!  और एक बार तो इतना मजा आया था ड्राईवर का उत्तर सुन कर, ‘के बात सै छोकरी!  न्यूं तो कती बहुत सुथरी लाग्गै है कपड़ेयाँ तै, पर… टिकट ना ले रक्खी के, जो उतरण की जल्दी होण लाग री तन्ने!’  हाँ, इससे यह अवश्य लक्षित होता था कि यहाँ के समाज के ये संवाद हरियाणा में बुआ और ताऊ जैसे सम्मानित और गरिमा-पूर्ण रिश्तों तक ही सीमित रहते थे, उससे आगे नहीं जाते थे…

बस रोहतक से निकल कर छोटे-छोटे गाँवों को पीछे छोड़ती महम की तरफ को बढ़ने लगी थी, जब उसने बोला था कि यहाँ के गाँव गाँवों के जैसे नहीं लगते.  “हरियाणा के और तुम्हारी तरफ के गाँवों में फर्क है,” अपना ज्ञान बघारने का अवसर मिलने पर जिन्दल साहब को बड़ी राहत सी महसूस हुई, बहुत देर से उसकी ही बातें सुनते-सुनते बड़ी घुटन सी महसूस होने लगी थी उन्हें, “यहाँ के गाँवों में तुम्हें कच्चे घर, झोंपड़ी, खपरैल के घर नहीं मिलेंगे, लोगों के पास पैसा बहुत है, खेती-बाड़ी खूब है, रोजगार है, आय अच्छी है; इसलिये सारे घर यहाँ पक्के ही मिलेंगे… इसीलिये यहाँ के गाँव शहरों के जैसे ही लगते हैं, बाकी जगहों के गाँवों से एकदम अलग!”

“अब गाँव भला गाँव के जैसा ना लगे तो वह गाँव क्या हुआ!  घर-मकान सब पक्के हो गये, तालाब और मन्दिर भी सब कुछ पक्का ही पक्का, तो फिर शहर ही क्या बुरा है?”  जिन्दल साहब को एकदम कोई जवाब नहीं सूझा, तो वे इस ब्रह्म-ज्ञानिनी के आगे चुप कर रहे.

थोड़ी देर बाद वे बोले, “हिसार में क्या मायका है तुम्हारा?”

“नहीं, मायका तो मेरा झाँसी में है.  हिसार में तो वो रहत ऐं.”

“वो मतलब…?  अच्छा, वो…!” जिन्दल साहब रिश्तेदारियों का हिसाब लगाने में अक्सर गड़बड़ा जाया करते थे… लेकिन आज तो मतलब, उन्होंने हद ही कर दी… वह लड़की उनकी शक्ल देखने लगी.  वे बोले, “तो मायके से अपने घर लौट रही हो!”

“नहीं, नहीं… हम तो नॉएडा में रहत ऐं, वहीं नौकरी करत ऐं एक फैक्ट्री में… तीन दिन की छुट्टी हुई वहाँ, तो सोचा, उनके पास रह आऊँ!”  एक लम्बी निश्वास लेकर वह बोली, जैसे कितना बड़ा बोझ था पतिदेव के पास जाना!  जिन्दल साहब को लगा, जाने कितना बड़ा एहसान करने वाली थी वह अपने पति पर, तीन दिन उसके साथ रह कर!

“अच्छा! तुमने तो एक नया बिरहा रच दिया… पति तो हिसार में है, और तुम नौकरी करने के लिये दिल्ली में पड़ी हो!”  वह चुप रही.

“सास-ससुर नौकरी करते हैं क्या दिल्ली में?”  जिन्दल साहब ने पूछा, तो वह बोली, “नहीं, ससुर तो ज्यादातर गाँव में ही रहत ऐं; कभी खेती-बारी, कभी घर-परिवार में कोई लगन-बियाह तो कभी कुछ;  मेरी सास मेरे साथ हैं, और दो मोड़ा हैं हमारे, मतलब… मतलब… लड़का… दो लड़का हैं हमारे… नीरज नाम है हमाऔ …”

जिन्दल साहब ने अब तक उसका नाम नहीं पूछा था, सो उसने खुद ही बता दिया!  वह बोलती नहीं थी, शब्दों की मन्दाकिनी आप ही आप उसके गोमुख से प्रवाहित होती थी… भाषा इतनी सुन्दर, उच्चारण इतना स्पष्ट, जैसे काशी के कोई पण्डित प्रवचन कर रहे हों.  बातों-बातों में उसने बताया कि उसके पिताजी अपने घर में हर महीने रामचरितमानस का अखण्ड पाठ रखवाया करते थे, और उसी के बीच में कभी-कभी खुद ही मानस की व्याख्या भी किया करते थे.  “जाति के केवट हते हम लोग,” अत्यन्त दर्प से वह बोली – अपने को रामायण के निषादराज का वंशज मानते थे ये लोग, और मानस-पाठ को उत्तराधिकार में मिली बपौती, “हमईं नै तौ राम चन्नर जी महाराज और सीता मैया कौं गंगा मैया पार करवाई हतीं!”

बाप रे… जिन्दल साहब सोचने लगे, बपौती हो तो ऐसी… मकान-दुकान की बपौती भी क्या हुई भला!

“तुम हिसार में क्यों नहीं रहतीं अपने पति के पास?  वहाँ भी तो अच्छी नौकरियाँ मिल जाती होंगी!  कितनी फैक्ट्रियाँ हैं वहाँ भी!”

“मेरी और मेरे पति की कभी बनी नईं,” वह बोली, एक बेपरवाही, एक बेलौस मस्त तबियत उसके भरे हुए कपोलों और उसकी मानों धधकती हुई आँखों से छलक रही थी… “वो अनुशासन चाहते हते, और हम कभी सासन में बंध कैं रह नाएँ सकत… हमारे पिताजी नै कभी हमें अनुशासन मैं नहीं रखा… स्कूल पढ़ने भेजा, पर कभी नियम नैयें समझाये…!  हमाई सास भी इन्हें डांटती रहत ऐं, पर ये सुनते ही नहीं… तो वो बोलीं, तू चला जा जहाँ तुझे जाना है, हम तो नीरज के पास रहैंगे… ये लड़-झगड़ कै निऐं हिसार चले आये नौकरी कन्नै… हीहीही…”

‘क्या लड़की है यह!’ श्यामलाल जी ने सोचा… “तुमने तो गाय को अपने खूंटे पर बाँध रखा है, उसका बछड़ा तो खुद ही चला आयेगा पीछे-पीछे… कब तक हिसार में रहेगा!” जिन्दल साहब बोले, तो वह इतनी जोर से खिलखिला कर हँसी कि बस की सारी सवारियाँ औंचक सी इनकी तरफ को देखने लगीं.  लेकिन उसे तो यह बात जैसे पता ही नहीं चली.  वह तो बिना स्टॉप के बटन वाले टेपरिकॉर्डर की तरह बस बोले ही जा रही थी, “आँहाँ, ये नईंऐं आते हते दिल्ली होरी-दीवारी छोड़ कै नैयें… हमईं आ जात ऐं हिसार जब मन करत ऐ… नाराज रहत ऐं हम ते, कहत ऐं, हमार महतार और बच्चे अलग कद-दए तुमने तो हम ते… बहुत सीधे हैं हमारे ये…” कह कर खिड़की से बाहर देखने लगी… चारों ओर हरियाली फसलें लहलहा रही थीं… उसने निराश होकर निगाहें बस के अन्दर कर लीं… अभी हिसार के आने में देर थी!

लगभग आधा मिनट चुप रही होगी वो!  श्यामलाल जी ने मोबाईल की तरफ को देखा भर था, कि फिर उसकी आवाज आनी शुरू हो गई, “आप क्या काम ते जाय रए ऐं?  कोई सादी-बियाह?”

“नहीं शादी-ब्याह नहीं!  मैं रिटायर होने वाला हूँ एक-डेढ़ साल में… सोचता हूँ कि तब यहीं गाँव में वापिस आकर रहूँगा!”

“मर्द लोगन कों गाँव ही अच्छा लगत ऐ!  हमारे ये भी गाँव जाने की रट लगाए रक्खैंगे हर टैम!  हमें तो दिल्ली ही अच्छा लगत ऐ!  बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, साफ-सफाई, रोजगार – सब कुछ तो दिल्ली में है, गाँव में क्या रक्खा है?”  कभी वह अपने यहाँ की बोली बोलने लगती थी, फिर शायद उसे लगता होगा कि वह किसी बाबू आदमी से बात कर रही है, तो दिल्ली की भाषा बोलने लगती थी.  कितनी आसानी से ट्रैक बदल लेती थी इस लड़की की भाषा!

‘सब की अपनी-अपनी मजबूरियाँ हैं’, जिन्दल साहब ने सोचा, फिर बोले, “मेरे बच्चे तो पढ़-लिख कर दिल्ली से बाहर चले गये दोनों, अब दिल्ली में मेरा क्या रखा है!  छोटा लड़का कुछ करता नहीं, थोड़ा सीधा है, ज्यादा पढ़ा भी नहीं.  एक छोटी सी दुकान करवा दी है उसे घर के बाहर ही, शादी भी नहीं हुई उसकी.  अब रिटायरमैन्ट के बाद गाँव में आकर कुछ दिन साफ हवा में जिन्दगी बिता लें!  लड़के को भी वहीं अच्छी सी दुकान करवा देंगे!  लेकिन मेरी घर वाली नहीं मानती गाँव वापिस आने को!  वह कहती है ‘दामाद जी क्या गाँव की धूल फाँकेंगे, इतने बड़े जज हैं वो!’  अब, गाँवों में धूल-मिटटी कहाँ रही आजकल?  पक्की गलियाँ, पक्के मकान, पक्के खेत-खलिहान… नहीं नहीं… मतलब… खेत तो अब भी वैसे ही हैं, लेकिन खलिहान तो पक्के हो ही गये हैं!  लेकिन वह नहीं मानती.  अकेला कैसे रहूँगा गाँव में, अभी समझ नहीं पा रहा हूँ… नहीं जानता कि मन की कर पाऊँगा या नहीं.  लेकिन सोचने पर तो जोर नहीं है.  इसलिये दो बार चक्कर लगा चुका हूँ कि पता करूँ, क्या भाव चल रहे हैं गाँव में जमीनों के.  जानकारी पता करके रखने में क्या बुराई है!”

जो सम्भव नहीं है, उसे सम्भव बनाने का प्रयत्न वे कर रहे हैं, ऐसा जिन्दल साहब जानते थे!  लेकिन शायद कोई रास्ता निकल आये, इस अभिलाषा के साथ ही वे दो-चार महीने में गाँव चले आते थे!

“अपने लड़के का बायोडाटा और फोटू वाट्सैप कन्ना हमें, हम गाँव में अपने देवर को भेजेंगे, वह बहुत सादी-बियाह करवाता फिरत ऐ!  अपना कमीसन लेत ऐ, पर रिस्ता ऐसा करवाएगा, कि मोड़ी कईं जाए नईं सकत ऐ एक बार घर में आ जाने के बाद!  बहुत मानत ऐं लोग उसे!  नम्बर ले लओ हमार…”  और फ़ौरन अपना नम्बर उन्हें बोल गई… जिन्दल साहब ने नम्बर अपने फ़ोन में सेव कर लिया…

“हांसी… हांसी… हांसी… ओ चलो भाई हांसी आले… फिर हिसार ते पैल्लां गड्डी कहीं रुकने वाली नहीं ऐ…” कंडक्टर चिल्लाया, तो वो हड़बड़ा कर खड़ी हो गई… और जिन्दल साहब को लगभग ठेलती हुई सी बाहर निकलने को हुई, “हिसार आ गया… उतरिये!”

कैसी हड़बड़ी में थी यह औरत?  अभी तो अपने पति से इतना दूर का सा रिश्ता दिखा रही थी जैसे इसे केवल एक मजबूरी सी में ही हिसार आना पड़ता है.  और अब, हांसी को हिसार समझ कर यहीं बस से बाहर छाल मारने को उतावली हो रही है यह बावली!  यात्रा के प्रारम्भ में जिस पति से कभी न बनने की स्वाभिमान भरी गर्वोक्ति उसके मुख से निकली थी, अब वही मुख-मण्डल अपने उस विरही परदेसी से मिलने की अधीरता में कैसी कोमल रक्तिम आभा से भर आया था!

“हिसार नीं, हांसी आया है इबी… यहाँ मतनी उतर लिये… कदे फिर हल्ला काड्ढा!  आधा घंटा लगागा इबी हिसार आण मैं”, कन्डक्टर ने डांटा, तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी खिड़की से बाहर झाँकने लगी… बस-अड्डा उसे हिसार का सा नहीं लगा, तो अचकचा कर फिर सीट पर बैठ गई… उसके कानों की लौ की गहरी लाली जैसे हवा में घुलने लगी थी… म्लान चेहरे से एक बार फिर बाहर को देखा, और चुप हो रही!  श्यामलाल जी सोचते रहे कि क्या बोलें, फिर अपने मोबाईल में डूब गये… इस बार उसे बोलना शुरू करने में दो मिनट लग गये होंगे… “अपने बेटे का बायोडाटा भेज दीजियेगा हमें…” शुद्ध हिन्दी में वह बोली!

लेकिन बस जैसे ही हांसी के बस-अड्डे से बाहर निकली, कि फिर उसका ध्यान भंग हो गया… अब उसका मन पूरी तरह से विचलित हो चुका था… उसे जैसे अपने उस परदेसिया के अतिरिक्त कुछ और नहीं दीख रहा था, जिससे उसकी बनती नहीं थी!  “हिसार अभी आया दस मिनट में”, हर दो मिनट में यही वाक्य उसकी व्याकुल साँसों से निकल रहा था… जिन्दल साहब सोचने लगे, ‘कौन है हिसार में इसका… जो इससे झगड़ कर दिल्ली छोड़ कर इतनी दूर हिसार में नौकरी करने लगा है, जो हमेशा इससे नाराज़ रहता है कि उसके बच्चों और माँ से इसने उसे अलग कर दिया है… या फिर कोई ऐसा, जिसके बिना अगले तीस मिनट इसके लिये तीन घन्टों के समान बीतने वाले थे?’

बस के हिसार शहर की सीमा में घुसते ही उसके चेहरे पर एक बेबस उतावलापन सा छा गया… श्यामलाल जी की कोई बात अब उसके कानों में नहीं जा रही थी… अपने परदेसी से मिलन की कोमल बेचैनी ने उसके शरीर में एक आतुरता भरा तनाव भर दिया था… ऐसा लगता था कि पूरा संसार ही जैसे एकदम संकुचित होकर किसी एक चेहरे में समा कर बैठ गया था…

आखिर हिसार का बस अड्डा नजर आने लगा!  बस के रुकने के पहले ही वह सीट से खड़ी होकर सुर्ख चेहरा लिये खिड़की के बाहर झाँकने लगी, जबकि बैठ कर वह ज्यादा अच्छी तरह से झाँक सकती थी… बस-अड्डे के प्रवेश-द्वार के बाहर आधा दर्जन भर बसों के पीछे कतार में लगी थी उनकी बस अन्दर जाने के लिये.  लेकिन उसकी निगाहें तो यहाँ बाहर ही चारों तरफ अपने परदेसी को ढूँढ रही थीं… श्यामलाल जी ने बोला कि वे उसे अपने बेटे का बायोडाटा भेज देंगे, वह उसे अपने देवर को भेज दे… लेकिन उसे कुछ भी सुनना बन्द हो चुका था… कोमल अनुराग ने फिर से उसके कानों की लौ को दहका दिया था… उसकी विरही इन्द्रियाँ तो समस्त संसार के कार्य-व्यापार से विकेन्द्रित होकर केवल अपने विरही परदेसिया को ढूँढने में लगी थीं…

गाड़ी के बस-अड्डे में घुसने पर दूर से एक सुर्ख लाल रंग का सफ़ेद-नीली-पीली बिन्दियों से सजा रेशमी रुमाल हिलता हुआ दिखा… वह जैसे उछल कर सीट से खड़ी हो गई…

‘हम्म, तो यह इस विरहन का परदेसिया है…’ जिन्दल साहब ने सोचा… नीरज उन्हें ठेल कर बस के अगले द्वार की ओर को बढ़ी…

बस के पूरी तरह रुक जाने पर जिन्दल साहब चुपचाप पिछले दरवाजे से नीचे उतर गये.  लंगर खाने के बाद फेंक दी गई थर्मोकोल की थालियों और प्लास्टिक की थैलियों के ढेर से बदबू उठ रही थी… श्यामलाल जी सूअरों और कुत्तों की भीड़ से बचते हुए बस से आगे निकले, तो सामने से उन्हें अपनी आँखों में परम-तृप्ति लिये एक अलस सपना अपने परदेसिया के पीछे मोटरसाइकिल पर बैठा, दो मुंदे नयनों में उड़ता नज़र आया… एक सुख भरी नींद अपने उस विरही बालम की पीठ से चिपकी उड़ी चली जा रही थी… बन्द आँखों में कितने ही सपने बटोरे… हवा में उड़ते आँचल और बिखरते बालों से बेपरवाह…

न जाने क्यों जिन्दल साहब को अपनी आँखों में नमी की हल्की सी बाढ़ महसूस हुई… ऐसी, जैसी उन्हें अपनी बेटी की विदाई वाले दिन महसूस हुई थी… फिर अचानक उन्हें याद आया, उन्हें आज शाम ही दिल्ली वापिस लौटना था… उन्होंने अपनी निगाहें टैम्पो वाले की तरफ को दौड़ा दीं… गाँव में बसने के अपने सपने को पूरा करने की ओर को कदम आगे बढ़ाने के लिये…

First Published in Shabdyatn (Ed. Partap Sehgal)

Anil Goel

Anil Goel

Anil Goel has worked as a free-lance journalist, columnist, theatre-critic, election-analyst, translator and researcher with various leading Hindi and English newspapers, magazines, journals, All India Radio, Wikipedia, Facebook etc. since 1976. His research assistance assignments have been spread from Delhi University to IIT Delhi, JNU and Illinois University, Chicago. In his golden years, he has turned to being a novelist, story- writer and poet. His Hindi novel ‘Kahin Khulta Koi Jharokha’ was published in July 2022. Presently, he has devoted himself to more novel-writing and film-script writing. A bi-lingual writer, Anil has chosen to write primarily in his own language Hindi, but has written articles and a book & "Museums and Collections of Delhi", published in 1998, in English also. He has been member of the selection committees of many national and state level theatre festivals. Anil has been working on the history of Delhi’s theatre for long. He takes pleasure in organising seminars and exhibitions on theatre-personalities, museums etc. He has been awarded the Best Theatre Critic’s Award by the Natsamrat Theatre Group, Delhi, as well as Natya Bhushan Award by Haryana Institute of Performing Arts

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5 Responses

  1. Avatar Neera Bhargava says:

    कहानी पढ़ते समय भाषा के उतार – चढाव के साथ मैं इतनी खो गई और कल्पनाओं के माध्यम से अपनी मातृभूमि झाँसी पहुँच गई।
    सशक्त चित्रांकन लेखन। भाषा, वेशभूषा का वर्णन एवं सशक्त चित्रांकन लेखन। आँखों के सामने चलचित्र की भाँति पूरी कहानी चलती रही।
    अनंत शुभकामनाएँ।

  2. कहानी पढ़ते समय भाषा के उतार चढ़ाव में मैं इस तरह खो गई कि अपनी मातृभूमि झाँसी ही पहुँच गई। भाषा, वेशभूषा का वर्णन एवं सशक्त चित्रांकन लेखन। आँखों के सामने चलचित्र की भाँति पूरी कहानी चलती रही।
    शुभकामनाएँ।

  3. Avatar नीरा says:

    कहानी पढ़ते समय भाषा के उतार – चढाव के साथ मैं इतनी खो गई और कल्पनाओं के माध्यम से अपनी मातृभूमि झाँसी पहुँच गई।
    सशक्त चित्रांकन लेखन।
    अनंत शुभकामनाएँ।

  4. Avatar बलराम अग्रवाल says:

    आकर्षण और रुचिरता दोनों हैं इस कहानी में। मैं कहने का मन बना रहा था कि लड़की की भाषा किसी बुंदेलखंडी को दिखा लेनी थी, तभी उसकी कच्ची बुंदेलखंडी पर आपने ही स्पष्टीकरण लिख मारा। विशेष बात यह है कि कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे मजबूत भी होती जाती है। लड़की के जाने को बेटी की विदाई से जोड़ना, भावुकता बटोरने की कोशिश जैसा लगा। इसकी आवश्यकता नहीं थी। इसके बिना भी जिंदल साहब का चरित्र बेदाग था।
    बहरहाल, बहुत-बहुत बधाई। मैंने लम्बे समय। बाद कहानी पढ़ी है इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।🙏

  5. Avatarwp-user-avatar wp-user-avatar-48 alignnone photo उमंग says:

    पढ़ते पढ़ते जैसे मैं भी सहयात्री बन गयी थी , बिंदियों वाला रूमाल ऑंखों के सामने लहरा रहा है ,अलविदा कहता हुआ

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