चौथी सिगरेट – अभाव और क्रान्ति
लेख:- अनिल गोयल
पिछली शताब्दी के साठ-सत्तर-अस्सी के दशक भारतीय राजनीति में रोमांटिसिज्म के दशक थे. पूँजीवाद… शोषण… समाजवाद… अस्मिता… आत्मसम्मान… ऐसे न जाने कितने ही अति-भावुकता भरे शब्द बीसवीं शताब्दी के उस उत्तरमध्य काल में हमारी तब की युवा पीढ़ी के मन को आन्दोलित करते रहे. युवाओं को चीन और रूस विश्व के तारणहार लगते थे… और समाजवाद सभी समस्याओं का हल लगता था. “आर्थिक समानता, सामाजिक समानता, बौद्धिक समानता, अवसरों की समानता, खुशियों की समानता…” जैसे लुभावने नारे उस समय पर बहुत प्रचलन में थे. विचारधारा अनेक स्थानों पर बहुत महत्व रखती थी. प्रयोग और कुछ नया करने के नाम पर फिल्मों और नाटक में अनेक बेढब चीजें आ रही थीं. इंदिरा गाँधी की राजनैतिक विफलता के कारण आन्दोलनों की तो जैसे बयार ही चला करती थी; युवाओं में आक्रोश और विद्रोह फैल रहा था! ऐसे में ‘प्रगतिशील’ होना एक फैशन था. और जो प्रगतिशील न हो, उसे सीधे-सीधे से बुर्जुआ कह कर उसका मजाक उड़ा दिया जाता था.
उस युग के उत्तरकाल में रीवा के योगेश त्रिपाठी ने एक रेडियो नाटक ‘अर्थ अनर्थ’ लिखा. बाद में इसमें कुछ परिवर्तन करके उन्होंने ‘चौथी सिगरेट’ नाम से इसे लिखा, जिसे साहित्य कला परिषद् दिल्ली का 2018 का मोहन राकेश सम्मान मिला. यह नाटक पूँजीवाद के विकृत रूप को दिखाने का एक प्रयास है, जिसमें एक लेखक वीरेश्वर सेनगुप्ता अपनी गरीबी और उससे उपजे सभी संघर्षों में अपने परिवार को पाल रहा है. अचानक उसका बचपन का एक मित्र समरेन्दु सान्याल संयोग से उसके घर आ निकलता है. वे दोनों उन पुराने दिनों की बात करते हैं, जब वीरेश्वर एक ही सिगरेट को तीन बार सूँघ कर छोड़ देता था, और चौथी बार में उसे पीता था, क्योंकि उसके पास सिगरेट खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे! समरेन्दु एक बहुत बड़ा उद्योगपति है, जबकि वीरेश्वर अभी भी लगभग उसी स्थिति में जी रहा है. समरेन्दु वीरेश्वर की लिखी हुई किताबों को अपने नाम से छपवाने का प्रस्ताव उसके सामने रखता है, जिसके बदले में वीरेश्वर को अकल्पनीय मात्रा में धन मिल सकता है. पहले तो वीरेश्वर मना कर देता है, लेकिन फिर मान जाता है.
कहानी में पेंच तब आता है, जब किताबें छप जाने के बाद पुस्तकों का विमोचन होना है, और समरेन्दु अपनी असुरक्षा के भाव के चलते पुस्तकों के मूल लेखक वीरेश्वर को विमोचन की पार्टी में नहीं बुलाता. लेकिन फिर भी वीरेश्वर वहाँ पहुँच जाता है, जो चीज समरेन्दु को और अधिक असुरक्षित कर देती है, और वो वीरेश्वर को वहाँ से चले जाने को मजबूर कर देता है.
लेकिन फिर उसकी अन्तरात्मा में उठा अंतर्द्वंद्व उसे उसके ऊँचे व्योम से नीचे ले आता है, और उसे अपने छोटेपन का अनुभव होने लगता है… यह कुछ सीमा तक अव्यावहारिक भी लग सकता है, क्योंकि, अब तक तो वीरेश्वर भी व्यावहारिक हो चुका है… वह लज्जा से झेंपता नहीं है, जब समरेन्दु उसे कहता है कि वीरेश्वर ने उसे अपनी बेटियों की शादी में नहीं बुलाया, बल्कि वीरेश्वर बहुत व्यावहारिक भाव से कहता है, कि ‘सौदे में यह नहीं था’!
फिर एक दिन समरेन्दु उससे कहता है कि वो यह घोषणा करना चाह रहा है कि उसके नाम से छपी पुस्तकें उसकी लिखी हुई न होकर वीरेश्वर द्वारा लिखित हैं. इस बात से वीरेश्वर में असुरक्षा की भावना आ जाती है, और वो कहता है कि ऐसा तुम नहीं करोगे… क्योंकि ऐसा करना बहुत खतरनाक होगा… ‘सबके लिए’… अब तक का समूचा साहित्य कठघरे में खड़ा हो जायेगा! यह चीज कुछ-कुछ सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ के जैसी है, जिसमें बाबा भारती डाकू खड्गसिंह को उनसे घोड़े को हथिया लेने की बात को दुनिया को बताने से मना करता है, ‘नहीं तो लोगों का दीन-दुखियों पर से विश्वास उठ जायेगा’! और वीरेश्वर और समरेन्दु दोनों ही अभिशप्त हो जाते हैं इस त्रासदी को झेलने के लिये… अपनी ही बनाई हुई स्थिति को स्वीकार करने के लिये दोनों को मजबूर होना पड़ता है! और यहाँ पर समरेन्दु कहता भी है, कि आज मैं जीत कर भी हार गया!
आदर्श और व्यावहारिकता के झूले में झूलता यह नाटक मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत अच्छे से पात्रों के मनोभावों का विश्लेषण करता है. नाटक में दोनों ही एक-दूसरे को दोष देने के स्थान पर अपनी और सामने वाले की मजबूरियों को स्वीकार करते हैं. नाटक के दोनों प्रमुख पात्र झूठी भावुकता में न जी कर एकदम व्यावहारिक स्तर पर बात करते हैं, जो चीज हिन्दी नाटकों में प्रायः कम ही देखी जाती रही है.
अभिनय के स्तर पर सभी कलाकारों ने बहुत कसे हुए अभिनय की प्रस्तुति दी. एक आनन्ददायक बात रही वर्षों बाद वीरेश्वर सेनगुप्ता की भूमिका में सुन्दरलाल छाबड़ा को मंच पर देखना. समरेन्दु सान्याल की भूमिका में विपिन भारद्वाज को देख कर न जाने क्यों, लगातार फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर की याद आती रही… शारदा की भूमिका में नन्दिनी के सहज अभिनय और भजन के गायन ने सभी को छू लिया. निष्ठा, विनीत और आमिर खान ने भी अपनी भूमिकाएँ बहुत सशक्त रूप से निभाईं. मंचसज्जा पर ज्यादा जोर न देकर इस प्रकार के नाटक के लिये दानिश ने सही वातावरण ही बनाया.
नाटक `चौथी सिगरेट’ दानिश इकबाल के निर्देशन में श्रीराम सेंटर में पन्ना भरतराम थिएटर फेस्टिवल में 19 दिसम्बर 2024 को देखने को मिला।