बाबूजी

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समीक्षा:

अनिल गोयल


समाज में हर व्यक्ति के चेहरे के दो चेहरे हुआ करते हैं – एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष. प्रत्यक्ष चेहरा तो सबके सामने होता है, सबको नजर आता है. लेकिन परोक्ष चेहरा अनेक तहों के नीचे दबा रहता है. इस दूसरे चेहरे को देख पाना किसी अन्य व्यक्ति के लिये बहुत कठिन होता है, हालांकि इस चेहरे में ही हर मनुष्य की सच्चाई छिपी हुआ करती है… एक छली व्यक्ति का छल और कपट भी, और एक सच्चे व्यक्ति की सच्चाई भी! यह छुपी हुई सच्चाई होती है उसके श्रम और उसके प्रयासों की, उसकी उपलब्धियों के पीछे के पसीने और अनबहे आँसुओं की, उसकी वेदनाओं, उसकी कमजोरियों की, उसके सच्चे अतीत की! उसका व्यक्तित्व इसी सच्चाई के पीछे छिपा हुआ रहा करता है.
बहुधा, इस परोक्ष चेहरे की सच्चाई समाज को स्वीकार्य नहीं हुआ करती. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी के होते हुए भी एक दूसरी स्त्री मल्लिका के साथ रहने लगे थे, जो स्वयं भी कवयित्री थी और उनके मन को समझ पाती थी. कुछ वही कहानी मिथिलेश्वर की कहानी ‘बाबूजी’ के नायक लल्लन सिंह की भी है, जिन्हें गाँव के सब लोग आदर के साथ बाबूजी बुलाते हैं.
बाबू लल्लन सिंहप्रारम्भ से ही नौटंकी और संगीत में रुचि लेते हैं. नौटंकी के प्रति उनकी रुचि सनक की सीमा तक है. लेकिन उनका परिवार और गाँव के लोग नौटंकी को अच्छा नहीं मानते. लल्लन सिंह ने परिश्रम करके मकान बनाया, ब्याह किया, तीन बच्चे हुए. उन्हें लगता है कि उनकी पत्नी उनकी भावनाओं को समझते हुए उनका साथ देगी. लेकिन उनकी पत्नी को भी उनका गाना-बजाना कुछ जँचा नहीं. जब नौटंकी के कारण उनकी पत्नी भी उनसे दूर हो जाती है, तो वे अपना संसार अलग बना लेने को मजबूर हो जाते हैं… उनके अपने ही घर में दो घर हो जाते हैं, जहाँ एक ओर हैं बाबूजी और उनकी नौटंकी-मण्डली, और दूसरी ओर हैं उनके पत्नी और बच्चे. अपने ही घर में गृह-विहीन हो जाना क्या होता है, यह इस कहानी का बहुत ही मार्मिक पक्ष है… कहा जाता है कि एक व्यक्ति पूरे समाज से लड़ सकता है, लेकिन अपने परिवार से नहीं. वह अपने परोक्ष या आन्तरिक व्यक्तित्व को त्यागे, या अपने परिवार को, ऐसी त्रिशंकु दशा किसी भी व्यक्ति को तोड़ देने के लिए पर्याप्त होती है.
पूरी दुनिया में बाबू लल्लनसिंह की नौटंकी की धूम है, लेकिन अपने ही घर में लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, और समाज में भी उन्हें नीची नजर से ही देखा जाता है! फिर कुछ समय के बाद उनकी नौटंकी कम्पनी में एक नाचने वाली सुरसतिया उनके साथ सम्मिलित हो गई. लल्लन सिंह के सुरसतिया के साथ केवल व्यावसायिक सम्बन्ध थे, तो भी उनके घर वालों को उस ‘पतुरिया’ और नौटंकी-मण्डली के सदस्यों का उनके घर में आकर अभ्यास करना रुचा नहीं. उनके बड़े लड़के को, जो अब पढ़-लिख कर बड़ा हो गया था, यह सब कुछ समाज में अपने अपमान का कारण लगने लगा था… जिससे बाबूजी अपना घर भी छोड़ने को मजबूर कर दिये जाते हैं.
और यह किसी समय पर समाज में बड़ी सामान्य सी चीज रही है… विशेषकर उत्तर भारत में… जहाँ नाट्यशास्त्र से लेकर शास्त्रीय नृत्य और संगीत की हजारों वर्षों लम्बी परम्परा रही है; लेकिन वहाँ कोई व्यक्ति जैसे ही थोड़ा सा पढ़-लिख जाता है, तो तुरन्त वह तथाकथित ‘सम्भ्रान्त’ बन जाता है, और ‘नाच-गाना’ बहुत हेय दृष्टि से देखा जाने वाला कृत्य बन जाता है! बाबूजी का छोटा लड़का ही बाबूजी के प्रति, और नाच-गाने तथा संगीत के प्रति भी, थोड़ा संवेदनशील है! आज के फेसबुक रील्स के युग में उस समय को समझना थोड़ा कठिन भी हो सकता है!
और इस सबकी पराकाष्ठा तब आती है, जब संयोग उन्हें एक बार फिर अपने घर लौटा लाता है… उनकी बेटी के विवाह के अवसर पर लड़के के पिता बाबूजी की ही नौटंकी का कार्यक्रम करवाते हैं! कोई कला जब पतन की ओर को अग्रसर हो कर समाज से निष्कासित होती है, तो किस प्रकार से उस कला के साधकों का जीवन कष्टकारी हो जाता है, यह इस कहानी और नाटक से स्पष्ट नजर आता है. इसकी एक छवि फिल्म ‘तीसरी कसम’ में सबने देखी है. बाबू लल्लन सिंह की अपने जीवन को अपनी तरह से जीने की जिद के कारण उत्पन्न परिस्थितियों पर ही यह नाटक केन्द्रित है.
इस कहानी को नाटक के रूप में सबसे पहले सन 1994 में श्रीराम सैंटर, दिल्ली के लिए बी.वी. कारंथ के द्वारा तैयार किया गया था. राजेश सिंह ने रानावि रंगमंडल के लिये इस नाटक की प्रस्तुति तैयार करते समय उन्हीं धुनों को पुनर्जीवित किया. राजेश ने दो-तीन और लोकधुनों का प्रयोग करके कुछ नये गीतों का भी इस नाटक में समावेश किया है, जिनका संगीत-संयोजन भी राजेश ने ही किया है.
राजेश सिंह काफी समय से इस नाटक का मंचन करते चले आ रहे हैं. इस बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) के रंगमण्डल के साठ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित रंग षष्ठी समारोह में ‘बाबूजी’ की प्रस्तुति राजेश सिंह ने दी. वे इस समय पर रानावि रंगमण्डल (एन.एस.डी. रैपर्टरी) के प्रमुख भी हैं. कहानी का नाट्य रूपांतरण विभांशु वैभव ने किया है. नाटक में दीप-प्रज्वलन अवतार साहनी का रहा, जिसने कहीं भी दर्शकों की आँखों पर जोर डाले बिना नाटक की गम्भीरता को बनाये रखा. नलिनी आर. जोशी की परिधान-परिकल्पना सदैव की ही भांति बहुत कल्पनाशील रही. निधि मिश्रा की नृत्य-संकल्पना और सन्तोष कुमार ‘सैंडी’ के ध्वनि-संयोजन ने दर्शकों को एक बार फिर से एक सीमा तक नौटंकी के पुराने काल में पहुँचा दिया.
बाबूजी की भूमिका में राजेश का अभिनय बहुत ही नपा-तुला है… अनेकों बार नौटंकी के अतिरेकी प्रभाव से बाहर निकल कर, दिल को छू लेने वाले भावपूर्ण अभिनय में आ कर बाबूजी की बेबस वेदनाओं को प्रकट करने के क्षणों को राजेश ने भरपूर जिया है… वे बाबूजी के जीवन की भव्यता और संघर्ष, दोनों को ही मंच पर पूरी भावात्मकता के साथ जीने में सफल रहे. और अधिक महत्वपूर्ण बात यह, कि इन भावपूर्ण क्षणों में एक अभिनेता के रूप में मंच पर प्रायः वे अकेले ही खड़े रहे हैं… अभिनय में राजेश के साथ कौशल्या के रूप में शिल्पा भारती, बड़कू के रूप में मुजीबुर्रहमान और जगेसर के रूप में नवीन सिंह ठाकुर ने कुशल अभिनय किया. लेकिन सुरसती के रूप में पोत्शांगबाम रीता देवी और लच्छू के रूप में बिक्रम लेपचा सदैव की ही भांति इस नाटक में भी अपने अभिनय से दर्शकों को आश्चर्यचकित करने में सफल रहे!
पिछले बीस वर्षों में रानावि रंगमण्डल में जिस प्रकार के ‘अति-ऊर्जावान’ अभिनय की परम्परा पड़ गई है, वह रंगमंडल के नाटकों की गम्भीरता और भव्यता को कम करता है. बाहर के कुछ अन्य निर्देशकों के साथ बातचीत में भी यह बात उभर कर आई! इसमें किसी चरित्र के मनोभावों को प्रदर्शित कर पाना लगभग असम्भव सा ही हो गया है. क्या राजेश इस प्रवृत्ति से रंगमंडल को बाहर निकाल सकेंगे? यही रंगमंडल के प्रमुख के रूप में राजेश के लिए चुनौती है! इन अभिनेताओं को जो ‘एनर्जी’ या ‘ऊर्जा’ का सिद्धान्त सिखाया गया है, उसमें केवल ‘शारीरिक ऊर्जा’ का ही जिक्र होता है. एक अभिनेता को केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक, आन्तरिक और वैचारिक ऊर्जा भी चाहिये होती है. नाटक कोई सर्कस नहीं है, न ही आधुनिक नाटक नौटंकी है, जिसमें आठ घंटे तक मंच पर रहना होता है! आधुनिक नाटक में चरित्र के आन्तरिक मनोभावों को प्रकट करना ही तो प्रमुख काम होता है. लेकिन उस सारी ऊर्जा को केवल शारीरिक ऊर्जा में बदल कर, अभिनेताओं का मंच पर तेज गति से इधर से उधर भागना और कलाबाजियाँ खाना उनके काम को हास्यास्पद बना देता है. विशेषकर ‘बाबूजी’ जैसे गम्भीर, और अनेक स्थानों पर विषादपूर्ण नाटक में, जिसमें गहरे भावाभिनय की आवश्यकता है, नौटंकी के नाम पर कलाबाजियाँ खाना नाटक को विस्मरणीय बना देता है.
राजेश ने इसे नौटंकी शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. लेकिन ब्रोशर में वे ‘नौटंकी’ शब्द का प्रयोग करने से अपने को बचा ले गये हैं. और यह उचित भी रहा. राजेश स्वयं तो नौटंकी की शैली को, उसके गायन को पकड़ पाते हैं… लेकिन वैसे और कलाकार अब रानावि रंगमण्डल में कितने हैं? हाँ, सुखद आश्चर्य हुआ बिक्रम लेपचा और रीता देवी को देख कर, जिन्होंने अपनी तमाम सीमाओं को लाँघ कर नौटंकी-शैली के गायन को पकड़ने का प्रयास किया है! राजेश ने भी कुछ संवाद नौटंकी-शैली में दे कर नौटंकी-प्रेमियों का मनोरंजन तो अवश्य किया, लेकिन दर्शकों की प्यास को राजेश अकेले नहीं बुझा सकते थे! नक्कारा-वादक जमील खान की मृत्यु के बाद इदरीस के बेटे अतीक की नक्कारे पर चोट जेठ की गर्मी के बाद के बरखा के चन्द छींटों की सी ही रही… सुन कर मन कुछ हर्षित तो हुआ, लेकिन प्यास तो बाकी रह ही गई!
नौटंकी के पुनरुद्धार या ‘रिवाइवल’ के बारे में बहुत बार चर्चा होती है. उस पर बहुत से प्रयोग भी समय-समय पर होते रहे हैं. लेकिन कोई साधन-सम्पन्न रंगमंडल ही नौटंकी पर कोई गम्भीर प्रयोग कर सकता है. रानावि रंगमंडल के पास उपलब्ध साधनों के साथ यदि नौटंकी पर कुछ नये प्रयोग किये जाएँ, तो हो सकता है कि कुछ अच्छे नौटंकी-आधारित नाटक भविष्य में देखने को मिल सकें. राजेश सिंह की वैयक्तिक पृष्ठभूमि, उनकी संगीत पर पकड़ और उनके गन्धर्व महाविद्यालय के प्रशिक्षण इत्यादि के आधार पर यदि हमें रानावि रंगमंडल में नौटंकी-आधारित कुछ मोहक प्रयोग देखने को मिलें, तो आश्चर्य न होगा!
दिल्ली के दर्शक गम्भीर नाटकों में प्रदर्शित मानवीय संवेदनाओं से दूर हो चुके हैं. बाबू लल्लन सिंह जब बहुत कष्टकारी स्थिति में हैं, गाँव वालों के द्वारा धिक्कारे जा रहे हैं, तो लोग हँसते हैं, तालियाँ बजाते हैं! साथ ही, हॉल में बैठे, कलाकारों के अपने ही साथियों के द्वारा अति-उत्साही तालियों का बजाना भी दर्शकों को समझ में आता है, और उनके रस में विघ्न डालता है. रंगमण्डल के प्रमुख को इस प्रकार के रस-विघ्न से अपने दर्शकों को बचाने का प्रयास करना चाहिये. सारी सीमाओं के होते हुए भी इस नाटक को इस स्वरूप में प्रस्तुत कर सकने के लिये राजेश सिंह को बधाई!

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