पश्मीना – दर्द का रिश्ता

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पश्मीना – दर्द का रिश्ता
अनिल गोयल

हिन्दी में नया नाट्य-लेखन बहुत कम हो रहा है. जब हिन्दी साहित्य के मठाधीश नाटक को साहित्य की विधा ही नहीं मानते, तो इस में बहुत आश्चर्य की बात भी नहीं है!

ऐसे में, अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे एक कॉर्पोरेट एग्जीक्यूटिव के द्वारा नाटक लिखा जाना एक सुखद आश्चर्य है. दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से अर्थशास्त्र का अध्ययन, और फिर एम.बी.ए. करने वाले मृणाल माथुर स्कूल और कॉलेज में नाटक देखते और करते थे. शिक्षा पूरी होने के बाद बीस वर्षों तक जीवन विज्ञापन जगत में कॉर्पोरेट एग्जीक्यूटिव के रूप में चलता रहा, लेकिन रचनात्मक अभिव्यक्ति की ज्वाला अन्दर कहीं दबी रही.

आखिर, 2015 में कॉर्पोरेट जीवन की घिसीपिटी नीरस जिन्दगी से उकता कर मृणाल ने कॉर्पोरेट जगत के साथ नाता तोड़ कर स्वतन्त्र कार्य करना प्रारम्भ कर दिया. अब जब कुछ समय अपने लिये मिला, तो मृणाल अपने पहले प्यार नाटक की ओर को मुड़े, नाटकों के लेखक के रूप में. अपनी पुरानी डायरियों और नोट्स को झाड़ा-पोंछा, और अगले छः वर्षों में बारह नाटक लिख डाले!

2018 में अपना पहला पूर्णकालिक नाटक ‘पश्मीना’ मुम्बई में एक प्रतियोगिता में भेजा, तो वह प्रथम तीन में चुन लिया गया. उस नाटक का मंचन साजिदा साजी ने किया. इस के बाद लिखे नाटक ‘अकबर दी ग्रेट नहीं रहे’ को दिल्ली में व्यावसायिक रूप से रंगकर्म करने वाले प्रसिद्ध निर्देशक डॉ. एम. सईद आलम ने उठा लिया, और वह नाटक भी सफल हो गया! पहले दो नाटक सफल हो गये, तो लेखन ही जीवन हो गया! इस के बाद के बाकी नाटक भी कुछ छपे, कुछ छपने की प्रक्रिया में हैं.

कभी प्रोफेशनल लेखक नहीं रहे एक कॉर्पोरेट एग्जीक्यूटिव की नाटक लिखने के पीछे सोच क्या रही, इस प्रश्न के उत्तर में मृणाल बताते हैं कि पिछले लगभग पन्द्रह वर्षों में हमारे समाज में चीजों को केवल एक ही पक्ष की ओर से देखने और दूसरे दृष्टिकोण को पूर्णतया नकारने की जो प्रवृत्ति पनप गई है, उस के प्रति एक वितृष्णा मेरे नाटकों में देखने को मिलेगी. दोनों ही ओर की अच्छी और बुरी दोनों ही चीजों को देखना और दिखाना आज के वर्तमान समाज में और अधिक आवश्यक हो गया है, इसी चीज को अपने नाटकों के माध्यम से मृणाल ने रेखांकित किया है.

आज की चल रही सोच के उलट चलने की भावना क्यों जागृत हुई, उस पर मृणाल बोले, “आजकल नाटकों के निर्देशकों के द्वारा लेखकों को किनारे कर देने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई है, जिस में लेखक की आवश्यकता को ही नकार दिया जाता है, ऐसे में रंगमंच में लेखक की आवश्यकता पहले से बहुत अधिक हो गई है. डिवाइज्ड या एक्सपैरिमैंटल नाटक के नाम पर लेखक को रंगमंच से बाहर कर दिया गया है, जिस से नाटक में पात्रों का अन्तर्द्वन्द्व उभर कर नहीं आ पाता… उस में केवल अपने ‘डिजाईन’ को दिखाने की होड़ ही नजर आती है. जिस कन्फ्लिक्ट को, मॉरल डाइलेमा को एक लेखक नाटक में लाता था, उसे एक निर्देशक, ड्रामाटर्ज या डिजाइनर नहीं ला सकता! लेखन एक बिल्कुल ही अलग विधा है!”

उन के द्वारा लिखित आठ नाटकों की नौ प्रस्तुतियों का आयोजन इवैन्ट मैनेजमैंट कम्पनी विब्ग्योर ने ‘नाट्यकुम्भ’ के रूप में दिल्ली के एल.टी.जी. रंगमण्डप में 4 से 11 जून 2023 तक किया. इस समारोह की पहली, और आखिरी प्रस्तुति भी नाटक ‘पश्मीना’ की रही, जिसे पहले दिन साजिदा साजी, और अन्तिम दिन वाले प्रयोग में जफर मोहिउद्दीन ने निर्देशित किया. बाकी सभी नाटकों का एक-एक ही प्रयोग रहा. अन्य नाटक थे, हास्य नाटक ‘अकबर दी ग्रेट नहीं रहे’, ‘दीदी आई.ए.एस.’ और ‘पाँच रुपैया बारह आना’, व्यंग्य ‘तीन तुम्हारी तरफ’ और ‘बिट्वीन यू एंड मी’, हिन्दी-अंग्रेजी नाटक ‘लाल किले का आखिरी मुकदमा’ और अंग्रेजी नाटक ‘गॉड्स लायनेस’, जिस की रीडिंग ही की गई. इन में से कुछ हिन्दी-अंग्रेजी में लिखे गये द्विभाषी नाटक हैं.

टेलीविजन की निरर्थक बहस के आज के युग में मृणाल माथुर अपने नाटकों के माध्यम से समकालीन घटनाओं पर मंथन करते नजर आते हैं. वे दर्शकों को मीडिया से मिलते उपदेशों या भेड़चाल का शिकार न होकर अपनी स्वयं की अन्तर्दृष्टि विकसित करने और अवधारणाओं के पीछे जा कर देखने को कहते हैं, उन्हें अपनी ही सोच और कल्पनाशीलता को उभारने का सन्देश देते हैं.

साजिदा साजी द्वारा निर्देशित नाटक ‘पश्मीना’ नाट्यकुम्भ’ का पहला नाटक था. पश्मीना – कश्मीर का ऊनी कपड़ा, जिस से शॉल, मफलर, कोट इत्यादि बनाये जाते हैं. जो ऊष्मा देता है. एक भावशून्य हो चुके जीवन में गति लाने के लिये भी ऊष्मा की आवश्यकता होती है. और पश्मीने और ऊष्मा के इसी सम्बन्ध को लेखक ने अपनी कलम के माध्यम से हम तक पहुँचाया है. इस नाटक में एक मध्यमवर्गीय दम्पत्ति अमर और विभा सक्सेना का बेटा, जो भारतीय सेना में सैनिक था, कुछ समय पूर्व कश्मीर में आतंकवाद की हिंसा का शिकार हुआ था. शहीद होने से पहले, घर आने पर वह अपनी माँ के लिये एक पश्मीने की शॉल लाना चाह रहा था, ऐसा उस ने अपने पत्र में लिखा था. बेटे की मौत से भावशून्य हो गई अपनी पत्नी के जीवन में ऊष्मा लाने के लिये उसी पश्मीना शॉल की खोज में अमर विभा के साथ कश्मीर जाता है. वहाँ उनकी भेंट एक युवा, उद्दाम, चंचल सिक्ख व्यापारी दम्पत्ति से हो जाती है. ये दोनों ही जोड़े पश्मीने की एक छोटी सी दुकान पर जाते हैं, जो लोग स्वयं ही पश्मीने का सामान बनाते हैं. वहाँ शॉल के भाव पर मोलतोल करते हुए दुकानदार के बेटे के भी एक आतंक-विरोधी ऑपरेशन में मारे जाने की बात पता चलती है. कश्मीर में आतंकवाद से उपजी हिंसा को बहुत बार दिखाया गया है. लेकिन सामान्य जन की व्यथा को दोनों ही ओर से एकांगी दृष्टि से ही देखा जाता रहा है. ऐसे में, दोनों पक्षों की पीड़ा को एक साथ दिखाने का यह अभिनव प्रयास ही इस नाटक को विशिष्टता प्रदान करता है.

नाटक का प्रमुख आकर्षण है नाटक के दो प्रमुख कलाकारों साजिदा साजी और जॉय मितई के भावपूर्ण अभिनय के क्षण… कैसे अपने बेटे को कश्मीर के आतंकवाद की हिंसा में गँवा बैठा यह प्रौढ़ दम्पत्ति दर्द की विभिन्न परतों के बीच से गुजरता, उन के बीच एक सूक्ष्म सन्तुलन बनाता हुआ, अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण पाने का सफल-असफल सा प्रयास करता, कश्मीर की यात्रा करते हुए अपने जीवन के कुछ अत्यन्त संवेदनशील क्षणों को जीता है. सबसे कारुणिक और संवेदनशील क्षण वे हैं, जब अमर और विभा को शॉल वाले के बेटे के बारे में पता चलता है! शॉल के साथ-साथ जो चीज इस दम्पत्ति को दुकानदार के साथ जोड़ती है, वह है अपने बेटे को खो देने की व्यथा! इस प्रकार का दर्द का सम्बन्ध दर्शकों को दो विपरीत धुरियों पर खड़े इन दोनों परिवारों की व्यथा के द्वारा कश्मीर-समस्या को एक सन्तुलित दृष्टि से देखने को प्रेरित करता है. इस प्रौढ़ माता-पिता और दुकानदार दोनों के ही दर्द एक जैसे हैं, जिस के कारण ये दोनों किसी एक स्तर पर जुड़े हुए भी हैं, जहाँ कोई भी अन्य बाहरी तत्व प्रवेश नहीं कर पाता है – साजिदा और जॉय ने जिस काव्यात्मक कोमलता के साथ, गैर-शाब्दिकता के साथ इन क्षणों को मंच पर जिया है, वह दिल्ली के रंगमंच में आज एक बहुत दुर्लभ चीज है, और वही इस नाटक को दर्शनीय बनाता है.

साजिदा इस नाटक को अभिनेता का नाटक मानती है… जहाँ निर्देशक और मंच पर अन्य सब कुछ भी गौण हो जाता है… केवल अभिनेताओं के द्वारा प्रेषित की जाने वाली संवेदनाएँ, और उन्हें अपनी आँखों और कानों से ग्रहण करते दर्शक ही प्रेक्षाग्रह में रह जाते हैं. और उसी तरीके से साजिदा ने इस नाटक को प्रस्तुत भी किया है… सैट के नाम पर केवल दरवाजों के तीन चौखटे बना दिये गये हैं, जो एक से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होने का भी प्रतीक हैं, और जिन पर टंगी कपड़े की लम्बी पट्टियों को पश्मीने की दुकान में शालों के रूप में भी प्रयोग कर लिया गया है. मेकअप और किन्हीं विशिष्ट परिधानों की भी आवश्यकता नहीं अनुभव की गई, न ही इस नाटक की गम्भीर बात को कहने के लिये किसी विशेष प्रकाश-व्यवस्था की आवश्यकता हुई. साजिदा को लगा कि इस नाटक में युद्ध की समस्या को एक अलग दृष्टि से देखा गया है, और युद्ध की त्रासदी को बिना कोई बेचारगी का भाव उत्पन्न किये, बिना रोये-धोये, अपनी बात कह दी गई है. किसी अपने के चले जाने के दर्द के क्षण में आदमी सुन्न हो जाता है… इस नाटक में वही क्षण लगातार उपस्थित रहे… जब इन कलाकारों ने कथा के पात्रों के दर्द को केवल अपने अभिनय के द्वारा दर्शकों तक पहुँचा दिया. एक अच्छे नाटक की यही सब से बड़ी खूबी होती है.

साजिदा और जॉय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षण ले कर दिल्ली में नाटक कर रहे हैं… गम्भीरता से, और लगातार, अपनी संस्था ट्रैजर आर्ट एसोसिएशन के माध्यम से. नौटंकी में इन के द्वारा किया गया एक सुन्दर प्रयोग कुछ वर्ष पूर्व मैंने देखा था. अपने चुने हुए व्यवसाय के प्रति पूर्ण निष्ठा और समर्पण ही इस जोड़े के काम को एक अलग महक देता है.

नाटक में सिक्ख जोड़े की भूमिका मोहम्मद शाहनवाज और रितु ने निभाई. दुकानदार की भूमिका में केयूर नन्दानिया थे, उस के बेटे की भूमिका में सूरज और बेटी की भूमिका में रिया पवार थीं. अमर और विभा के बेटे के रूप में थे सैफ सिद्दीकी, और डॉ. कौल की भूमिका अवनीश झा ने निभाई.
(चित्र सौजन्य: साजिदा साजी)

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2 Responses

  1. Avatarwp-user-avatar wp-user-avatar-48 alignnone photo उमंग सरीन says:

    समीक्षा से ही पता चल रहा है कि नाटक मन को छूने वाला है अवश्य ही ख़ूब सफल रहा होगा ।

  2. Anil Goel Anil Goel says:

    Thanks Manohar ji!

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