भारतीय इतिहास की एक भूली-बिसरी कहानी ‘वीर गोकुला’
वीर गोकुला
समीक्षा: अनिल गोयल

18 अगस्त 2025 को देव फौजदार ने दिल्ली के एल.टी.जी. प्रेक्षागृह में भारतीय इतिहास की एक भूली-बिसरी कहानी ‘वीर गोकुला’ प्रस्तुति की। धर्मान्ध औरंगजेब के अत्याचारों से बृज क्षेत्र के साधारण-जन बहुत परेशान हो जाते हैं। हिन्दुओं के मन्दिर तोड़े जाते थे, उनकी स्त्रियों को दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ता था।
शिवाजी के गुरु समर्थ गुरु रामदास उन दिनों मथुरा आए हुए थे। उनसे प्रेरणा और मार्गदर्शन लेकर वहाँ के तिलपत का एक जाट जमींदार गोकुलसिंह या गोकुलराम या गोकुला आस-पास के गाँव वालों को संगठित करता है, और सन 1669 में औरंगजेब की सेना से लोहा लेता है। समर्थ गुरु रामदास उन लोगों को गुरिल्ला युद्ध की तकनीकें भी इन्हें सिखाते हैं।
इसमें एक महत्वपूर्ण बात निर्देशक ने दिखाई कि वहाँ की महिलाओं ने भी गोकुला के इस संघर्ष में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। पुरुष-स्त्री सभी विशाल मुगल सेना के साथ युद्ध करते हैं। प्रारम्भ में गोकुला की बीस हजार सिपाहियों की इस सेना को कई छोटी-छोटी सफलताएँ भी मिलीं, लेकिन मुगलों की विशाल सेना से वो भला कब तक लड़ता?
अन्त में वह औरंगजेब की सेना के द्वारा बन्दी बना लिया जाता है। वे लोग गोकुला को इस्लाम स्वीकार करने को कहते हैं, जिसे वो अस्वीकार कर देता है। इस पर मुगल सेना 1 जनवरी 1670 को उसे मौत के घाट उतार देती है। उसकी पत्नी और अन्य स्त्रियाँ जौहर करने को मजबूर हो जाती हैं। लेकिन यहाँ का जौहर अग्नि में जल कर नहीं हुआ था, बल्कि यहाँ पर स्त्रियों ने कटार से आत्महत्या की थी!
यह घटना भरतपुर के जाट राजा सूरजमल से चार पीढ़ी पहले हुई बताई जाती है। कहा जाता है कि इस छोटी सी घटना ने आगे चल कर भरतपुर राज्य की नींव डालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नाटक के निर्देशक देव फौजदार स्वयं इस बृज क्षेत्र से ही आते हैं, अतः उनकी प्रस्तुति में प्रामाणिकता का होना निश्चित माना जा सकता है; क्योंकि इतिहास केवल वही नहीं होता जिसे विजेता लिखवाते हैं, अपितु ऐसे कठिन काल का इतिहास प्रायः ही लोककथाओं में घुल-मिल जाता है! और फिर, हमारे इतिहास की तो लाखों पुस्तकें और पाण्डुलिपियाँ जला भी दी गई थीं! ऐसे में इतिहास की तथाकथित “प्रामाणिकता” का प्रश्न भारत में निरर्थक हो जाता है।
देव फौजदार बताते हैं कि कुछ ही समय चल पाये इस संघर्ष में ब्राह्मणों, वैश्यों, यादवों, गूजरों, जाटवों, और बाल्मीकि सहित सभी जातियों ने अपना सहयोग दिया था। माथुर वैश्य समाज ने इन युद्धों के लिये धन उपलब्ध करवाया था… और गोकुला की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र में माथुर वैश्यों के तीन सौ गाँवों को जला दिया गया था। देव बताते हैं कि गोकुला के खजाने की रक्षा का काम चमार या जाटव तथा बाल्मीकि जाति के लोगों ने सम्भाला था, जो परम्परा सूरज मल जी तक भी इसी प्रकार चलती रही!
नाटक को निर्देशित करने के अतिरिक्त, एक दर्जन के लगभग पुस्तकों से शोध करके इस नाटक को लिखा भी देव फौजदार ने ही है। एक ऐतिहासिक नाटक में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है कलाकारों का अपनी ऊर्जा को बनाये रखना। उस हिसाब से यह एक सफल नाट्य प्रस्तुति रही – सभी कलाकारों ने नाटक के अन्त तक पूरी ऊर्जा के साथ नाटक को खेला। नाटक की ऊर्जावान गति को बनाये रखने में संगीत ने पूर्ण सहयोग दिया। देव फौजदार ने अपनी रचनात्मक परिकल्पना से ऐसे दृश्यबन्ध तैयार किये कि दर्शक सम्मोहित हो जाते थे।
नाटक का संगीत मोहन सागर और प्रसून ने दिया था, और तलवार चलाने का प्रशिक्षण गुरु विश्वजीत ने दिया, जिससे दृश्यों में एक जादुई प्रभाव पैदा हुआ। लड़ाई के दृश्य फाईट मास्टर रूपेश चौहान ने तैयार किये थे, जबकि सृजनात्मक पक्ष की जिम्मेवारी प्रसिद्ध दृश्यबन्ध निर्माता जयन्त देशमुख ने निभाई।
We should be proud to our freedom filters
and salute, no wards to explain their brevity
Only we can feel……
👏👏
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की ऐसी चुस्त कहानी पटकथा निर्देशन के लिए जयंत देशमुख, कलाकार एवं समस्त निर्माण टीम को हार्दिक बधाई साधुवाद… Simply feeling great about the role of unknown martyrs like Gokula of Indian soil. Spl show for Ministry of Culture/HRD should be organized or they must watch /know about such scripts/plays events.
Very right Mohan ji!