वेश्यावृत्ति के दलदल से निकलने को बेताब “पिंजरे की तितलियां”

समीक्षा:
डॉ तबस्सुम जहां।
पिछले बरस देश विदेश में 10 से ज़्यादा राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल में अवार्ड अपने नाम कर चुकी फ़िल्म ‘पिंजरे की तितलियाँ’ अपने बोल्ड विषय को लेकर ख़ासी चर्चा बटोर रही है। पिछले बरस संजय लीला भंसाली की सुपरहिट वेबसीरीज़ ‘हीरामंडी’ की तरह डायरेक्टर आशीष नेहरा की यह फ़िल्म भी वेश्यावृति पर आधारित है जिसमें पारंपरिक वेश्यावृति को आगे बढ़ाने की छटपटाहट दिखाई देती है।
“पिंजरे की तितलियाँ” फ़िल्म में दिखाया परिवेश हमारे मुख्यधारा समाज के लिए बेशक टैबू हो सकता है पर यह भी सत्य है कि भारत से सटे पाकिस्तान तथा बांग्लादेश बॉर्डर पर ऐसे अनेक गाँव हैं जहाँ पर कुछ परिवारों मे पीढ़ीगत वेश्यावृत्ति का काम होता है। इन्हीं परिवारों में से एक की कहानी है फ़िल्म पिंजरे की तितलियाँ।
फ़िल्म में आखिरकार पिंजरे की तितलियाँ कौन हैं, अपने पिंजरे को तोड़ने के लिए वे किस प्रकार संघर्ष करती हैं। परिवार या समाज का वे कौन सा भयावह रूप है जिसे निर्देशक लोगों को दिखाना चाहता है। क्या ये पिंजरा टूट पाता है? ऐसे अनेक प्रशन दर्शकों के दिमाग़ में कौधते हैं जिनका उत्तर उन्हें फ़िल्म देख कर मिलता है।
फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें तो फ़िल्म का निर्देशन बहुत कमाल का है। पूरी फिल्म एक ही घर मे दिखाई गई है। पात्रों की संख्या भी गिनी चुनी है। पिता खब्बी बने मोहनकान्त, अजमल बनाम युवांग निज़ाम साहब बने दिग्विजय ओहल्यान ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की भरपूर प्रशंसा प्राप्त की है। स्त्री पात्रों में रूही का किरदार निभाने वाली गीता सरोहा ने दृश्यों में जान फूंक दी है। अफ़साना का अहम किरदार निभाया है सौम्या राठी ने। रुख़सार बनी रुचिता देओल ने अपने ग़ज़ब के अभिनय से सबकी खूब तारीफ बटोरी है। इतनी कम उम्र में रुचिता का इतना गम्भीर अभिनय सिद्ध करता है कि वह एक लाजवाब अदाकारा हैं। अपनी बेहतरीन अदाकारी के लिए रुचिता को मुंबई में हुए बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड भी मिला है। पात्रों की दृष्टि से देखें तो जहाँ एक ओर पुरुष पात्र दर्शकों में घृणा पैदा करते हैं वहीं दूसरी ओर सभी स्त्री पात्र दर्शकों की भरपूर संवेदना और सहानुभूति बटोर ले जाते हैं। फ़िल्म चूंकि वेश्यावृत्ति के मुद्दे पर आधारित है पर इसका निर्देशन में बहुत कसावट है। हालांकि विषय बोल्ड होने के के कारण यह फ़िल्म खासी चर्चा में रही है। पंजाबी मिश्रित संवाद हैं। फ़िल्म में गाली गलौच की अधिकता है जो परिवेश जनित है।
फ़िल्म की कहानी की बात करें तो पूरी फिल्म रुख़सार पात्र के इर्दगिर्द घूमती है। जिसके भीतर मौजूदा व्यवस्था को लेकर घृणा है। फ़िल्म के अंत मे वह पुरुषवादी व्यवस्था से अकेले लोहा लेती है। उसको ठेंगा दिखाती हुई ज़ोर ज़ोर से हँसती है। उसके सामने निज़ाम साहब बना पुरूष समाज खुद को ठगा हुआ-सा महसूस करता है। फ़िल्म का आरंभ जिस विसंगति और बेचैनी के साथ आरंभ होता है वहीं अंत में निज़ाम साहब का अपना-सा मुँह लेकर वापस जाना दर्शकों को थोड़ा सुकून-सा दिलाता है। फ़िल्म का अंत क्या होगा यह दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। रुखसार का विद्रोही होना दिखाता है कि वह पीढ़ीगत पेशे को स्वीकार नहीं करना चाहती। वह पढ़ना चाहती है। खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वह पिता से बगावत करती है। असल में वो मौजूदा व्यवस्था से विद्रोह करती है और आगे आने वाली पीढ़ी के लिए मार्ग खोल देती है। उसे घर की छत से एक गली मुख्य सड़क तक जाती नज़र आती है यही उसके लिए आशा की किरण है। डायरेक्टर आशीष नेहरा में एक बातचीत में बताया कि फ़िल्म का विषय चाहे कितना ही बोल्ड क्यों न हो लेकिन फ़िल्म में दर्शकों को कहीं से भी अश्लीलता या नग्नता नज़र नहीं आएगी। राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अनेक पुरस्कार जीतने के बाद फ़िल्म 3 जनवरी को ‘चौपाल’ एप्स पर रिलीज़ हुई है।
फ़िल्म के संगीत पक्ष बेजोड़ है। जब बैकग्राउंड म्यूज़िक बजता है तो वह दर्शकों के अंतर्मन को चीर कर रख देता है। इस म्यूज़िक में पीड़ा है विक्षोभ है स्त्री के अंतर्मन का। फ़िल्म का संगीत दर्शकों के दिल में संत्रास और बेचैनी पैदा करता है। और यह बेचैनी असल में फ़िल्म में दिखाए गए किरदारों के दिल की बेचैनी और घुटन है जिसे निर्देशक दर्शकों के मर्म तक पहुँचाने में सफल रहा है।
इस फ़िल्म का लाजवाब संगीत दिया है हिमांशु दहिया ने। पिंजरे की तितलियां शीर्षक सांग गाया है नितेश ने और गाने के बोल दिए हैं वरुनेन्द्र त्रिवेदी ने।
फिल्म निर्माता है तरणजीत बल, राकेश नेहरा और अभिषेक श्रीवास्तव।
If it comes to delhior ghaziabad,i would love to watch this film. Very nice review , with details. So,one would really love see it on the silver screen.