नब्बे के दशक की शुरुवात में मैं जब दिल्ली आया था तो उस वक्त राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के वरिष्ठ अभिनेताओं श्रीवल्लभ व्यास जी और रवि खानविलकर जी की मदद से रंगमंडल के जो नाटक देखने को मिले उनमें काठ की गाड़ी और आधे अधूरे भी शामिल हैं। इन दोनों नाटकों ने मुझे अलग अलग तरह से मुतासिर किया था चाहे वो लेखन हो या निर्देशन या अभिनय और दोनों मेरे ज़ेहन में अब तक बने हुए हैं। फिर जब कीर्ति जैन जी के नाटक सुवर्णलता से एक लाइट डिजाइनर के तौर पर थोड़ा बहुत पहचान बनी तो रानावि में सबसे पहले जिस नाटक का लाइट डिज़ाइन करने के लिए मुझे तत्कालीन निर्देशक राम गोपाल बजाज जी ने बुलाया वो उन्हीं निर्देशक का नाटक था। नाटक का नाम था चेरी का बगीचा (चेरी ऑर्चर्ड) और उन निर्देशक का नाम था – त्रिपुरारी शर्मा। चेखव के चेरी ऑर्चर्ड को उन्होंने छात्रों के साथ बहुमुख स्पेस में बहुत ही कल्पनाशीलता से निर्देशित किया था। फिर दुबारा से एनएसडी टाई के लिए उनके द्वारा लिखे व निर्देशित किए नाटक हैलो टू माइसेल्फ के लिए भी लाइट डिजाइन करने का अवसर मिला। दोनों नाटक जहां निर्देशन के लिए जाने गए वहीं दोनों की लाइट डिजाइन की भी खूब चर्चा हुई। फिर उनके कई और नाटक देखे और रंगकर्मी के तौर उनके काम को समझा।
त्रिपुरारी जी मितभाषी तो थीं ही, अपने काम को मेहनत और लगन से करने के लिए भी जानी जाती थीं। निर्देशन और लेखन में उनका समान दखल था। अल्काज़ी और कारंथ जी के बाद की पीढ़ी के रंगकर्मियों में वो निसंदेह एक सशक्त हस्ताक्षर थीं। वो लगातार अपने काम से अपने छात्रों को प्रेरित करने वाली टीचर थीं। उनका असमय जाना बहुत ही दुखदाई है। देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी क्षोभ है कि उन्हें किसी भी तरह बचाया न जा सका। और अंत में यही बचता है नमन, अलविदा! अलविदा त्रिपुरारी मैम।
किसका मोती, किसकी झोली?
किसका मोती किसकी झोली
बचपन में देखा था उसे पहली बार। उसकी माँ हमारे यहाँ काम करती थी। एक दिन संग बेटी को ले आई। बोली,”आज कुछ हरारत सी लगे है बीबी जी। इसे ले आई हूँ, कुछ हाथ बंटा देगी।” मेरी माँ बोलीं”अच्छा किया, दोनों मिल कर काम कर लो।”
इतवार था सो मैं भी घर पर थी। लड़की ने झटपट काम करना शुरू कर दिया। मैं छटी कक्षा में थी। नाश्ते के बाद पढ़ने बैठ गई थी। काम करती लड़की को कनखियों से देख रही थी।
गोरा चिट्टा धूप जैसा रंग, सुतवां नाक, पलकें ऐसीं कि झुके तो चेहरा छू लें उठे तो भौंहें। लंबे काले बाल, ये मोटी मोटी दो चोटियां लाल रिबन में बंधी हुई, दंतपंक्ति कुछ टेडी मेढ़ी पर चेहरे को और भी सलोना बना रहीं थी। गूदड़ी में लाल कहावत याद आ गयी। मैंने इशारे से बुलाया”क्या नाम है तुम्हारा?” माथे से मोती जैसे पसीने को कुर्ती की बाँह से पोंछ, इंच भर लंबी पलकें उठा कर बोली” मीत।” “कितने साल की हो?” पूछा मैंने
“पता नहीं, माँ कहती है शायद 12 की, बाबा को तो कुछ पता नहीं, पड़ोस के एक अंकल जी कहते हैं, सोलह की लगती हूँ।” एक साँस में फर्राटे से बोल गई लड़की। तभी उसकी माँ आ गई,”री छोरी, बस फिर बतियाने लगी। हे राम, कैसी औलाद दी है तूने। बाँस की तरह बढ़ रही है पर ये नहीं के कुछ काम ही कर ले। कुछ तो मुझ बुढ़िया को आराम मिले।”
माँ क्या थी, हिडिम्बा का अवतार, किसी पहलवान सी कद काठी, काला भुजंग रंग, बीड़ी पी पी कर काले पड़े दाँत,चौड़ी गुफ़ा से नथुने,चेहरा चेचक के बचे प्रसाद से भरा। “हाय राम! इस राक्षसी सी माँ की ऐसी रूपवती सन्तान। जाने कौन से पीर से मांग कर लायी होगी !”
मेरी उम्र तब 11 की थी। मुझे वो हमउम्र ही लगी। पहले ही दिन दोस्ती हो गयी। अब वो अक्सर आ जाती अपनी माँ के संग। एक दिन चाय बनाते हुए बोली,”जिज्जी तुम गुड़ की चाय चखी हो कभी?” “न, नहीं तो, चाय में गुड़ कौन डालता है मीत?”
उन दिनों चाय में गुड़ डालने का कारण बस ये था कि चीनी मेंहगी थी, गुड़ सस्ता,, तो निचले तबके के हिस्से में गुड़ आता। आज की बात और है,अब सफेद चीनी को बुरा कहते हैं।
आज सोचती हूँ क्या पैसा दे कर हम ज़हर खरीदते थे अब तक और अमृत गरीबों की थाली में सजता था? ख़ैर गुड़ की उस चाय का नैसर्गिक स्वाद जिह्वा आज तक नहीं भूली। फिर तो बड़ों से छुप छुप कर इमली गटारे, कच्चे आम, चूर्ण, आम पापड़ जाने कितने चटखारों को प्रसाद सा चढ़ाया अपनी जिह्वा की चटोरी देवी को हम दोनों ने।
पास ही एक गाँव जंडली में रहती थी मीत। उसके पिता का छोटा सा खेत था। कभी कभी माँ से पूछ मैं मीत के संग गाँव चली जाती।
मीत उछल उछल कर खेतों में आगे आगे चलती, मैं पीछे। आज सोचती हूँ कि ध्यान से देखती तो उसके पाँव के नीचे शायद पंख दिख ही जाते !
खेतों में कभी लाल सुर्ख़ गाजर उखाड़, पानी से धो,दो टुकड़े कर देती,एक उसका एक मेरा और कभी अमरूद के पेड़ पर गिलहरी सी चढ़ अमरूद तोड़ लाती।
बड़ी अजीब बात है कि बचपन में ढूंढते थे तोते का खाया अमरूद। हमारी खोज और अनुभव के अनुसार ऐसे अमरूद शर्तिया मीठे होते थे। और अब फल चाहिए एकदम बेदाग, भले ही मसाले से पके हों। फ़िर न तो बगीचे वाले घर हैं न पेड़ों पर चढ़ने वाले बच्चे।
दो तीन साल ऐसा ही चला। हम बड़े होते गये। मुझ पर पढ़ाई का बोझ बढ़ने लगा,, मीत पर जिंदगी का, दो तीन और भी घरों में काम करती पर जब तब हम दोनों मिलने का समय निकाल ही लेते। धीरे धीरे मीत का आना कम होता चला गया। उसकी मां ने बताया उसकी शादी की बात चल रही है।
अरे वाह ! मन मे सोचा जिद करके मैं भी चली जाऊंगी मीत की शादी में। दुल्हन बनी मीत को देखूँगी। यूँ ही जो रूप की खान थी, दुल्हन बन कर तो स्वर्ग की अप्सरा ही लगेगी।
कभी कभी कहती थी वो, जिज्जी,क्या करूँ इस निगोड़े रूप को,,, लोग ऐसे देखते हैं जैसे बदन टटोल रहे हों। पराये भी और कुछ अपने भी। जिज्जी गरीब की बेटी को सुंदर नहीं होना चाहिए न,, कहते कहते कंचन से चेहरे पर जैसे कोई बदरी छा जाती। पर मीत की शादी में न जा पाई,अनुमति नहीं मिली।
फिर एक दिन वो आई। लाल साड़ी, सिर पर पल्लू लिए, ढेर लाली सिंदूर माँग में,कलाईयों में कांच की खनखन करती हरी लाल चूड़ियां कानों में सोने के बुन्दे सोने जैसे चेहरे के रंग से होड़ लगाते हुए। “जिज्जी” कह कर लिपट गई। मैंने भी गले लगा लिया। लिपटी ही रहती पर अचानक माँ कह कर किसी ने पुकारा। देखा तो 7,8 साल का एक बच्चा पल्लू खींच रहा था। “कौन है ये, किसका बच्चा है,, माँ किसको बुला रहा है?” मैंने गोली से प्रश्न दाग दिए। मुझसे अलग हुई कुछ कहने को थी कि टक टक की आहट हुई जैसे बैसाखी हो। सचमुच ही बैसाखी टेकता एक अधेड़ पुरुष आ खड़ा हुआ। गहरा कोयले सा रंग,सिर पर छितरे से लाल बाल, पान से एक गाल फूला हुआ।
कौन हो भई तुम,, पूछने ही वाली थी कि बड़े अधिकार और अभिमान से उसने अपनी पुष्ट चौड़ी हथेली मीत के कंधे पर रख दी। खींसें निपोरता हुआ बोला,”आप से मिलने की बहुत इच्छा थी हमारी पत्नी जी की, इसीलिए ले आये। देवी का हुकुम कोई टालता है भला? और हमारा बिटवा तो नई माँ को छोड़ता नहीं पल भर को।”
मैं स्तब्ध, अवाक मुंह बाए देखती रह गई।अब क्या ही पूछना बाकी रह गया था? एक अधेड़ विधुर की दूसरी पत्नी, 8 साल के बच्चे की नवविवाहित माँ 18 -19 बरस की मीत ही थी।
कलेजे पर पत्थर रख उस अनोखे परिवार को चाय नाश्ता करवाया। अकेले में मीत से बात करने का मौका ही नहीं मिला,उसके मालिक ने अपनी सम्पति ने नज़र एक पल न हटाई। मां ने चलते हुए मीत को शगुन दे कर विदा किया।
हरदम चिड़िया सी चहचहाने वाली मीत पूरे समय कुछ भी न बोली, मुंह मे शब्द नहीं थे और आँखों मे जैसे प्राण न थे। बस एक सजी धजी काठ की गुड़िया लग रही थी, बेजान गुड़िया कभी बोलती है क्या? शाम को उसकी माँ काम करने आई तो मैंने आड़े हाथों लिया,” क्या मौसी, कैसी माँ हो तुम, कहाँ ब्याह दी लड़की,,,उस बुढ्ढे दुहाजू के साथ, जरा दया नहीं आयी निरीह गाय सी लड़की को जिबह करते हुए,, तुम्हारी तो अपनी जाई थी वो” क्रोध और आवेग में मैं बरस पड़ी।
मौसी का खुरदुरा काला चेहरा जैसे पिघलने लगा। मोटे मोटे ऑंसू झुर्रियों की पगडंडियों पर बहने लगे “सुन री बिटिया,, मेरी जाई न थी वो। आज बताती हूँ सब कुछ।कई साल पहले मेर घर वाला लाया था, बोला टेसन पर अकेली खड़ी रो रही थी। भीड़ में माँ बाप से बिछड़ गई थी।मैं ले आया।लड़की की जात, किसी गलत हाथ पड़ जाती। अब अपनी ही बेटी समझ। अब तू निपूती न रही।”
हिचकियों के बीच वो बोली”पर बिटिया मैंने तब से ही अपनी जाई सा प्यार किया था अभागी को। पाल पोस कर बड़ा किया। हमारे दामाद गांव के साहूकार और हमारे मकान मालिक हैं। बड़ा कर्ज़ा था उनका हमारे सर। एक दिन बोले या तो उधारी चुकता करो या मकान खाली कर दो। नहीं तो अपनी बेटी ब्याह दो मुझे।सारा कर्ज माफ़ कर दूँगा और 5000 रुपये भी दूँगा। क्या कहूँ बिटिया मैं बहुत रोई पर इसके बापू ने हां भर दी। कमबख्त ने बेच डाली बेटी। असली बाप होता तो शायद न कर देता।” आँसू मेरी भी आंखों में थे। सचमुच अभागी ही थी, जाने कौन घर में जन्मी, कहाँ पली और कैसे घर ब्याही। तभी तो,नैन नक्श रंग रूप कुछ भी नहीं मिलता था अपने माँ बाप से।
जिंदगी की इस नाइंसाफी का इंसाफ शायद उसे कभी न मिलेगा।
Every Human is an artist
Every human is an artist, a storyteller with a unique point of view. When we see ourselves as artists, we no longer feel the need to impose our views on others or to defend what we believe. We know that every artist has the right to create his/her own art, their own story.
–Don Miguel Ruiz
This is a great message from our very own contemporary Toltec Mexican shaman, Don Miguel Ruiz. So often, we get carried away with our own stories. Stories of how miserable, sick, pissed we are, what a rotten world this is, etc. Or, more violently, stories of our own religion, region, nationality, sexuality, that we try to impose on others–or else, I’ll shoot you? –Raj Ayyar
Beastly Tales: Animal and Human Fables
Beastly Tales : Animal and Human Fables A review by Manohar Khushalani
READINGS: Beastly Tales Poems by Vikram Seth with Stories by James Thurber Presented by Motley Recitations by Naseeruddin Shah; Ratna Pathak Shah; Heeba Shah; and Kenny Desai Produced by Jairaj Patil 17 November 2022
Beastly Tales was billed as readings by the well-known performers, Naseeruddin Shah, Ratna Pathak Shah, Heeba Shah and Kenny Desai. Produced by Jairaj Patil for Motley, the heavily attended event included poems by Vikram Seth, from his book ‘Beastly Tales with stories by James Thurber’, TS Eliot’s poems from ‘Old Possum’s Book of Practical Cats’ and Robert Browning’s Legendary poem ‘Pied Piper of Hamelin’. The starkly designed presentation had no bells and whistles. Led by Naseeruddin Shah, the four performers stood behind their individual lecterns and read out the poems with a flair and perfect diction. Each one read their own piece individually and sometimes, in perfect synchronisation, in a chorus.
Spiced with humour, the content of the performance was deftly curated to reflect idiosyncrasies of contemporary times with follies and foibles of its people juxtaposed against an animal world which reminds you eerily of ‘Fables of Aesop’ and ‘Panchatantra’. The animals were near human too, but unlike the complexities we fallible folks suffer from, the cat, the lion, the tiger, the elephant, the owl were more focussed with a single idiosyncrasy each. This curious fact, along with the pulsating rhythm of the poetry delivered with a punch and an aplomb by the actors brought out the message of each piece with precision.
Let’s pick a few stanzas from here and there and see for ourselves the merriness of the mirth involved.
The Tortoise, in Vikram Seth’s poem, initially maintained the original story with who won the race thus:
“And the cheering of the crowd Died at last, the tortoise bowed, And he thought: “That silly hare! So much for her charm and flair. Now she’ll learn that sure and slow Is the only way to go – That you can’t rise to the top With a skip, a jump, a hop”
But here comes the twist in Seth’s version, it is in fact the hare, who became the hero of the hour:
But it was in fact the hare, With a calm insouciant air Like an unrepentant bounder, Who allured the pressmen round her. “And Will Wolf, the great press lord Filled a Gold cup — on a whim – And with an inviting grin Murmured: “In my eyes you win.”
Each of the selections had interesting, and sometimes mind blowing twists and turns, that be made you realise that, as in real life, in these fairy tales too you cannot take a happy ending for grantedFirst Published in IIC Diary Nov-Dec 2022
First Published in IIC Diary Nov-Dec 2022
सुख भरी नींद का सपना
सुख भरी नींद का सपना – एक नया बिदेसिया
— अनिल गोयल
“हियाँ के गाँव और गाँवन के जैसे नईं लगत ऐं!” खिड़की के बाहर तेजी से भागते, पीछे छूटते मकानों, दुकानों, खलिहानों को देखती हुई वह बोली.
बस में बैठ कर अपने मोबाईल में खो जाना तो आजकल हर उम्र के लोगों का स्वभाव हो गया है. जैसे बड़े शहरों में लोगों को अपने पडोसी का नाम भी मालूम नहीं होता, वैसे ही आजकल पाँच-सात घन्टों का सफ़र कर लेने पर भी बस में साथ बैठे लोग एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देखते-पहचानते; सफ़र के दौरान बीच के किसी शहर में बस के रुकने पर आप यदि नीचे उतर कर चाय पीने चले जाएँ और कोई अन्य व्यक्ति आपकी सीट पर आकर बैठ जाये, तो आपके पडोसी को पता भी नहीं चलेगा… वो जमाने अब कहाँ रहे, जब रेल के सफर के पूरा होते-होते तक उस दिन पहली बार एक-दूसरे से मिली दो स्त्रियों के पोते-पोती की शादियाँ भी तय हो जाया करती थीं!
लेकिन यह स्त्री तो अपने से दुगने से भी बड़ी उम्र के श्यामलाल जिन्दल से यात्रा के शुरू होने के समय से ही ऐसे घुलमिल कर बातें करती चली आई थी, जैसे छुटपन से ही उनको जानती रही हो. कोई स्त्री अपने पति और बच्चों के बारे में या तो अपने मायके वालों से बातें करती है, या फिर अपने ऑफिस की लड़कियों से! किसी अनजान आदमी से कौन औरत ये सब घरेलू बातें करेगी भला!
लेकिन जिन्दल साहब को इस पिछले एक-डेढ़ घन्टे में ऐसा लगने लगा था, कि जैसे वे इसके पिता के कोई पुराने मित्र हैं जो कभी रोज शाम को उनके साथ बैठ कर चाय पिया करते थे! तभी तो दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे पर बस में बैठने के बाद से वह श्यामलाल जी को अपने पति और बच्चों ही नहीं, सास-ससुर और देवर और माँ-बाप से लेकर गाँव-मोहल्ला, और अपनी तथा अपने पति की नौकरी तक के भी बारे में सारे विवरण, सारी जानकारियाँ दे चुकी थी. शुरू में वे उसकी एक-दो बातें सुनने के बाद फिर अपने मोबाईल में व्हाट्सैप पर सन्देश देखने लगे थे. लेकिन फिर बगल में बैठी इस स्त्री की बातों की अविराम तेज़ धारा में बहते-बहते कुछ समय बाद उन्होंने अपना मोबाईल बन्द ही कर दिया; उन्हें समझ में आ गया था कि इसकी बातों में सिर्फ हाँ-हूँ करने से काम चलने वाला नहीं है – इसकी बातों में एक वाचाल स्त्री का सा अनर्गल प्रलाप तो है, लेकिन एक अजीब सी आत्मीयता भी है, जिससे यह तुरन्त सम्बन्धों की नवीनता की दूरियों को मिटा देने की क्षमता रखती है!
अपने सफ़ेद बालों के प्रति कुछ ज्यादा ही सचेत रहने वाले जिन्दल साहब जब बस-अड्डे पर बस में चढ़े, तो बस में इस लड़की के साथ वाली यही एक सीट खाली थी, बाकी सब सीटों पर यात्रीगण विराजमान थे. एक बार तो उनका बुजुर्ग मन हिचकिचाया, सोचा कि अगली बस पकड़ लेंगे; लेकिन कोई और चारा न देख कर सकुचाते-से वहीं बैठ गये – उन्हें हिसार में काम निपटा कर उसी शाम दिल्ली वापिस भी लौटना था. और यह बस छोड़ दी, तो फिर अगली बस न जाने कितनी देर में मिले! अतः उस युवा स्त्री की बगल में बस की इस गलियारे वाली सीट पर बैठने के अतिरिक्त और कोई चारा न था.
बैठते ही उस स्त्री ने सवाल दागा था, “हिसार जाय रए आप भी?”
“हां,” कह कर जिन्दल साहब ने अपनी इस सहयात्री को ध्यान से देखा – मुश्किल से सत्ताईस-अठाईस वर्ष की यह स्त्री, एकदम सुघड़ तरीके से साधारण लेकिन एकदम साफ-सुथरे कपडे पहने बैठी थी. उसकी अत्यन्त साधारण दशा का फीकापन उसके चेहरे के एक अजीब से आत्मविश्वास की चमक से दमक ही रहा था. कपड़ों के अत्यन्त साधारण होने पर भी आत्म-विश्वास की भव्यता कैसे चेहरे को दमका देती है, यह बात इस लड़की को देख कर अनायास ही समझ में आ जाती थी! और फिर जैसे पुराने जमाने के स्पूल-रिकॉर्डर का बटन एक बार दबा देने पर गाने अनवरत चलते ही रहते थे, वैसे ही यह स्त्री पिछले डेढ़ घन्टे से लगातार बोले ही जा रही थी – इस टेप-रिकॉर्डर में आवाज को बन्द करने का बटन लगाना भगवान जैसे भूल ही गया था!
“आप कहाँ सर्विस करत हैं?” उसने पूछा, तो वे बोले, “अखिल भारती बैंक में…”
“क्या हैं आप वहाँ?”
“चीफ मैनेजर हूँ,” कह कर वह सोचने लगे कि अपने किसी भाई-बन्द की नौकरी लगवाने की बात ना कर दे अब यह. लेकिन वह तो कुछ और ही बोली, “कितने साल हो गये दिल्ली में रहते आपको?” उसे मेरे ओहदे से कोई फर्क पड़ा होगा, मुझे सन्देह था! उसका निस्संकोच प्रश्न मेरा मुँह ताक रहा था.
“हम तो जन्म से यहीं हैं. पैदा गाँव में हुए थे, लेकिन पिताजी की नौकरी दिल्ली में थी, तो रहे दिल्ली में ही!”
“कैसे आपने जिन्दगी के पचास-पचपन साल दिल्ली में काट लए? हमारा तो आठ सालों में ही दम घुटने लगा है यहाँ!”
“मैं भी सोचता हूँ कि रिटायरमैंट के बाद गाँव वापिस लौट जाऊँगा.”
“कैसे जायेंगे! मोड़ा-मोड़ी सब शहर में होएंगे! कैसे छोड़ पाएँगे उनैं?” अद्भुत ब्रह्मज्ञान उसके श्रीमुख से झर रहा था! बात तो उसकी ठीक थी.
श्यामलाल जी बोले, “हमारा मामला थोड़ा अलग है. घर-परिवार सब गाँव में ही रहा, बुआ-चाचा-ताऊ, सब वहीं हैं, पूरा डेढ़ सौ लोगों का कुनबा है आस-पास के गाँवों में. दिल्ली में तो हम अकेले ही हैं. लड़की हमारी कानून पढ़ कर मजिस्ट्रेट हो गई है, शादी करके अपने घर चली गई! बड़ा बेटा हैदराबाद में है, छोटा लड़का हमारा भोलेनाथ जी हैं, उनका क्या – दिल्ली में रहें या गाँव में, उसने तो अपनी बिसाती की दुकान चलानी है. दिल्ली में तो न तो ढंग से साँस ले सकते हैं, न रात को चैन से सो सकते हैं… इतनी तेज बत्तियाँ गलियों में लग गई हैं कि नींद ही नहीं आती उनके मारे – चैन की नींद तो जैसे सपना ही हो गई है वहाँ! मैं तो दिल्ली का मकान बेच कर गाँव में जमीन खरीदूँगा, नीचे दुकानें बनाऊँगा, ऊपर दो मंजिलें रहने के लिये! एक मकान एक दुकान खुद के लिये रखेंगे, एक दुकान एक मकान किराये पर चढ़ाएँगे – थोड़ा-बहुत किराया आयेगा, और ठाठ से अपनी दुकान भी चलाएँगे.”
यह योजना आज तक जिन्दल साहब ने अपनी घर वाली को भी नहीं बताई थी… इस अनजान लड़की के सामने यह पूरी योजना कैसे खुल गई, उन्हें खुद भी समझ नहीं आया! शायद उस स्त्री की वाचालता का असर उनके जैसे कड़कपन और मितभाषिता के लिये बदनाम बैंक-मैनेजर पर भी हो गया था!
उस स्त्री को भी दिल्ली छोड़ कर गाँव में जा बसने का सपने देखने वाला कोई और व्यक्ति शायद अभी तक मिला नहीं था – यह पहला मनुष्य था जो दिल्ली छोड़ने की पगलाई सी बात कर रहा था. लेकिन हरियाणा के गाँव उसने देखे थे, अतः बात कुछ-कुछ उसके पल्ले पड़ भी रही थी.
“हओ, गाँव यहाँ के अच्छे तो हैं – सड़कें भी अच्छी हैं, लोग भी अच्छे हैं. उठाईगिरी, लुच्चागिरी, लफँगई बिल्कुल नईं दिखती. कभी भी कहीं भी जाऔ, कोई समस्या नईं ऐ… बस, बोली यहाँ की बहुत ख़राब हती… भाषा तो एकदम उजड्ड है… अड़ै-उड़ै करके बोलत ऐं. इसीलिये हम अपने बच्चौं को अपने साथ दिल्ली में ही रखत ऐं, यहाँ तो हमारे बच्चों की भाषा ख़राब हो जाती. भाषा ही यदि ठीक नईं है, तो क्या ठीक होएगा!”
यहाँ के समाज का इतना सुन्दर विश्लेषण खुद जिन्दल साहब कभी नहीं कर पाये थे, जो इस ब्रम्हज्ञानी लड़की ने तुरत-फुरत कर दिया! ज्ञान स्कूल जाकर किताबों से ही मिले, अपने यहाँ तो कभी ऐसी मान्यता ही नहीं रही है! अगर ऐसा ही होता, तो संसार भर के ज्ञान की बातें नॉएडा की किसी फैक्ट्री में काम करने वाली, कभी स्कूल का मुँह भी जिसने नहीं देखा था ऐसी इस साधारण-सी ग्रामीण महिला के श्रीमुख से धड़धड़ न झर रही होतीं.
साँपला के बस-अड्डे से बस बाहर निकली, तब वह बोली, “बस बहुत धीमे नहीं चल रही ऐ?”
बस तो अपनी गति से ठीक ही चल रही थी! जिन्दल साहब ने कोई उत्तर नहीं दिया. जल्दी के चलते चाह तो वे भी रहे थे कि आवाज लगा कर ड्राईवर को बस को थोड़ा और तेज चलाने को बोलें. लेकिन वे जानते थे कि हरियाणा में ऐसा करना खतरे से खाली नहीं होता था. अपने यहाँ के ड्राईवरों के कैसे मनोरंजक जवाब उन्हें मिल सकते हैं, वे भली-भांति जानते थे, अतः उन्हें चुप रहना ही ठीक लगा – याद आ गईं बचपन से अब तक की यहाँ की हजारों बस-यात्राएँ… ड्राईवर को बस तेज चलाने के लिये बोलने पर क्या-क्या जवाब सवारियों को मिल सकते थे… एक बार एक ड्राईवर किसी से बोला था, ‘रै डट ले ना ताऊ, जल्दी पहुँच कै के आपणी बुआ के फेरे देक्खैगा!’ मतलब, आदमी को जल्दी केवल बुआ के ब्याह के ही कारण हो सकती है? एक बार एक ड्राईवर किसी सवारी से बोला था, ‘रै ताऊ, इतनी गारती ना तारै, इबी तै बहुत सावण के झुल्ले झुल्लेगा तौं ताई गेल!’ सावन के झूले! और यदि उस आदमी का अपनी पत्नी से छत्तीस का आँकड़ा रहता हो, और उनहोंने जीवन भर में कभी एक बार भी इकट्ठे झूला न झूला हो, तो? लेकिन वह ड्राईवर तो उन दोनों को सावन का झूला झुला कर ही रहेगा, फिर चाहे झूले के पटरे पर दोनों आगे-पीछे एक-दूसरे की तरफ को पीठ करके ही बैठें! शायद पिछले जन्म में मैरिज काउंसलर रहा हो यह ड्राईवर! और एक बार तो इतना मजा आया था ड्राईवर का उत्तर सुन कर, ‘के बात सै छोकरी! न्यूं तो कती बहुत सुथरी लाग्गै है कपड़ेयाँ तै, पर… टिकट ना ले रक्खी के, जो उतरण की जल्दी होण लाग री तन्ने!’ हाँ, इससे यह अवश्य लक्षित होता था कि यहाँ के समाज के ये संवाद हरियाणा में बुआ और ताऊ जैसे सम्मानित और गरिमा-पूर्ण रिश्तों तक ही सीमित रहते थे, उससे आगे नहीं जाते थे…
बस रोहतक से निकल कर छोटे-छोटे गाँवों को पीछे छोड़ती महम की तरफ को बढ़ने लगी थी, जब उसने बोला था कि यहाँ के गाँव गाँवों के जैसे नहीं लगते. “हरियाणा के और तुम्हारी तरफ के गाँवों में फर्क है,” अपना ज्ञान बघारने का अवसर मिलने पर जिन्दल साहब को बड़ी राहत सी महसूस हुई, बहुत देर से उसकी ही बातें सुनते-सुनते बड़ी घुटन सी महसूस होने लगी थी उन्हें, “यहाँ के गाँवों में तुम्हें कच्चे घर, झोंपड़ी, खपरैल के घर नहीं मिलेंगे, लोगों के पास पैसा बहुत है, खेती-बाड़ी खूब है, रोजगार है, आय अच्छी है; इसलिये सारे घर यहाँ पक्के ही मिलेंगे… इसीलिये यहाँ के गाँव शहरों के जैसे ही लगते हैं, बाकी जगहों के गाँवों से एकदम अलग!”
“अब गाँव भला गाँव के जैसा ना लगे तो वह गाँव क्या हुआ! घर-मकान सब पक्के हो गये, तालाब और मन्दिर भी सब कुछ पक्का ही पक्का, तो फिर शहर ही क्या बुरा है?” जिन्दल साहब को एकदम कोई जवाब नहीं सूझा, तो वे इस ब्रह्म-ज्ञानिनी के आगे चुप कर रहे.
थोड़ी देर बाद वे बोले, “हिसार में क्या मायका है तुम्हारा?”
“नहीं, मायका तो मेरा झाँसी में है. हिसार में तो वो रहत ऐं.”
“वो मतलब…? अच्छा, वो…!” जिन्दल साहब रिश्तेदारियों का हिसाब लगाने में अक्सर गड़बड़ा जाया करते थे… लेकिन आज तो मतलब, उन्होंने हद ही कर दी… वह लड़की उनकी शक्ल देखने लगी. वे बोले, “तो मायके से अपने घर लौट रही हो!”
“नहीं, नहीं… हम तो नॉएडा में रहत ऐं, वहीं नौकरी करत ऐं एक फैक्ट्री में… तीन दिन की छुट्टी हुई वहाँ, तो सोचा, उनके पास रह आऊँ!” एक लम्बी निश्वास लेकर वह बोली, जैसे कितना बड़ा बोझ था पतिदेव के पास जाना! जिन्दल साहब को लगा, जाने कितना बड़ा एहसान करने वाली थी वह अपने पति पर, तीन दिन उसके साथ रह कर!
“अच्छा! तुमने तो एक नया बिरहा रच दिया… पति तो हिसार में है, और तुम नौकरी करने के लिये दिल्ली में पड़ी हो!” वह चुप रही.
“सास-ससुर नौकरी करते हैं क्या दिल्ली में?” जिन्दल साहब ने पूछा, तो वह बोली, “नहीं, ससुर तो ज्यादातर गाँव में ही रहत ऐं; कभी खेती-बारी, कभी घर-परिवार में कोई लगन-बियाह तो कभी कुछ; मेरी सास मेरे साथ हैं, और दो मोड़ा हैं हमारे, मतलब… मतलब… लड़का… दो लड़का हैं हमारे… नीरज नाम है हमाऔ …”
जिन्दल साहब ने अब तक उसका नाम नहीं पूछा था, सो उसने खुद ही बता दिया! वह बोलती नहीं थी, शब्दों की मन्दाकिनी आप ही आप उसके गोमुख से प्रवाहित होती थी… भाषा इतनी सुन्दर, उच्चारण इतना स्पष्ट, जैसे काशी के कोई पण्डित प्रवचन कर रहे हों. बातों-बातों में उसने बताया कि उसके पिताजी अपने घर में हर महीने रामचरितमानस का अखण्ड पाठ रखवाया करते थे, और उसी के बीच में कभी-कभी खुद ही मानस की व्याख्या भी किया करते थे. “जाति के केवट हते हम लोग,” अत्यन्त दर्प से वह बोली – अपने को रामायण के निषादराज का वंशज मानते थे ये लोग, और मानस-पाठ को उत्तराधिकार में मिली बपौती, “हमईं नै तौ राम चन्नर जी महाराज और सीता मैया कौं गंगा मैया पार करवाई हतीं!”
बाप रे… जिन्दल साहब सोचने लगे, बपौती हो तो ऐसी… मकान-दुकान की बपौती भी क्या हुई भला!
“तुम हिसार में क्यों नहीं रहतीं अपने पति के पास? वहाँ भी तो अच्छी नौकरियाँ मिल जाती होंगी! कितनी फैक्ट्रियाँ हैं वहाँ भी!”
“मेरी और मेरे पति की कभी बनी नईं,” वह बोली, एक बेपरवाही, एक बेलौस मस्त तबियत उसके भरे हुए कपोलों और उसकी मानों धधकती हुई आँखों से छलक रही थी… “वो अनुशासन चाहते हते, और हम कभी सासन में बंध कैं रह नाएँ सकत… हमारे पिताजी नै कभी हमें अनुशासन मैं नहीं रखा… स्कूल पढ़ने भेजा, पर कभी नियम नैयें समझाये…! हमाई सास भी इन्हें डांटती रहत ऐं, पर ये सुनते ही नहीं… तो वो बोलीं, तू चला जा जहाँ तुझे जाना है, हम तो नीरज के पास रहैंगे… ये लड़-झगड़ कै निऐं हिसार चले आये नौकरी कन्नै… हीहीही…”
‘क्या लड़की है यह!’ श्यामलाल जी ने सोचा… “तुमने तो गाय को अपने खूंटे पर बाँध रखा है, उसका बछड़ा तो खुद ही चला आयेगा पीछे-पीछे… कब तक हिसार में रहेगा!” जिन्दल साहब बोले, तो वह इतनी जोर से खिलखिला कर हँसी कि बस की सारी सवारियाँ औंचक सी इनकी तरफ को देखने लगीं. लेकिन उसे तो यह बात जैसे पता ही नहीं चली. वह तो बिना स्टॉप के बटन वाले टेपरिकॉर्डर की तरह बस बोले ही जा रही थी, “आँहाँ, ये नईंऐं आते हते दिल्ली होरी-दीवारी छोड़ कै नैयें… हमईं आ जात ऐं हिसार जब मन करत ऐ… नाराज रहत ऐं हम ते, कहत ऐं, हमार महतार और बच्चे अलग कद-दए तुमने तो हम ते… बहुत सीधे हैं हमारे ये…” कह कर खिड़की से बाहर देखने लगी… चारों ओर हरियाली फसलें लहलहा रही थीं… उसने निराश होकर निगाहें बस के अन्दर कर लीं… अभी हिसार के आने में देर थी!
लगभग आधा मिनट चुप रही होगी वो! श्यामलाल जी ने मोबाईल की तरफ को देखा भर था, कि फिर उसकी आवाज आनी शुरू हो गई, “आप क्या काम ते जाय रए ऐं? कोई सादी-बियाह?”
“नहीं शादी-ब्याह नहीं! मैं रिटायर होने वाला हूँ एक-डेढ़ साल में… सोचता हूँ कि तब यहीं गाँव में वापिस आकर रहूँगा!”
“मर्द लोगन कों गाँव ही अच्छा लगत ऐ! हमारे ये भी गाँव जाने की रट लगाए रक्खैंगे हर टैम! हमें तो दिल्ली ही अच्छा लगत ऐ! बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, साफ-सफाई, रोजगार – सब कुछ तो दिल्ली में है, गाँव में क्या रक्खा है?” कभी वह अपने यहाँ की बोली बोलने लगती थी, फिर शायद उसे लगता होगा कि वह किसी बाबू आदमी से बात कर रही है, तो दिल्ली की भाषा बोलने लगती थी. कितनी आसानी से ट्रैक बदल लेती थी इस लड़की की भाषा!
‘सब की अपनी-अपनी मजबूरियाँ हैं’, जिन्दल साहब ने सोचा, फिर बोले, “मेरे बच्चे तो पढ़-लिख कर दिल्ली से बाहर चले गये दोनों, अब दिल्ली में मेरा क्या रखा है! छोटा लड़का कुछ करता नहीं, थोड़ा सीधा है, ज्यादा पढ़ा भी नहीं. एक छोटी सी दुकान करवा दी है उसे घर के बाहर ही, शादी भी नहीं हुई उसकी. अब रिटायरमैन्ट के बाद गाँव में आकर कुछ दिन साफ हवा में जिन्दगी बिता लें! लड़के को भी वहीं अच्छी सी दुकान करवा देंगे! लेकिन मेरी घर वाली नहीं मानती गाँव वापिस आने को! वह कहती है ‘दामाद जी क्या गाँव की धूल फाँकेंगे, इतने बड़े जज हैं वो!’ अब, गाँवों में धूल-मिटटी कहाँ रही आजकल? पक्की गलियाँ, पक्के मकान, पक्के खेत-खलिहान… नहीं नहीं… मतलब… खेत तो अब भी वैसे ही हैं, लेकिन खलिहान तो पक्के हो ही गये हैं! लेकिन वह नहीं मानती. अकेला कैसे रहूँगा गाँव में, अभी समझ नहीं पा रहा हूँ… नहीं जानता कि मन की कर पाऊँगा या नहीं. लेकिन सोचने पर तो जोर नहीं है. इसलिये दो बार चक्कर लगा चुका हूँ कि पता करूँ, क्या भाव चल रहे हैं गाँव में जमीनों के. जानकारी पता करके रखने में क्या बुराई है!”
जो सम्भव नहीं है, उसे सम्भव बनाने का प्रयत्न वे कर रहे हैं, ऐसा जिन्दल साहब जानते थे! लेकिन शायद कोई रास्ता निकल आये, इस अभिलाषा के साथ ही वे दो-चार महीने में गाँव चले आते थे!
“अपने लड़के का बायोडाटा और फोटू वाट्सैप कन्ना हमें, हम गाँव में अपने देवर को भेजेंगे, वह बहुत सादी-बियाह करवाता फिरत ऐ! अपना कमीसन लेत ऐ, पर रिस्ता ऐसा करवाएगा, कि मोड़ी कईं जाए नईं सकत ऐ एक बार घर में आ जाने के बाद! बहुत मानत ऐं लोग उसे! नम्बर ले लओ हमार…” और फ़ौरन अपना नम्बर उन्हें बोल गई… जिन्दल साहब ने नम्बर अपने फ़ोन में सेव कर लिया…
“हांसी… हांसी… हांसी… ओ चलो भाई हांसी आले… फिर हिसार ते पैल्लां गड्डी कहीं रुकने वाली नहीं ऐ…” कंडक्टर चिल्लाया, तो वो हड़बड़ा कर खड़ी हो गई… और जिन्दल साहब को लगभग ठेलती हुई सी बाहर निकलने को हुई, “हिसार आ गया… उतरिये!”
कैसी हड़बड़ी में थी यह औरत? अभी तो अपने पति से इतना दूर का सा रिश्ता दिखा रही थी जैसे इसे केवल एक मजबूरी सी में ही हिसार आना पड़ता है. और अब, हांसी को हिसार समझ कर यहीं बस से बाहर छाल मारने को उतावली हो रही है यह बावली! यात्रा के प्रारम्भ में जिस पति से कभी न बनने की स्वाभिमान भरी गर्वोक्ति उसके मुख से निकली थी, अब वही मुख-मण्डल अपने उस विरही परदेसी से मिलने की अधीरता में कैसी कोमल रक्तिम आभा से भर आया था!
“हिसार नीं, हांसी आया है इबी… यहाँ मतनी उतर लिये… कदे फिर हल्ला काड्ढा! आधा घंटा लगागा इबी हिसार आण मैं”, कन्डक्टर ने डांटा, तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी खिड़की से बाहर झाँकने लगी… बस-अड्डा उसे हिसार का सा नहीं लगा, तो अचकचा कर फिर सीट पर बैठ गई… उसके कानों की लौ की गहरी लाली जैसे हवा में घुलने लगी थी… म्लान चेहरे से एक बार फिर बाहर को देखा, और चुप हो रही! श्यामलाल जी सोचते रहे कि क्या बोलें, फिर अपने मोबाईल में डूब गये… इस बार उसे बोलना शुरू करने में दो मिनट लग गये होंगे… “अपने बेटे का बायोडाटा भेज दीजियेगा हमें…” शुद्ध हिन्दी में वह बोली!
लेकिन बस जैसे ही हांसी के बस-अड्डे से बाहर निकली, कि फिर उसका ध्यान भंग हो गया… अब उसका मन पूरी तरह से विचलित हो चुका था… उसे जैसे अपने उस परदेसिया के अतिरिक्त कुछ और नहीं दीख रहा था, जिससे उसकी बनती नहीं थी! “हिसार अभी आया दस मिनट में”, हर दो मिनट में यही वाक्य उसकी व्याकुल साँसों से निकल रहा था… जिन्दल साहब सोचने लगे, ‘कौन है हिसार में इसका… जो इससे झगड़ कर दिल्ली छोड़ कर इतनी दूर हिसार में नौकरी करने लगा है, जो हमेशा इससे नाराज़ रहता है कि उसके बच्चों और माँ से इसने उसे अलग कर दिया है… या फिर कोई ऐसा, जिसके बिना अगले तीस मिनट इसके लिये तीन घन्टों के समान बीतने वाले थे?’
बस के हिसार शहर की सीमा में घुसते ही उसके चेहरे पर एक बेबस उतावलापन सा छा गया… श्यामलाल जी की कोई बात अब उसके कानों में नहीं जा रही थी… अपने परदेसी से मिलन की कोमल बेचैनी ने उसके शरीर में एक आतुरता भरा तनाव भर दिया था… ऐसा लगता था कि पूरा संसार ही जैसे एकदम संकुचित होकर किसी एक चेहरे में समा कर बैठ गया था…
आखिर हिसार का बस अड्डा नजर आने लगा! बस के रुकने के पहले ही वह सीट से खड़ी होकर सुर्ख चेहरा लिये खिड़की के बाहर झाँकने लगी, जबकि बैठ कर वह ज्यादा अच्छी तरह से झाँक सकती थी… बस-अड्डे के प्रवेश-द्वार के बाहर आधा दर्जन भर बसों के पीछे कतार में लगी थी उनकी बस अन्दर जाने के लिये. लेकिन उसकी निगाहें तो यहाँ बाहर ही चारों तरफ अपने परदेसी को ढूँढ रही थीं… श्यामलाल जी ने बोला कि वे उसे अपने बेटे का बायोडाटा भेज देंगे, वह उसे अपने देवर को भेज दे… लेकिन उसे कुछ भी सुनना बन्द हो चुका था… कोमल अनुराग ने फिर से उसके कानों की लौ को दहका दिया था… उसकी विरही इन्द्रियाँ तो समस्त संसार के कार्य-व्यापार से विकेन्द्रित होकर केवल अपने विरही परदेसिया को ढूँढने में लगी थीं…
गाड़ी के बस-अड्डे में घुसने पर दूर से एक सुर्ख लाल रंग का सफ़ेद-नीली-पीली बिन्दियों से सजा रेशमी रुमाल हिलता हुआ दिखा… वह जैसे उछल कर सीट से खड़ी हो गई…
‘हम्म, तो यह इस विरहन का परदेसिया है…’ जिन्दल साहब ने सोचा… नीरज उन्हें ठेल कर बस के अगले द्वार की ओर को बढ़ी…
बस के पूरी तरह रुक जाने पर जिन्दल साहब चुपचाप पिछले दरवाजे से नीचे उतर गये. लंगर खाने के बाद फेंक दी गई थर्मोकोल की थालियों और प्लास्टिक की थैलियों के ढेर से बदबू उठ रही थी… श्यामलाल जी सूअरों और कुत्तों की भीड़ से बचते हुए बस से आगे निकले, तो सामने से उन्हें अपनी आँखों में परम-तृप्ति लिये एक अलस सपना अपने परदेसिया के पीछे मोटरसाइकिल पर बैठा, दो मुंदे नयनों में उड़ता नज़र आया… एक सुख भरी नींद अपने उस विरही बालम की पीठ से चिपकी उड़ी चली जा रही थी… बन्द आँखों में कितने ही सपने बटोरे… हवा में उड़ते आँचल और बिखरते बालों से बेपरवाह…
न जाने क्यों जिन्दल साहब को अपनी आँखों में नमी की हल्की सी बाढ़ महसूस हुई… ऐसी, जैसी उन्हें अपनी बेटी की विदाई वाले दिन महसूस हुई थी… फिर अचानक उन्हें याद आया, उन्हें आज शाम ही दिल्ली वापिस लौटना था… उन्होंने अपनी निगाहें टैम्पो वाले की तरफ को दौड़ा दीं… गाँव में बसने के अपने सपने को पूरा करने की ओर को कदम आगे बढ़ाने के लिये…
First Published in Shabdyatn (Ed. Partap Sehgal)
In Cricket – Look before you take the leap
There is a thin line between success and failure. It is owing to the destiny that a person brings with him which makes him successful and unsuccessful. Let us take the case of Sachin and Kambli. Both together made a mammoth batting record during schooling. Sachin reached an iconic status, whereas, Kambli fell apart mid-way. Kambli could not do justice to his talent in life. He had to abandon his career mid-way because of his destiny.Does the formulae apply – as you sow, so shall you reap?
In fact Kambli recently requested BCCI to provide him with a good job so that he could feed his family. With a meagre pension of Rs. 30,000/- p.m. he could not manage his family expenses. BCCI took little notice to his request, whereas, a businessman from Maharashtra came forward to his rescue and offered him a job worth Rs. 1 lac p.m.
As past cricketers run one work or the other. Kapil Dev has a restaurant of how own in Chandigarh. Sachin does lot of advertisements. Ganguly belongs to a very rich family in Calcutta. Ravi Shastri did coaching for Indian Team and commentary as well. Gavaskar too is doing commentary and writes columns. Ramiz Raza’s commentary skills are spot on and is much more successful and in demand. John Right of New Zealand and Gary Kirsten of SA took to coaching Indian team.
The most important feature that everybody should bear in mind is that if you opt for cricket as a career then not being successful, is not an option and you stand nowhere. One has to take the choice very seriously. Actually, decisions taken during adolescence prove to be counter- productive. Money plays a pivotal role in life and provides the right impetus to pull on and sustain the life. Do you agree. Post your views in the comments box below.
The Universe within the Womb / Gouri Nilakantan
Does the cold womb speak to the warm vagina, are we meant to be bound and knit into the body, so much so we do not seem to belong, not to have any identity ever? The guess is not in the mystification nor in the pontification of the “female” in the eyes of society. Nor it it amongst the peering eyes of manhood and by keeping them as some elusive or exclusive superior race. It lies in the individuality and the recognition of the self amongst all. For once let us not see ourselves only through the wombs , the vaginas, or paling breasts but only as having separate yet same voices. This through which we can declare strongly enough to be defined as all belonging to each other.
The time to be in categories of gender has long gone, it needs to be attacked and discarded as worthless. These binaries and super binaries that do not see women as individuals first but use the safety net of phrases of gender are to be shot down as fallacies. We have been honoured enough by given powerful names by our ancestors. We have been given recognition for sounding phrases strong. Enough of gendering, enough and more than enough, it’s time to think ahead, as “you and me”, and “we all”, “as all of us” that belong entirely to each other.
This will allow us to love unconditionally, to let go unconditionally and remain forever within the societal definitions of a “ wife” “mother” “ daughter” or “sister”. It will thus also not negate the man as a “ husband” “ father” “ son” or “ brother” and bondages will only only grow stronger and stronger. Such singular terms of unity therefore allows one to outgrow force and coercion that often come within societal relationships. The urge here I see to all of us only as me and you and forget the male, female, alpha male, alpha female etc. The society will then accept unconditionality in loving and wanting to be loved.
For once live only for you and me and forget all expectations from each other, not because god says so, or you have enlightened and seen Buddhahood, or emerged victorious from the caves of inner meditation, but only because you truly and truly believe in the selfhood of each person. Wombs will then create the universe with its totality and spirit of mind. Enjoy and embark in this unconditionality of living and letting to live.
Where Time is Non-Existent / Sanjiv Bobby Desai
I remember my first learning after starting to live here in the hills. 2010, I think. Those days we were still city slickers who would travel up by the Ranikhet Express after putting in a full day at work. We would head up on a Thursday night and head back down by the Sunday night train to get into work on Monday morning! Gosh! I’m feeling tired just writing about those crazy trips!
During one of those trips, I remember we decided to use the local public transport of the shared Boleros that ply up and down from Ranikhet and stop anywhere they want to pick up or drop off passengers. We had bought some plastic chairs in Ranikhet and had tied them to the carrier of our chariot for the return journey.
After waiting for about 20 minutes for passengers to be rounded up, we set off at around 2 pm. As the vehicle was pretty crowded, Tripti sat in the middle seat and I squeezed into the extremely intimate back benches where five people and a baby were forced to rub knees and ignore touching thighs and hips! After about five minutes when we had just exited Ranikhet, the baby who was in her mother’s arms sitting next to me decided to entertain the bored passengers by evacuating her lunch onto my jeans and shoes. The mother turned a deep shade of red in embarrassment as she profusely started apologising and at the same time asking the driver to pull over.
I sat struck dumb, looking at the child’s lunch, trying hard not to react rudely or at all actually, while the driver pulled over on the verge and the rest of the passengers got off and hung around chatting idly. Gently reprimanding the mother for travelling with the little one so soon after her lunch, he pulled out a jerry can of water and came to the back and started cleaning the floor, the seat, my jeans and shoe. I thanked him and got off as well as he diligently finished the clean up operation. The whole operation from barf to boarding took around 15 minutes.
As I waited with Tripti, I looked around at all the rest of the passengers waiting with us. Some were squatting and smoking, some chattering, some busy on their phones, some cooing and chatting with the baby and her mother. 15 minutes of this. Once the driver announced the all clear, we all got back into the jeep and set off again.
And that’s when it struck me. In all the time we had been waiting outside, not one passenger complained about getting late, expressed annoyance at the driver or the mother or in fact, expressed any kind of reaction of any kind whatsoever! This was totally amazing to me, coming as I did from a life where delays like this might mean the collapse of democracy as we know it or the heavens deciding to fall! 15 minutes? And not a peep? What was going on here? And that’s when it finally dawned on me. Time was a fictional concept invented by man to make life intolerable! What the local people knew instinctvely was that neither democracy, nor the heavens, nor in fact anything at all of import would ever happen in their life by waiting for a young mother to clean up her baby and make it more comfortable. Patience. Yes,that was my learning that day and I was humbled by it. Truly humbled. And just for that, I am forever indebted to these hills and to it’s truly human populace.
Tete-a-tete with the Sighting Shadows / Gouri Nilakantan
Firm structures are delusional, they are nothing but myths that we are constantly chasing in our closed mind doors and heavily curtained windows. We have grown to believe that we must adorn structures much like the daily practice of wearing our clothes, taking a shower or having our food. Do we even once care to stop and chase the sighting shadows of the passerby? By not giving authority to these shrouded imprints, we fail to notice the wondrous sights that life has to offer to us, the miraculous forms and figures of the “much needed to define shadows”.
Shadows of course are hazy, difficult to pin as someone true, and further becomes even more not worth a glance, if it belongs to mere passerby. However, for once it is important to gaze deeply and give the shadow its much needed worth and respect. The bystander needs to be witnessed thus to give it a valuable definition. It is foremost hence for once to believe in the onlookers’ misty rooted figures and give it a much needed honorable name. Only then will we witness the miracles of life where these clouded shapes have the power to change… to change your life.
Once we stop to talk, to think along, cry along the sorrow or laugh along the joys of the onlooker and embark on his journey, we are constructing the paths to universal living and true harmony with all. One only has to believe that the paths to his story are golden and are the flights of the rainbow to the diamond crusted view of the universe. Each figure has the potential to hold our attention to such an extent, that we come to realise and recognise the prodigy in each person. Our lives are only enriched by these sighting shadows that have voices and conversations we must not only hear, but hear to recollect to enrich our own ways.
We must therefore join in their sightings and believe in the sightings of clouded beings and discard our own fears to join in their tete-a- tete. Nothing then can be thrown clumsily out as worthless and the value of all is in the faithful spirit of all.
Memories of the Recitative Past
All of us are born with memories that we wish to forget and discard like faded photographs having hazy blurry images or the thrown pennings of blue inland letters and creamy pages fading with endearing attachments. We would rather regurgitate the past than carry it within us. Are we in the real sense of failing to remember or do we wish not to hear the words of the recitative past and not get the truthful recollection of the echoing sights? To be called only as a witness is easier than to bear and pour out the visions we wish not to see. The ability to see things as they are, are so difficult to break, that to escape into the light hearted day seems much easier and much more uncomplicated.
No one wants to resound pain, express trauma or grieve for a loss. The identity of the self to happily live only within the confines of the day, going from hour to hour and knocking down the doors of the minutes that dissolves then into seconds, is true serenity and peace. However, many times we need to challenge the tranquillity we have falsely created and listen to the polyphonous sounds of the dead and buried. The graves of the bygone as much as you bury, as much as you decide the deepest depth the coffin should lay, needs the embalming, only and only to cleanse your soul.
To gain the convincing reincarnation of this lost spirit, is only possible if we allow ourselves to cry, lament and mourn for the forgotten memories. Just by dismissing the bygone and not evoking the emotions of sorrow, by not shedding the salty reservoir, we are creating only adulterated personifications of what we term as today. Its reason is enough to moisten the sodden earth of the buried past, so that the watering down can reach the submerged coffins. One has to sometimes open to see the enclosed skeletons and beat one’s breast to lament for the faded photographs or tethered inland letters or torn creamy papers that are screaming to be heard.
So, hear the cries within, grieve for the past, sob along with the beats of your heart and let your tears become the pulse. It will only allow the recitative past to become beautiful, melodious verses of songs of your life you will want to hear again and again.