आपदा-काल में भास का सहारा

‘आपदा को अवसर में बदलना’ – आजकल यह उक्ति प्रायः सुनने को मिल जाती है. आज के समय की जीवित स्मृति में सबसे बड़ी आपदा रही करोना. सब लोग अपने-अपने घरों के अन्दर बन्द हो जाने को मजबूर हो गये थे. ऐसे में, विज्ञान से ले कर नाटक तक हर विषय पर सैंकड़ों-हजारों लोगों ने ‘ऑनलाइन’ या इन्टरनैट पर चर्चा के माध्यम से आपसी सम्बन्ध और संवाद को चलाये रखा, और करोड़ों मनुष्यों के मानसिक सन्तुलन को बनाये रखने में एक प्रशंसनीय भूमिका निभाई!
ऐसी ही एक चर्चा का सहभागी बनने का सौभाग्य मुझे भी मिला. करोना के कालखण्ड में ही ग्वालियर की गीतांजलि गीत ने अपने रंगसमूह ‘मेरा मंच’ के माध्यम से भास के तेरह नाटकों पर भारतरत्न भार्गव के व्याख्यानों की एक श्रृंखला आयोजित की थी. संगीत नाटक अकादमी अमृत सम्मान से सम्मानित, आकाशवाणी, बी.बी.सी. तथा संगीत नाटक अकादमी से जुड़े रहे भारतरत्न भार्गव डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी तथा कवलम नारायण पणिक्कर जैसे दिग्गजों के साथ काम कर चुके हैं, और सम्प्रति टैगोर फैलोशिप ले कर शोध कर रहे हैं.
इन व्याख्यानों की सबसे रोचक बात रही इनका समय! यह व्याख्यानमाला सायं चार बजे से होती थी. उन दिनों में, काम कोई न होने के कारण हम दोपहर में खाना खा कर सो जाते थे. फिर, चार बजे से कुछ ही पहले नींद खुलती थी, भागते-दौड़ते जैसे-तैसे मैं कंप्यूटर खोलता था, कपड़े पहनता था, पत्नी भी जाग जाती थीं, तब तक भारतरत्न जी का व्याख्यान प्रारम्भ हो चुका होता था! व्याख्यान सुनते-सुनते ही पानी पीता था, चाय आ जाती थी, वह भी पीता रहता था, लगता था कि बिस्कुट खा रहा हूँ, और वह नमकीन होता था; कभी नमकीन के चक्कर में बिस्कुट खा जाता था! करोना काल में बचे हुए हम लोगों की बहुत सी दुखद, लेकिन कुछ मधुर, रोमांचकारी स्मृतियाँ भी हैं! उन्हीं में से एक गीतांजलि गीत द्वारा आयोजित व्याख्यानों की यह श्रृंखला भी थी.
भास के नाट्य-साहित्य पर आधारित इस श्रृंखला का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष था प्रतिदिन के व्याख्यान के बाद का प्रश्नोत्तर-काल. इसके लिये भार्गव जी ने यथेष्ट समय माँगा, जिसे गीतांजलि ने मुक्तमन से स्वीकार किया. और सच में, यह श्रृंखला गीतांजलि की श्रृंखला न रह कर भार्गव जी और श्रोताओं की श्रृंखला बन गई! बाद में, सभी ने इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाने का सुझाव दिया. अब सेतु प्रकाशन के संस्थापक-संचालक अमिताभ राय ने, जो इस श्रृंखला से प्रारम्भ से ही इससे जुड़े रहे, इन व्याख्यानों तथा प्रश्न और उत्तरों को ‘महाकवि भास का नाट्य वैशिष्ट्य’ नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है. बातचीत की स्वाभाविकता को बनाये रखने, और इसे आत्मीय संस्पर्श देने के उद्देश्य से इसकी भाषा को यथावत रखा गया है, जो पुस्तक को बहुत पठनीय बना देता है.
“ग्यारहवीं–बारहवीं शताब्दी से जो आक्रान्ता आये, उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे विश्वप्रसिद्ध केन्द्रों को ध्वस्त कर दिया, नष्ट कर दिया” – इस प्रकार का क्षोभ प्रकट करने के बाद इन नाटकों को फिर खोज लिये जाने की कहानी भार्गव जी विषय-प्रवेश में सुनाते हैं, और, कि कैसे ये नाटक केरल के देवालयों अर्थात कुताम्बलम में खेले जाते रहे, लेकिन खोज लिये जाने के लगभग सत्तर वर्षों के बाद भी ये नाटक हमारे लिये अपरिचित ही रहे, और कैसे सन 1974 में शान्ता गाँधी के द्वारा भास के ‘स्वप्नवासवदत्ता’ नाटक को अमेरिका के हवाई विश्वविद्यालय में सफलतापूर्वक खेलने पर भारत के लोगों की नींद टूटी, और उनका ध्यान इन नाटकों की ओर गया. भार्गव जी को पणिक्कर जी ने बताया कि केरल में कुड़ियाट्टम, कथक्कली और नाट्यशास्त्र के विद्वान अप्पुकुट्टन नायर ने तभी केरल संगीत नाटक अकादमी के सचिव बने पणिक्कर जी को कुड़ियाट्टम और नाट्यशास्त्र से परिचित करवाया, जिससे पणिक्कर जी संस्कृत नाटकों के प्रति आकृष्ट हुए. बाकी सब तो जाना-पहचाना इतिहास है.
बाद में पणिक्कर जी ने कालिदास संस्कृत अकादमी में ‘मध्यमव्यायोग’ नाटक का मंचन करके उत्तर भारत के लोगों को भास के नाटकों से परिचित करवाया. भार्गव जी बताते हैं कि इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता है इनके कथानक. कालिदास से पहले के काल में रहे भास के तेरह में से छः नाटक महाभारत पर आधारित हैं. दो नाटक, ‘अभिषेक’ और ‘प्रतिभा’ रामायण पर आधारित हैं. एक नाटक ‘बालचरित’ कृष्ण की कथाओं पर आधारित है. ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘प्रतिज्ञा यौगन्धरायण’, ‘अविमारक’ और ‘चारुदत्त’, ये चार नाटक उनकी मूल कृतियाँ मानी जाती हैं.
‘मेरा मंच’ के माध्यम से भास के तेरह नाटकों पर व्याख्यानों की श्रृंखला, वहाँ उठे प्रश्न और जिज्ञासाओं, और श्रोताओं की रुचि ने भार्गव जी को इन नाटकों के हिन्दी भाषा में पाठान्तर की भूमिका तैयार कर दी. पाठान्तर वाले भास के इन सभी तेरह नाटकों को सेतु प्रकाशन ने ही ‘भास नाट्य समग्र’ के नाम से छापा है. भास के नाटकों के अन्य अनुवादों या पाठान्तरों और भार्गव जी के पाठान्तर में मूल अन्तर यह है, कि उन्होंने इन नाटकों का पद्यात्मक पाठान्तर किया है. यह पाठान्तर करते समय उन्होंने ‘नाट्यशास्त्र में निर्देशित संहिता के अनुसार’ तनिक छूट भी ली है, जिससे ‘इन नाटकों की समकालीन उपयोगिता में यत्किंचित वृद्धि हो सके’. इसीलिये वे इसे अनुवाद न कह कर पाठान्तर कहते हैं, जिससे कि आंगिक और वाचिक अभिनय में भाव, राग तथा ताल के तात्विक गुणों का समन्वय हो सके. सबसे अच्छी बात है, कि इन दोनों पुस्तकों को पाठकों को उचित मूल्य पर उपलब्ध करवाने के लिये प्रकाशक ने इन्हें पेपरबैक में छापा है, जिससे ये पुस्तकें साधारण जन के लिये बहुत आसानी से सुलभ हो सकेंगी.
भास की विलक्षण प्रतिभा को समझने के लिये ‘महाकवि भास का नाट्य वैशिष्ट्य’ का पढ़ना आवश्यक है! और भास के नाटकों को पढ़ने के लिये दूसरी पुस्तक ‘भास नाट्य समग्र’ का पढ़ना तो आवश्यक है ही! और यदि पाठक ‘भास नाट्य समग्र’ को भास के नाटकों के संस्कृत संस्करणों के साथ रख कर पढ़ेंगे, तो उन्हें इन प्राचीन नाटकों के आज के समय में प्रासंगिक होने का भान हो सकेगा!




गली दुल्हन वाली

गली दुल्हन वाली
टिप्पणी — अनिल गोयल

दिल्ली की रामलीला से अपने अभिनय-जीवन का प्रारम्भ करने वाले सुभाष गुप्ता 1975 में ‘नाटक पोलमपुर का’ में समरू जाट की भूमिका से ‘अभियान’ रंगसमूह से जुड़े. अभियान की स्थापना इसके कुछ ही पहले, 1967 में, दिल्ली के कुछ उत्साही रंगकर्मियों ने की थी. सुभाष गुप्ता के द्वारा ‘अभियान’ के लिये रूपान्तरित और निर्देशित नाटक ‘गली दुल्हन वाली’ का प्रदर्शन 15 अप्रैल 2023 को दिल्ली के लिटिल थिएटर ग्रुप प्रेक्षागृह में हुआ. यह नाटक मीरा कान्त की इसी नाम की कहानी पर आधारित है. केवल सन्दर्भ के लिये, मीरा कान्त अपनी इस कहानी को स्वयं भी एकल नाटक के रूप में रूपान्तरित कर चुकी हैं.

‘गली दुल्हन वाली’ नगीना नाम की एक अनपढ़ स्त्री के संघर्ष की कथा है. नगीना विवाह के पश्चात् एक कसाई रज्जाक की ‘दुल्हन’ बन कर आती है, और अपने पति के द्वारा पीटे जाने और दुर्व्यवहार का शिकार होती है. वह जिस गली में रहती है, वह गली ही नगीना के दुल्हन वाले रूप का वहन करती हुई ‘गली दुल्हन वाली’ के नाम से पहचानी जाने लगती है. नगीना काफी समय तक अपने पति के दुर्व्यवहार को सहती रहती है. लेकिन जब वही सब कुछ उसके बच्चों के साथ होता है, तो वह इस सब को अस्वीकार करके अपने बच्चों की रक्षा के लिये खड़ी हो जाती है. वह शिक्षा को ही अपने बच्चों के उद्धार का माध्यम मानती है, और इस विषय पर अपने पति से किसी समझौते के लिये तैयार नहीं होती. अपनी नाबालिग बेटी के एक बड़ी वय के आदमी के साथ विवाह के प्रश्न पर वह खुल कर अपनी बेटी की रक्षा में आ जाती है. उसके पड़ोस में रहने वाली एक हिन्दू महिला, गौरी की माँ एक पड़ोसन के नाते उसके इस संघर्ष में उसका साथ निभाती है. किस प्रकार से अत्यन्त साधारण से लगने वाले प्राणी छोटे-छोटे संघर्ष कर के समाज में बड़े परिवर्तन ले आते हैं, इस नाटक को देखने से नजर आता है. यह नाटक मनुष्य की इच्छा-शक्ति के बल को रेखांकित करता है. अपने पति से लगातार पिटते रहने वाली वह अनपढ़ स्त्री एक सीमा के बाद, केवल अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर ही, उसके विरुद्ध खड़ी हो पाती है और उसके सामने झुकने से इंकार कर देती है.

बहुत वर्ष पूर्व, दिल्ली में एक बंगाली नाटक ‘शानु रॉयचौधरी’ में स्वातिलेखा सेनगुप्ता को एकल अभिनय करते देखा था. भाषा का अवरोध होते हुए भी, लगभग ढाई घंटे के नाटक में मंच पर स्वातिलेखा अकेले ही लगातार दर्शकों को बांधे रही थीं. कुछ वैसा ही अनुभव इस नाटक में श्रुति मेहर नोरी को नगीना की भूमिका में देख कर हुआ. सुभाष गुप्ता ने इस एक-पात्रीय कहानी को रूपान्तरित करते हुए नगीना के पति रज्जाक का भी चरित्र नाटक में बना दिया है. रज्जाक की भूमिका में नीतीश पाण्डे के पास सीमित ही सम्भावनाएँ उपलब्ध थीं, जिनका उन्होंने अच्छे से उपयोग किया. लेकिन नगीना के चरित्र में विद्यमान अपार सम्भावनाओं का श्रुति ने भरपूर उपयोग किया, और नाटक को दर्शनीय बनाया. नीतीश और श्रुति दोनों ही कलाकार हैदराबाद के निवासी हैं, हालाँकि नीतीश का मूल स्थान उत्तर भारत है.

और इसी कारण, नाटक के संवादों में विशुद्ध पुरानी दिल्ली या दिल्ली छः के उच्चारण को प्राप्त कर लेने का श्रेय नाटक के निर्देशक को भी जाता है. हैदराबाद के भारी-भरकम लहजे वाली उर्दू को छोड़ कर उन्होंने श्रुति से पुरानी दिल्ली वाले लहजे को इस नाटक में बहुत सफलता के साथ प्रयोग करवाया. दिल्ली छः की भाषा का उसकी बारीकियों को जाने बिना ही विभिन्न फिल्मों में बड़ा व्यापारिक उपयोग किया गया है. लेकिन सुभाष गुप्ता का स्वयं का बचपन वहाँ बीता है, अतः वे इस नाटक की भाषा के साथ न्याय कर पाये हैं.

एकल नाटक में एकरसता या मोनोटोनी की समस्या सदैव ही रहती है. यों भी, दिल्ली का आजकल का दर्शक बहुत जल्दी ऊब जाता है. ऐसे में, एक तो नाटक के आलेख को सम्पादित करके कुछ छोटा करने की आवश्यकता है. दूसरे, इस नाटक में एकरसता की समस्या कुछ अधिक ही अनुभव की गई, विशेषकर नाटक के पूर्वार्द्ध में, जब तक रज्जाक का प्रवेश नहीं हुआ था. दर्शकों को बांधे रखने के लिये निर्देशक को इस पक्ष पर विचार करना होगा. आलेख में कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन करके नगीना के इस सशक्त चरित्र को कुछ और अधिक बहुआयामी बनाने की सम्भावनाएँ नाटक में हैं. लगातार फ्लैशबैक में चलने वाले इस नाटक में, गली में बहुत सी घटनाएँ घटित होती हैं. गली में घटित होने वाली घटनाओं को दिखाने के लिये, घर के दरवाजे को किसी अन्य स्थान पर स्थानान्तरित करके भी बहुत सशक्त तरीके से प्रस्तुति की एकरसता को समाप्त किया जा सकता है. इससे नगीना और रज्जाक दोनों ही का चरित्र और अधिक उभर कर आयेगा.

एकल नाटक होने के कारण कलाकारों के परिधान में बहुत अधिक सम्भावनाएँ नहीं थीं. और अभियान तो बिना टीम-टाम के, अपनी सादगीपूर्ण, यथार्थवादी प्रस्तुतियों के लिये ही जाना जाता है. फिर भी, फ्लैशबैक के दृश्यों में यदि एकाध स्थान पर कलाकारों के परिधान बदले रहते, तो नाटक की एकरसता को तोड़ा जा सकता था.

अभियान पिछले पचपन वर्षों से अधिक से नाटक करता आ रहा है. उनके पास मंच पर और मंच के पीछे एक बहुत सशक्त टोली है. उस सशक्त आधार को प्रयोग करके, और कुछ नये नाटकों और आलेखों का प्रयोग करके अभियान दिल्ली के सुप्तप्रायः रंगमंच-जगत में नई जान फूँकने की क्षमता रखता है. इसके साथ ही साथ, उनके पास अपना एक बहुत सशक्त दर्शक-वर्ग भी है. ऐसे में दिल्ली के दर्शकों की अभियान से कुछ अलग विषयों पर, और कुछ नये नाटकों की अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा! हिन्दी में पुराने और नये भी बहुत से अच्छे नाटक हैं. आशा है कि अभियान इस ओर ध्यान देगा.

आजकल दिल्ली में नाटक करने के लिये प्रेक्षागृह तीसरे पहर दो बजे ही मिल पाता है! और पाँच या छः बजे शो होता है. उसके पहले कलाकारों के द्वारा एक रिहर्सल भी जरूरी होती है. ऐसे में, मंच-आलोकन करने वाले व्यक्ति को कठिनाई से एक-दो घंटे का ही समय लाइट-डिजाईन करने के लिये मिलता है! इतने कम समय में क्या मंच-आलोकन सम्भव है? और यदि यह सम्भव नहीं है, तो क्या दिल्ली में मंच-आलोकन की कला समाप्त हो जायेगी? इस प्रश्न पर दिल्ली के रंगकर्मियों को गम्भीरता से विचार करना होगा, और इस विषय में कुछ कदम उठाने ही होंगे; अन्यथा, आजकल की तथाकथित “इंटैलीजैंट लाइट्स” मंच-आलोकन की प्रयोगशीलता को समाप्त कर देंगी!




मन के भँवर

मन के भँवर
अनिल गोयल

हिन्दी में नाटकों की कमी का रोना रोते रहना हमारे रंगकर्मियों का प्रिय व्यसन है, जबकि हजारों नाटक हिन्दी में लिखे गये हैं. लगभग पाँच दशक पूर्व लिखी गई डॉ. दशरथ ओझा की पुस्तक ‘हिन्दी नाटक कोश’ में ही अनगिनत नाटकों का विवरण दिया गया है; इसके बाद से तो और न जाने कितने नाटक लिखे जा चुके हैं. किसी भी अच्छे पुस्तकालय में नाटकों की सैंकड़ों पुस्तकें मिल जाती हैं. रुदाली के इस व्यसन में रत हमारे रंगकर्मी मराठी, बंगाली, कन्नड़ इत्यादि भारतीय भाषाओं, तथा विदेशी भाषाओं से भी नाटकों का हिन्दी में अनुवाद करके काम चलाते रहे हैं.

इससे कहीं अधिक आसान काम था अपनी ही भाषा में मंचन-योग्य नाटक खोजना. किन्तु वह काम हमारे रंगकर्मियों ने नहीं किया. ऐसे में, अपने उत्कृष्ट अभिनय के लिये संगीत अकादमी सम्मान से सम्मानित भूपेश जोशी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नाटककार दया प्रकाश सिन्हा के नाटक ‘मन के भँवर’ को खोज कर और उसे मंचित करके एक प्रशंसनीय कार्य किया है. हिन्दी के एक प्रतिष्ठित लेखक के एक लगभग भुला दिये गये एक मूल हिन्दी नाटक को प्रस्तुत करना सचमुच भूपेश की खोजी नजर को दर्शाता है. साठ और सत्तर के दशकों में आकाशवाणी पर मनोवैज्ञानिक घटनाक्रम वाले अनेक नाटक प्रसारित हुए. परन्तु उन्हें रंगमंच पर शायद ही कभी मंचित किया गया होगा. रेडियो नाटक को नाटक की विधा क्यों नहीं माना गया, यह शोध का विषय हो सकता है, हिन्दी साहित्य की ही तरह हिन्दी रंगमंच भी अपने-अपने दड़बों में बन्द रहने की प्रवृत्ति का शिकार रहा है…
सन 1960 में लिखा गया नाटक ‘मन के भँवर’ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित एक बहुत ही संवेदनशील नाटक है। तलाक का कानून पारित हो जाने के बाद, साठ के दशक में भारतीय समाज में परिवारों के विघटन का काल प्रारम्भ हो चुका था. स्वतन्त्रता के बाद भारतीय समाज में तीव्र गति से परिवर्तन भी आ रहे थे. इन सब परिवर्तनों के चलते पति-पत्नी के बीच की बढ़ने वाली दूरियों और परिवारों के विघटन का चित्रण इस नाटक में किया गया है. अचम्भे की बात है कि मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में ही दया प्रकाश सिन्हा ने इस पारिवारिक टूटन और विघटन का इतना सटीक चित्रण कैसे किया! और उससे भी अधिक अचम्भे की बात है हिन्दी रंगमंच-जगत की इस नाटक की पूर्ण उपेक्षा. दया प्रकाश सिन्हा के अनुसार, इस नाटक के लिखे जाने के बाद के कुछ वर्षों में इसके कुछ मंचन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) और लखनऊ इत्यादि में हुए थे. लेकिन उसके बाद साठ वर्षों तक, नाटकों की कमी का रोना रोते रह कर भी किसी ने इस नाटक पर ध्यान नहीं दिया! 1968 में प्रकाशित इस नाटक के पचपन वर्षों में इस नाटक की पूर्ण उपेक्षा हिन्दी रंगमंच की सोच को बखूबी दर्शाती है!

नाटक का शीर्षक ‘मन के भँवर’ नाटकों के दो प्रमुख पात्रों डॉ. वशिष्ठ और उनकी पत्नी छाया के मन में उठते विचारों के भँवर का ही चित्रण है. विचारों की भँवरों में डूबती-उतराती युवा गृहिणी छाया अपने जीवन के पिछले दिनों में ही कैद है, और उससे बाहर आने का कोई प्रयास वह नहीं करती है. दूसरी ओर, डॉ. वशिष्ठ अपने रोगियों की चिकित्सा में पूर्ण समर्पण भाव से रत हैं. वे अपनी एक मनोरोगी पूनम के उपचार के लिये उससे बहुत कोमलता और मधुर तरीके से बातचीत और व्यवहार करते हैं. छाया उन दोनों के बीच की बातचीत को उनके बीच बढ़ती नजदीकियाँ मानने की भूल करती है, और डॉ. वशिष्ठ के साथ व्यंग्यात्मक तरीके से बातचीत करके उनके चरित्र पर उँगलियाँ उठाने लगती है. इससे पति और पत्नी के बीच टकराहट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और तदुपरान्त वे दोनों खुल कर एक-दूसरे पर प्रहार करने लगते हैं.
वास्तव में, इन दोनों के बीच के अन्तर का मूल कारण इन दोनों की बिल्कुल अलग-अलग पृष्ठभूमि का होना, और छाया का पूर्ण असहयोगी रवैया हैं. आर्थिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न परिवार से आई छाया के मन में अपने पति के लिये तनिक भर भी सम्मान नहीं है, न ही उसका अपनी वाणी या व्यवहार पर कोई नियन्त्रण है. छाया का यह असंवेदनशील व्यवहार पति-पत्नी को एक-दूसरे से दूर कर देते हैं, जिसमें परिवार जैसी किसी चीज के प्रति छाया के मन में बिलकुल भी सम्मान नहीं है. इसी बीच, छाया के कॉलेज के दिनों का मित्र, एक निम्न स्तर का फिल्म-अभिनेता देवेन्द्र छाया के घर आता है, और उसे अपनी बातों के सब्जबाग दिखा कर अपने साथ भगा ले जाने में सफल होता है. डॉ. वशिष्ठ अकेले पड़ जाते हैं, और अपना पूरा समय अपने रोगियों की सेवा में लगा देते हैं. बाद में छाया के मर जाने का समाचार आता है. डॉ. वशिष्ठ को उनकी सेवाओं के लिये भारत सरकार और यूनेस्को से सम्मान प्राप्त होता है, तो नगर के लोग उनका सम्मान करने के लिये जलूस के रूप में उनके घर आ रहे हैं. तभी मृत-घोषित छाया वहाँ आ जाती है, और डॉ. वशिष्ठ से अपने लिये सहारा माँगती है, क्योंकि तब तक देवेन्द्र की भी मृत्यु हो चुकी है, और अब छाया अकेली है. डॉ. वशिष्ठ उसे स्वीकार नहीं कर पाते, और छाया वहाँ से चले जाने पर मजबूर हो जाती है. लेकिन घर के बाहर निकलते ही उसकी मृत्यु हो जाती है. डॉ. वशिष्ठ को जब किसी ‘अनजान’ स्त्री के उनके घर के सामने मर जाने का समाचार दिया जाता है, तो वे छाया के एक अनजान महिला की लाश के रूप में ले जाये जाने पर चुप रह जाते हैं, हालांकि इस समाचार से वे गहरे मानसिक दबाव में अवश्य आ जाते हैं. और उसी दबाव के फलस्वरूप, अपने को इस सब के लिये दोषी मान कर वे विष खा कर अपना प्राणान्त कर लेते हैं.

इस नाटक में छाया एक ऐसा दुरूह चरित्र है, जिसके पास जब सब कुछ था, तो उसने उसकी महत्ता नहीं समझी। और फिर, जब उसके हाथ से सब कुछ छूट गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। समय रहते उसने रिश्तों को सम्मान नहीं दिया, और फिर वह उलझ गई मन के भंवर में। प्रताप सहगल इस नाटक को ‘कथा एक कंस की’ के साथ दया प्रकाश सिन्हा के दो श्रेष्ठ नाटकों में से एक मानते हैं. नाटक में छाया के रूप में मोहिनी सुंगर ने, और डॉ. वशिष्ठ के रूप में नाटक के निर्देशक भूपेश जोशी ने बहुत सुन्दर अभिनय किया. भूपेश जोशी सामान्य चरित्रों की अपेक्षा जब इस प्रकार के मनोवैज्ञानिक चरित्रों के रूप में आते हैं, तो उनके अभिनय में एक अलग ही निखार आ जाता है… मानसिक दबाव को झेलता, अपनी सिगरेट से अपनी बेबसी को झलकाता हुआ, अपने को समाज की सेवा में पूर्णतः समर्पित कर चुका एक आदर्शवादी डॉक्टर कैसे अपनी घमण्डी और नासमझ पत्नी के व्यवहार का शिकार होता रहता है, कैसे वह अपने विवाह के तुरन्त बाद से लगातार एक बेबसी का जीवन जीने को विवश हो जाता है, भूपेश ने चरित्र में डूब कर बहुत सशक्त तरीके से इसको जिया. इसी प्रकार, अपने प्रेमी देवेन्द्र के मर जाने पर अकेली पड़ जाने के बाद छाया जब डॉ. वशिष्ठ के पास लौटती है और उनके सामने गिड़गिड़ा कर उससे अपने को वहाँ रहने देने की भीख माँगती है, इसे मोहिनी सुंगर ने बहुत सुन्दरता के साथ मंच पर प्रस्तुत किया.
लेकिन ऐसे सुन्दर नाटक में किस प्रकार के प्रकाश-संयोजन की आवश्यकता है, इसे इस नाटक के प्रकाश संयोजक नहीं समझ पाये. डॉ. वशिष्ठ और छाया के पल-पल बदलते मूड को यदि उचित प्रकाश-परिकल्पना का सहयोग मिला होता, तो नाटक और भी अधिक प्रभावशाली बन पाता!

प्रकाश-सञ्चालन को ले कर भी निराशा ही हाथ लगी. मंच-आलोकन में कथानक और चरित्रों की मनोदशा को यदि प्रकाश-संयोजक न समझ पाये, तो नाटक दर्शकों पर अपना सम्पूर्ण प्रभाव छोड़ने में विफल हो जाता है. इस प्रकार के नाटकों में लाईटों का खेल नहीं, बल्कि नाटक के मूड के अनुसार अति-संवेदनशील

प्रकाश-व्यवस्था करने से ही नाटक दर्शकों तक पहुँच पाता है. यदि इस नाटक का कथानक बहुत सशक्त न होता, तो यह नाटक एक विफल नाटक की श्रेणी में आ जाता! रवि शंकर शर्मा का संगीत अवश्य इस नाटक के प्रवाह को सम्भालने में एक सीमा तक सफल रहा.

Published earlier in Mitwa News




मिस्टर राईट

मिस्टर राईट
अनिल गोयल

समुद्र-मन्थन के समय देवताओं और दानवों के बीच हुए संघर्ष के समय से ही अच्छे और बुरे के बीच के द्वंद्व को विभिन्न तरीकों से दिखाया जाता रहा है. राम और रावण का संघर्ष हो या कृष्ण और कंस का, मनुष्य के मन की दैवीय और राक्षसी प्रवृत्तियों के बीच का यह संघर्ष सदैव से यूँ ही चलता आया है, और जब तक मनुष्य नाम का यह दो पैरों वाला प्राणी इस पृथ्वी पर है, यह संघर्ष यूँ ही चलता रहेगा.

26 मार्च को चाणक्यपुरी में नेपथ्य फाउंडेशन द्वारा माला कुमार के निर्देशन में नाटक ‘मिस्टर राईट’ मंचित किया गया. नाटक के लेखक मोहित चट्टोपाध्याय (चटर्जी) ने अपने इस नाटक में इस संघर्ष को एक नये ही तरीके से प्रस्तुत किया है. उन्होंने अपने इस नाटक में दिखाया है कि अच्छी और बुरी दोनों ही प्रवृत्तियाँ मनुष्य के अन्दर ही रहती हैं, जैसे कि हमारे दो हाथ हमारे साथ हमेशा रहते हैं, और बुरी प्रवृत्तियों से बचने के लिये मनुष्य को जीवन भर सतत प्रयास करते रहना होता है. नाटक में, एक दुर्घटना में रजत (संजीव जौहरी) की कार के नीचे आ कर उसके एक जानकार रुशेन की मृत्यु हो जाती है. रुशेन का विवाह तन्द्रा (सुनीता नारायण) से होने वाला था. तन्द्रा मानती है कि यह कोई दुर्घटना नहीं थी, बल्कि रजत ने जानबूझ कर रुशेन की हत्या की है. रजत उसे समझाने का प्रयास करता है, कि यह सचमुच एक दुर्घटना भर थी, और दुर्घटना के उस क्षण में उसका अपने दाहिने हाथ पर नियन्त्रण नहीं रहा था. स्वाभाविक रूप से, तन्द्रा उसकी बात का मजाक उड़ाती है. इस पर रजत, या फिर उसका नियन्त्रण से बाहर जा चुका उसका दाहिना हाथ तन्द्रा का गला घोटने लगता है, जिससे तन्द्रा बहुत कठिनाई से बच पाती है.

रजत अपनी इस समस्या से छुटकारा पाने के लिये एक पण्डित (प्रदीप कुकरेजा) को बुलाता है. पण्डित एक रक्षा-सूत्र उसके हाथ में बाँध कर चला जाता है, परन्तु उससे रजत की स्थिति में कुछ विशेष अन्तर नहीं पड़ता. रजत अपने डॉक्टर मित्र सिन्धु (प्रवीण कुमार) से इस बारे में बातचीत करता है, तो सिन्धु बताता है कि रजत को एक बहुत ही अनजानी सी बीमारी है, जिस में व्यक्ति का अपने शरीर के किसी अवयव पर से अधिकार समाप्त हो जाता है, और वह अवयव स्वतन्त्र रूप से काम करने लगता है. रजत को समझ आ जाता है, कि उसके मन के विकारों ने उसके दाहिने हाथ पर नियन्त्रण पा लिया है, और अब उसका दाहिना हाथ ‘मिस्टर राईट’ उसकी नहीं सुनेगा. इस बीच, एक अनजान युगल, बॉबी (कीमती आनन्द) और मिली (माला कुमार) उसके घर में शरण लेने के लिये आते हैं, तो भी रजत का ‘मिस्टर राईट’ मिली के साथ गलत हरकत करने का प्रयास करता है, लेकिन वे दोनों उसे ठग कर चले जाते हैं. इसके बाद रुशेन के भाई विमल बाबू (संजीव सलूजा) आकर रजत को बताते हैं, कि रुशेन मानसिक समस्या से ग्रस्त था. जब तन्द्रा को इस बात का पता चलता है, तो उसके मन की गलतफहमियाँ दूर हो जाती हैं. उसके मन में उठे सद्भावों से सशक्त हो कर धीरे-धीरे रजत अपने ‘मिस्टर राईट’ पर भी अपना अधिकार पुनः पाने में सफल होता है.

नाटक के ज्यादातर कलाकार दिल्ली के पुराने, बहुचर्चित और मंजे हुए कलाकार हैं, और एकदम कसा हुआ अभिनय करने के लिये जाने जाते हैं. इसी कारण, नाटक में सभी कलाकारों का अभिनय बहुत शक्तिशाली रहा. नाटक की निर्देशिका माला कुमार दूरदर्शन व रेडियो से लगातार जुड़ी रही हैं. अभियान रंगसमूह के साथ उन्होंने बहुत काम किया है, और पिछले लगभग 5-6 वर्षों से अपनी संस्था ‘नेपथ्य’ चला रही हैं. इस नाटक की मंच-सज्जा और कलाकारों के परिधान में भी एक सुरुचिपूर्ण, कलात्मक दृष्टि स्पष्ट नजर आती थी.

रजत की भूमिका निभाने वाले संजीव जौहरी अनेक प्रसिद्ध नाट्य –निर्देशकों के साथ काम कर चुके हैं. उन्होंने रंगमंच पर अपना पदार्पण 1989 में अभियान रंगसमूह के नाटक ‘चक्रव्यूह’ के साथ किया था. वे ‘अभियान’ के लिए ‘अंधी गली’, ‘मिस्टर राईट’ तथा ‘पंछी ऐसे आते हैं’ का निर्देशन कर चुके हैं. उन्होंने ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन के लीला आर्ट्स प्रोडक्शन के लिए भी ‘जात ही पूछो साधु की’, ‘पंछी ऐसे आते हैं’ तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटक ‘राजा’ की संगीतमय प्रस्तुतियां दी हैं. ‘इल्हाम’ में सुभाष गुप्ता के निर्देशन में अभिनय करने के साथ-साथ और भी कितने ही नाटकों में अभिनय किया है. कीमती आनन्द का नाम तो दिल्ली के पुराने लोग बहुत अच्छे से जानते हैं…. दिल्ली में रंगमंच व दूरदर्शन के वे जाने-पहचाने कलाकार हैं. मॉडर्न स्कूल में पढ़े, और मॉडर्न स्कूल ओल्ड स्टूडेंट्स एसोसिएशन से जुड़े रहे प्रदीप कुकरेजा भी दिल्ली रंगमंच का पुराना, जाना-पहचाना चेहरा हैं, जो रेडियो और दूरदर्शन पर अभिनय करते रहे हैं. सुनीता नारायण को संजीव जौहरी ने अभियान के लिये निर्देशित किये नाटक ‘अंधी गली’ में अभिनय के लिये लिया था. सिन्धु के रूप में प्रवीण कुमार, पत्रकार की भूमिका में अतिन रस्तोगी, और नौकर मंगल की भूमिका में आशीष अग्रवाल ने भी अपना मोहक अभिनय दे कर नाटक की सफलता में अपनी-अपनी भूमिका निभाई.




Beastly Tales: Animal and Human Fables

Naseeruddin Shah and Ratna Pathak Shah performing in Beastly Tales

Beastly Tales : Animal and Human Fables
A review by Manohar Khushalani


READINGS: Beastly Tales
Poems by Vikram Seth with Stories by James Thurber
Presented by Motley
Recitations by Naseeruddin Shah;
Ratna Pathak Shah; Heeba Shah; and Kenny Desai
Produced by Jairaj Patil
17 November 2022


Beastly Tales was billed as readings by the well-known performers, Naseeruddin Shah, Ratna Pathak Shah, Heeba Shah and Kenny Desai. Produced by Jairaj Patil for Motley, the heavily attended event included poems by Vikram Seth, from his book ‘Beastly Tales with stories by James Thurber’, TS Eliot’s poems from ‘Old Possum’s Book of Practical Cats’ and Robert Browning’s Legendary poem ‘Pied Piper of Hamelin’. The starkly designed presentation had no bells and whistles. Led by Naseeruddin Shah, the four performers stood behind their individual lecterns and read out the poems with a flair and perfect diction. Each one read their own piece individually and sometimes, in perfect synchronisation, in a chorus.

Spiced with humour, the content of the performance was deftly curated to reflect idiosyncrasies of contemporary times with follies and foibles of its people juxtaposed against an animal world which reminds you eerily of ‘Fables of Aesop’ and ‘Panchatantra’. The animals were near human too, but unlike the complexities we fallible folks suffer from, the cat, the lion, the tiger, the elephant, the owl were more focussed with a single idiosyncrasy each. This curious fact, along with the pulsating rhythm of the poetry delivered with a punch and an aplomb by the actors brought out the message of each piece with precision.

Let’s pick a few stanzas from here and there and see for ourselves the merriness of the mirth involved.

The Tortoise, in Vikram Seth’s poem, initially maintained the original story with who won the race thus:

“And the cheering of the crowd
Died at last, the tortoise bowed,
And he thought: “That silly hare!
So much for her charm and flair.
Now she’ll learn that sure and slow
Is the only way to go –
That you can’t rise to the top
With a skip, a jump, a hop”

But here comes the twist in Seth’s version, it is in fact the hare, who became the hero of the hour:

But it was in fact the hare,
With a calm insouciant air
Like an unrepentant bounder,
Who allured the pressmen round her.
“And Will Wolf, the great press lord
Filled a Gold cup — on a whim –
And with an inviting grin
Murmured: “In my eyes you win.”

Each of the selections had interesting, and sometimes mind blowing twists and turns, that be made you realise that, as in real life, in these fairy tales too you cannot take a happy ending for grantedFirst Published in IIC Diary Nov-Dec 2022

First Published in IIC Diary Nov-Dec 2022




Thespians honoured ceremoniously at Natsamrat Theater Awards 2023

Renowned Theatre Personalities of the country were honoured by Natsamrat. Like every year, this year also the 15th Natsamrat Theatre Award was organized, in which 12 theatre artists of the country were honoured by Natsamrat. Natsamrat’s director Shyam Kumar has always believed that it is a matter of pride for us to honour those who give their whole life to theatre.

This year the Best Writer Award was given to Dr. Harisuman Bisht, Best Director Satyabrata Rout, Best Actor Amit Saxena, Best Actress Rekha Johri, Best Backstage (Lighting) Souti Chakraborty, Best Critic Kamlesh Bhartiya, Theater Promoter Dayal Krishna Nath. Lifetime
Achievement Award was given to Daya Prakash Sinha, Dr.Jaidev Taneja, Diwan Singh Bajeli, R.K. Dhingra and Bharat Ratna Bhargava. All the honored personnel were given the Natsamrat Samman by Sh. R.K.Singh (former M.P.) and (Eminent Writer) Sh.Surendra Verma.

After the award ceremony the play Kadwa Sach was staged, by a troupe from Assam and the director of this play was Dayal Krishna Nath.

Mr. RK Sinha said that it is a big thing in itself that
an organization has been promoting this genre for 15 years and has been honoring the artistes, for this Natsamrat’s director Shyam Kumar deserves congratulations. Dr. Jaidev Taneja said that Shyam Kumar’s contribution to Hindi theater is commendable. The entire festival took place on 12 March 2023 at 6:30 pm at Muktdhara Auditorium, Gol Market, New Delhi and entry was free.




Natsamrat Natya Utsav 2023, Opens 4th March

Keeping up with it’s two decades old tradition, the 20th Natsamrat Natya Utsav is going to be inaugurated this weekend

Natsamrat is going to organize 20th Natsamrat Natya Utsav which will be held on 4th, 5th
and 12th March 2023 at Muktdhara Auditorium, Bhai Vir Singh Marg, Gol Market, New Delhi.

Like every year, this year too many plays are going to be staged on one stage, where the audience will be able to enjoy the plays of different provinces free of cost.

Three plays will be staged on March 4. The first play” Teen Bandar” written by Prabudh
Joshi & directed by Nagendra Kr. Sharma, which is a presentation of Ambala (Haryana) will be staged at 4:00 PM. The next performance is “Birsa Munda” written by Sanjay Bhasin & directed by Vikas Sharma at 6:00 PM and this is the performance of Kurukshetra (Haryana). On the same evening at 8:00 pm, the drama of Delhi will be presented “Chukayenge Nahi” written by Dario Fo, adaptation by Amitabh Srivastava & directed by Chader Shekhar Sharma.

The next day on March 5 at 4:00 pm the Play “Bali” written by Girish Karnad & directed
by Vashisth Upadhyay will be staged. At 6:30 pm, The Play “Kuch Tum Kaho Kuch Hum Kahen” written by Ashish Kotwal & directed by Shyam Kumar will be performed.

On March 12, Assam will present the play “Kadwa Sachh” written by Kushal Deka & directed by Dayal Krishna Nath.

Along with this, Natsamrat is going to organize it’s 15th Natsamrat Theater Award in which Theatre Personalities will be honored in eight different genres.

This year the best writer award is being given to Harisuman Bisht, the best director is Satyabrata Rout, the actor award is going to Amit Saxena and actress Rekha Johri, award for Backstage (Lights) is going to Souti Chakraborty and Critic is Dr. Kamlesh Bharti, Theater Promoter Award is
going to Dayal Krishan Nath and Lifetime Achievement Award is being given to
Bharatratna Bhargava. This grand finale will be organized on March 12 at 6:00 pm at Muktdhara Auditorium and the entry for the entire theatrical festival is free.




RIKSHAW DRIVER AND LADY– AN ABSURD PLAY (ONE ACT )

In the middle of LINTON road, a rickshaw comes and stops in front of the woman. She intends to hire it for going to a destination. The rickshaw driver looks at her and assents to take her to the desired stop.

Sc –I

Woman – Will you drop me at this address?

Driver- Yes madam. Please sit.

Woman- Be quick. I don’t have time.

Driver- yes madam..

Woman- Thank you.

Driver- No thanks. I am there to take people to their desired stops. But…

Woman- But? Are you worried about your fare? Do not worry. I will give you cash.

Driver- No. I am not worried about money. I am thinking that YOU are going to give my your life.

Woman: What?

Driver- No madam. Nothing. I just said nothing at all. Don’t worry. Come, it’s going to be night soon and this road becomes quite isolated. It is not safe to be here for a long time.

Sc II

(The rickshaw starts with a jerk. The woman gets a strong jolt)

Woman- Oh! Driver what’s this? Be careful.

Driver- At times, it isn’t in our hands madam.

Woman-But it is in our YOUR hands only!

Driver- No. I have to take many abrupt decisions while driving. This was one of them. I did not intend to put sudden jerk otherwise. The road’s quite open to receiving jerks when we start off.

Woman- Whatever. Let’s go.

Driver (speaks softly)- Go. This word has the implication of going and when I am going, I have to be on the go and when I am on the go, none disturbs me. Get Set Go!

Woman- What are you muttering?

Driver- Nothing madam. Yes, you said go. But…

Woman- But what?

Driver- We cannot GO.

Woman- What! Just a moment ago you said you are ready to go and now you are denying.

Driver- I am ready to go madam. But not ready to go now.

Woman- What? What are you talking?

Driver- Just wait madam, wait for some time. We need to. Or else, it might get too late.

Woman- What nonsense is this? You said we must start off quickly as it might get isolated here soon and now you are telling me to tarry?

Driver- Life is unexpected madam. The clutch wire just broke when I gave the jerk.

Woman- Oh! Now it would be needless delay. Never mind. I will hire another rick.

Driver- Not possible madam. It is not going to be easy for you to get another vehicle here.

(She stands there and tries to call other rickshaws. None of them stops. Comes back to the same rickshaw driver. Stands there.)

Woman- Ok. I am waiting here. Be quick.

Driver- Am trying my best. At times things are not in our hands madam.

Woman- But the wire is in your hands.

Driver- But its intention to get repaired or not does not lie in my hands madam.

(After almost an hour’s time, he is able to repair the clutch wire)

Woman- Now let’s go. Enough of waiting here.

Driver- Yes madam. Sit inside the auto.

(As she moves towards the auto, her foot twists unexpectedly while walking and she cries in pain.)

Woman- Oh God! I did not notice this stone in the middle. My foot got twisted! I am feeling awful. I never did think anything of this sort would happen. Thought I would hire and auto and reach home quickly.

Driver- At times, life shows us what we do not expect madam. Do not worry. I will support you and help you to get in the auto. Come, lean on my shoulder.

(He supports her)

Woman- ok. Now finally should we set off!

Driver- Yes madam.

(He starts the auto and takes it off. The woman sits quietly in the seat at the back. He keeps driving.)

Woman –(calls her friend) I will reach in no time. Actually, I can explain ( suddenly, there’s a speed breaker and the rickshaw crosses it very quickly. Once again, she gets a heavy jerk.)

Woman- Drive slowly. Will you. Can’t you see the speed breaker?

Driver- Madam. At times we are forced to drive quickly. You said you need to reach fast. I thought…

Woman- So that does not mean you drive haphazardly. Drive carefully.

Driver- Ok madam.

(Suddenly stops the auto)

Woman- What? Why have you stopped?

Driver- Madam. It is dinner time for me. I need to eat my food. You need to wait.

Woman- What?

Driver- yes.

Woman- But you drop me first then have your dinner. What are you up to?

Driver- Up to nothing madam. I am telling you one simple thing. I cannot drive ahead without my food. I need to finish my dinner. Wait in the auto. I will come in no time.

(She waits reluctantly and knows well that no rickshaw was available in that area. He comes after almost forty five mins)

Woman- Now should we go?

Driver- If you ask me madam, it means you are taking my permit. I am nobody to decide.

Woman- But you are the DRIVER. Driving me is in your hands.

Driver- No madam. Driving both of us is in someone else’s hands.

Woman- What absurdity is this? You drive take me to my destination.

Driver- You think you have a destination. (Laughs.) Everybody thinks so. But none has any.

Sc III

(She looks at him almost frantically.)

Woman- Why are you talking wierd?

Driver- Nobody makes any sense in the world madam. Especially lower class people like us, we often become senseless in front of everyone.

Woman- See right now it is not the time to check whether you are sensible or senseless. Now is the time to drive safely and help me reach my destination. I am wanting eagerly to reach at a place.

Driver- That’s what I am doing madam. Helping you reach your destination.

Woman-With the kind of slow speed that you are driving, I do not think we will reach there ever.

(stops the auto. The woman looks at him irritatingly.)

Woman- Why did you stop the auto?

Driver- I need to get the CNG filled.

Woman- Listen, do it afterwards. I do not want to be late.

Driver- Madam. There is no fuel left.

Woman- What? Why didn’t you tell me earlier. I would not have hired your auto.

Driver- Madam, it will take 5 mins.

Woman- Ok.

(Gets the fuel tank filled. The woman waits.)

Woman- Now can we get set go?

Driver- Madam, wait. I need to get the change to give them money.

Woman- Wait, here I am giving you change. Take it. Give it to them. Let’s leave.

Driver- Ok madam.

(He makes the payment at the petrol pump. They start off and come at crossroad)

Driver- Madam. Two roads diverge. Which one to take?

Woman- The left one. Wait, perhaps, I would have to check on my phone. Ok , here it is the right one. That’s the direction it shows.

Driver- But madam, this road is very long. It will take time.

Woman- My mobile does not lie. It is the most convenient road it shows.

Driver- So I should take this one right?

Woman- Of course.

Driver- So be it.

(He turns right. The road continues and has many lanes. After some time the woman gets annoyed.)

Woman- What is this? Lanes after lanes?

Driver- Madam, I told you this road is long but you did not listen to me.

Woman- Now what to do?

Driver- Let’s go back.

Woman- Ok.

(He takes a reverse turn, in just a few mins, they come to a specific point where there is traffic jam)

Woman- O my God! We did not have it while we took this road, now where did this come from?

Driver- It is a procession that has just started madam.

Woman- We are stuck!

Driver- We are often stuck in the middle of roads madam.

(After almost an hour’s wait, the traffic heals. They move ahead.)

Woman- I wanted to reach there two hour before. Little did I know I would get so late!

Driver- We often do not know the future madam. But better late than never.

Woman- What do you mean?

Driver- Meaning, we would reach there some time, some day.

Woman- What? What are you talking?

Driver- Nothing madam. The fact of life. The crux of living this life is an eternal journey that never ends. Right?

Woman- Don’t be philosophical. I do not have time.

Driver- None has time. Time has everyone.

(Puts a sudden break. Stage goes dark. The next moment we see bright light on the stage and many people having gathered there.)

Person I – Oh sad, very sad the accident.

Person II- The autowala is dead.

Person III- The passenger?

Person I- Nowhere to be found.

Person II- Let us inform the police.

(They call the ambulance and the police who come and do the needful in the case.)

The next day, a woman stands in the middle of the LINTON road. She stops an auto, hires him.

Woman – Will you drop me at this address?

Driver- Yes madam. Please sit.

Woman- Be quick. I don’t have time.

Driver- yes madam.

Woman- Thank you.

Driver- No thanks. I am there to take people to their desired stops. But…

Woman- But? Are you worried about your fare? Do not worry. I will give you cash.

Driver- No. I am not worried about money. I am thinking that YOU are going to give me your life.

Woman: What?

(Next day in the newspaper. Linton road seems to be haunted. A driver with an auto is seen moving around and a lady comes and boards it. They both act as passenger and auto driver. After a while, people hear a loud shriek, an auto driver in the same locality is found dead.)

Lights off stage darkens. After a while there is light all around.

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निर्जन कारावास

समीक्षक — अनिल गोयल

हिन्दी में मूल नाटकों के अभाव की बात सदैव से कही जाती रही है. ऐसे में किसी नये नाटक का आना अवश्य ही स्वागत-योग्य कहा जायेगा! ‘जयवर्धन’ के नाम से लिखने वाले जे.पी. सिंह का नया नाटक ‘निर्जन कारावास’ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी, योगी, दार्शनिक और कवि महर्षि अरविन्द घोष के जीवन पर लिखा गया एक नाटक है. 1872 में कलकत्ता में जन्मे महर्षि अरविन्द का जीवन बहु-आयामी था – उन्होंने इंग्लैंड में आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण करने से लेकर बड़ौदा (अब वदोदरा) में एक प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षक, क्रान्तिकारी, पत्रकार, योगी, दार्शनिक और कवि तक की भी भूमिकाएँ निभाईं. उनके जीवन को एक नाटक में समो सकना असम्भव है. जयवर्धन का प्रस्तुत नाटक महर्षि अरविन्द के एक वर्ष के निर्जन कारावास वाले काल-खण्ड को प्रदर्शित करता है, जब उन्हें प्रसिद्ध अलीपुर बम काण्ड में गिरफ्तार किया गया था.

बड़ौदा में कुछ समय प्रशासनिक सेवा से जुड़े रहने के बाद अपने को वहाँ से मुक्त कर के वे बंगाल लौट आये थे. वहाँ अरविन्द घोष असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन से जुड़ गये, जिस काल में उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और भगिनी निवेदिता के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया. वे बाहरी रूप से तो कांग्रेस की गतिविधियों से जुड़े, लेकिन उन्होंने अपने को गुप्त रूप से भूमिगत क्रान्तिकारी गतिविधियों से भी जोड़ लिया. क्रान्तिकारी गतिविधियों से युवाओं को जोड़ने के लिये उन्होंने युवाओं को युवा क्लब स्थापित करने को प्रेरित किया. इसके पहले, सन 1902 में बंगाल के सुप्रसिद्ध ‘अनुशीलन समिति’ क्रान्तिकारी समूह को स्थापित करने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई थी. वे देश भर में क्रान्तिकारियों को संगठित करने के लिए घूमते फिरे. उन्होंने बाघा जतिन और सुरेन्द्रनाथ ठाकुर को भी क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने को प्रेरित किया

.
अपनी इन गतिविधियों के कारण वे ब्रिटिश सरकार की निगाहों में आ गये. उनकी गतिविधियों को रोकने के लिये उन्हें अलीपुर बम काण्ड में गिरफ्तार कर लिया गया, जहाँ मुकदमा चलने के काल में उन्हें एक वर्ष तक ‘निर्जन कारावास’ में रखा गया. ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य था उन्हें फाँसी पर चढ़ाना; ब्रिटिश वाइसराय के सचिव की सोच थी कि अरविन्द घोष समस्त क्रान्तिकारी गतिविधियों के मस्तिष्क हैं, और वे अकेले ही क्रान्तिकारियों की पूरी सेना खड़ी करने में सक्षम हैं. परन्तु उनके विरुद्ध पर्याप्त प्रमाण जुटा पाने में विफल रहने पर सरकार मुकदमा हार गई, और उसे अरविन्द घोष को छोड़ देने पर बाध्य होना पड़ा. कारा से बाहर आने पर उन्होंने अंग्रेजी में ‘कर्मयोगी’ और बंगाली में ‘धर्म’ नामक प्रकाशन प्रारम्भ किये. इस समय पर पहली बार उन्होंने अपने उत्तरपाड़ा व्याख्यान में अपने चिन्तन में अध्यात्मिक रुझान के आने के संकेत दिये. इसके बाद वे फ्रांसीसी आधिपत्य वाले क्षेत्र पांडिचेरी चले गये, लेकिन ब्रिटिश गुप्तचरों ने वहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा. इसके बाद क्रान्तिकारी गतिविधियों से सन्यास ले कर वे पूर्ण रूप से योगी बन गये.

जे.पी. सिंह ने अपने इस नये नाटक की पहली प्रस्तुति 5 दिसम्बर 2022 को दिल्ली के श्रीराम प्रेक्षागृह में दी. इस प्रस्तुति के लिये उन्हें भीलवाड़ा औद्योगिक समूह की ओर से सहयोग मिला. यह हर्ष का विषय है कि स्वतन्त्रता-संग्राम के जो चरित्र अब तक हिन्दी रंगमंच से नदारद थे, वे अब भारतीय जनता के समक्ष जीवित हो रहे हैं.
लेकिन जे.पी. सिंह के अरविन्द आध्यात्म में डूबे हुए अरविन्द हैं, उनकी उस समय की वास्तविकता से थोड़े दूर! यदि अरविन्द सचमुच आध्यात्म में इतने ही डूबे हुए थे, तो सरकार को उन्हें निर्जन कारावास में रखने की क्या आवश्यकता थी? तथ्य बताते हैं कि अलीपुर बम काण्ड के समय तक अरविन्द इतनी गहराई के साथ आध्यात्म की ओर को नहीं मुड़े थे. योग और प्राणायाम से तो वे काफी पहले जुड़ गये थे, कविता भी करने लगे थे. परन्तु बहुत गहराई के साथ आध्यात्म की सीढ़ियाँ चढ़ना उन्होंने अभी प्रारम्भ नहीं किया था. जेल में, प्रारम्भ में उन्हें घर के कपड़े पहनने, अपने पास किताबें रखने और कागज-कलम और दवात तक के प्रयोग की अनुमति भी नहीं थी, जिस की अनुमति उन्हें जेल में रहने के काल में काफी समय के बाद मिली थी. जेल में स्वामी विवेकानन्द की आत्मा दो माह तक उनसे मिलती रही, ऐसा उन्होंने बाद में एक पत्र में लिखा. लेकिन यह भी सत्य है, कि यदि जेल में ही सरकारी गवाह बन गये नरेन गोस्वामी की हत्या न कर दी गई होती, तो अरविन्द को आध्यात्म की ओर को मुड़ने का अवसर भी मिल पाता या नहीं! कांग्रेस में भी वे प्रारम्भ से ही गरम दल के साथ जुड़े थे, तिलक के साथ उनका सामीप्य यही सिद्ध करता है.

इसलिये, नाटक की प्रस्तुति में एक प्रशासनिक अधिकारी, राजनीतिक विश्लेषक, शिक्षक, क्रान्तिकारी, पत्रकार, योगी, दार्शनिक और कवि की उनकी भूमिकाओं को उभारना आवश्यक है. इससे इतने बड़े व्यक्तित्व वाले इस क्रान्तिकारी के चरित्र को एकांगीपन से बचा कर कर उसे उसकी बहु-आयामिता में प्रस्तुत करना सम्भव होगा, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है. अभी नाटक का पहला ही प्रदर्शन हुआ है. नाटक के अन्य प्रदर्शनों तथा इसके प्रकाशन के पूर्व जयवर्धन को इस विषय पर थोड़ा और गहराई के साथ शोध करके उनके निर्जन कारावास के समय की उनकी वास्तविक मनोस्थिति को उभारना होगा, तभी इस ऐतिहासिक चरित्र के साथ न्याय हो सकेगा. नाटक में रूप-सज्जा इत्यादि पर और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि साधारणजन के मन में महर्षि अरविन्द के चित्रों के माध्यम से उनकी एक छवि बनी हुई है, जिसका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है. बाऊल संगीत का प्रयोग करके जे.पी. सिंह नाटक में संगीत-पक्ष का कुशलता से प्रयोग कर सके हैं. नाटक को वास्तविकता के समीप लाने के लिये, नाटक के प्रमुख चरित्र अरविन्द घोष के पात्र को निभाने वाले अभिनेता विपिन कुमार को भी अपने को एक बहुत ही विनयशील, सौम्य, धार्मिक पुरुष की छवि से निकाल कर एक अंग्रेजी वातावरण और ईसाई प्रभाव में पले-बढ़े क्रान्तिकारी, प्रशासक और पत्रकार के चरित्र में आना होगा, सदैव किसी सन्त की भांति भावहीन चेहरे से कहीं दूर क्षितिज की ओर को देखते रहने से बचने की आवश्यकता है.




प्रेम रामायण

लेखक: अनिल गोयल

महरषि वाल्मीकि की रामायण ने पिछले लगभग सात-आठ हजार वर्षों में कितने ही रूप धारे हैं. हर काल में वाल्मीकि–रचित इस महाकाव्य को हर कोई अपने तरीके से सुनाता चला आया है. इसकी मंच-प्रस्तुतियों ने भी शास्त्रीय से लेकर लोक-मानस तक हजारों रंग भरे हैं. पारसी शैली की रामलीला को देख कर भारत की कितनी ही पीढ़ियाँ भगवान राम की इस कथा को मन में धारती आई हैं. कुमाँऊँनी रामलीला से लेकर कोटा क्षेत्र के पातोंदा गाँव, ओड़ीसा की लंकापोड़ी रामलीला और हरियाणा में खेली जाने वाली सरदार यशवन्तसिंह वर्मा टोहानवी की रामलीला जैसी कितनी ही सांगीतिक रामलीलाओं की लम्बी परम्परा हमारे यहाँ है. भारत ही नहीं, विदेशों में भी इसकी अनेकों प्रस्तुति-शैलियाँ पाई जाती हैं. इंडोनेशिया में बाली की रामलीला की तो अपनी अलग ही मनोहर शैली है.

हमारे देश में भी कलाकार रामलीला को अपनी दृष्टि से मंच पर प्रस्तुत करने के नित नये तरीके और शैलियाँ ढूँढ़ते रहते हैं. प्रवीण लेखक, निर्देशक और निर्माता अतुल सत्य कौशिक ने, जो प्रशिक्षण से एक चार्टर्ड अकाउंटेंट और अधिवक्ता हैं, अपने नाटक ‘प्रेम रामायण’ में प्रेम की दृष्टि से इस महाकाव्य की विवेचना की है. रामायण की अपनी व्याख्या पर आधारित नाटक ‘प्रेम रामायण’ का प्रदर्शन अतुल ने 5 अक्टूबर 2022 को दिल्ली के कमानी प्रेक्षागृह में किया. उनकी इस नाटक की यह पच्चीसवीं या छब्बीसवीं प्रस्तुति थी, जोकि हिन्दी रंगमंच के लिये एक गर्व का विषय है.

हमारे यहाँ प्रेम-भाव का प्रयोग प्रायः कृष्ण-कथाओं की प्रेम-मार्गी प्रस्तुतियों में किया जाता है. परन्तु अतुल ने बाल्मीकि की रामायण के मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जीवन पर आधारित रामायण को प्रेम के भाव की प्रस्तुति का माध्यम बनाया है, जहाँ रामायण के चरित्र ईश्वरीय अवतार होने के साथ-साथ अपने मानवीय रूप, स्वभाव और संवेदनाओं के संग नजर आते हैं.

Atul Satya Kaushik

इसकी प्रेरणा उन्हें कैसे मिली, इसके उत्तर में वे कहते हैं, “मैं किसी एक प्रोजैक्ट के लिये बाल्मीकि रामायण पढ़ रहा था, और क्रौंच-वध के प्रसंग को पढ़ते हुए मुझे लगा कि इस महाकाव्य की उत्पत्ति तो एक प्रेम-आख्यान से हुई है. तो रामायण की विभिन्न कथाओं में प्रेम को ढूँढ़ने की प्रेरणा मुझे इसी आदि-काव्य से मिली!”
इसके लिये उन्होंने रामायण में छुपी पाँच प्रेम-कथाओं को चुना है. प्रेम-कथाओं के इन पन्नों में से सबसे पहले वे एक लगभग अनजानी सी कहानी ‘अकाल’ ले कर आते हैं, जिसमें श्रीराम की बड़ी बहन, दशरथ और कौशल्या की पुत्री शान्ता और उनके पति ऋषि श्रृंगी या ऋष्यश्रृंग की कहानी दिखाई गई है. दूसरी कहानी ‘रथ से निकला पहिया’ कैकेयी और दशरथ की जानी-पहचानी कहानी है. तीसरी कहानी ‘स्वर और शान्ति’ में वे सीता और राम के मन की संवेदनाओं की कथा सुनाते हैं. इसके बाद ‘उल्टी करवट मत सोना’ में लक्ष्मण और उर्मिला की कहानी देखने को मिलती है. और अन्त में, ‘उस पार’ के माध्यम से सुलोचना और मेघनाद की करुण प्रेम-कथा के दर्शन होते हैं.

विरह या अपने प्रिय से अलगाव ही प्रायः प्रेम-आख्यानों का आधार रहता है. इन पाँच में से शान्ता की कहानी के अतिरिक्त अन्य सभी चार कहानियाँ अपने-अपने कारणों से जन्मे उसी विरह की वेदना को दर्शाती हैं. सभी कहानियों में स्त्री-मन की अथाह गहराइयों को दर्शाने का प्रयास स्पष्ट नजर आता है, जिसके लिये अतुल कभी-कभी इन कथाओं की अपने अनुसार विवेचना भी कर लेते हैं.

दशरथ के मित्र और अंगदेश के स्वामी राजा रोमपद ने शान्ता को पाला था. युवा होने के उपरान्त परिस्थितियोंवश एक बार शान्ता का सामना ऋषि श्रृंगी या ऋष्यश्रृंग से हुआ. ऋष्यश्रृंग ने अपने पिता विभान्तक या विभंडक के क्रोध से शान्ता की रक्षा की, और उसी क्षण शान्ता ऋष्यश्रृंग की हो गई! (इन ऋषि विभंडक के नाम पर ही आज का मध्य प्रदेश का भिंड नगर बसा हुआ है!) ऋष्यश्रृंग ने भी जीवन के हर क्षण में शान्ता को अपने साथ रखा, उसे पूरी बराबरी का सम्मान दिया! शान्ता के जीवन के उन्हीं क्षणों का चित्रण अतुल ने पूरी कुशलता के साथ किया है.

‘स्वर और शान्ति’ में अतुल ने सीता और राम के मन की ध्वनि को एक अनूठे ही तरीके से सुनाया है. अतुल की सीता अयोध्या की सीता नहीं हैं, वे मिथिला की बेटी सीता हैं, मन से एक चंचल बालिका, सुकोमल भावनाओं से ओत-प्रोत, कर्तव्यों के गाम्भीर्य के बीच अपने मन की संवेदनाओं के कोमल स्वरों को भी सुनने वाली सीता. अयोध्या के राम जितने शान्त थे, मिथिला की सीता उतनी ही चपल और चंचल थीं. आज भी मिथिला और नेपाल के गीतों में उनका यही रूप अधिक प्रचलित है, जनकपुर की बेटी का रूप! राम का स्वरुप भी यहाँ अयोध्या के युवराज का नहीं, बल्कि मिथिला के जामाता का है, जिसके साथ ठिठोली भी की जाती है! सीता के इसी स्वर, और राम के गहन-गम्भीर, शान्त स्वभाव की कथा है यह कथा! यह प्रेम रामायण है, तो उसमें अतुल ने कलात्मक स्वतन्त्रता लेकर सीता की प्रचलित एकदम गम्भीर, आदर्श छवि से हट कर, सीता को अपने पिता की लाडली बेटी, एक बच्ची के रूप में दिखाने का प्रयास किया है!

लेकिन पूरे नाटक में सबसे अधिक मार्मिक और करुणा भरे क्षण रहे लक्ष्मण और उर्मिला की विदा के क्षण! मैथिलीशरण गुप्त ने भी अपने महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग में घर में रह कर वनवासिनी का जीवन जीती उर्मिला की कहानी कही है. आसन्न विरह के आभास और सीता के वनवास जाने से उत्पन्न हुए कर्त्तव्य के बीच अद्भुत सन्तुलन बनाती हुई उर्मिला… इन चारों बहनों में से सबसे बड़ी सीता तो वन चली गईं . अब बाकी तीनों में उर्मिला ही सबसे बड़ी हैं. तीन सासें तो अपने वैधव्य को भोग रही हैं. उन तीनों सासों की, अपनी दोनों छोटी बहनों की, दोनों देवरों की, और इतने बड़े राजभवन की सम्पूर्ण जिमेवारी अब उर्मिला की हो जाने वाली है. लेकिन इन सब कर्त्तव्यों के बीच उसका अपना आसन्न विरह भी तो है, जिसे न चाह कर भी उर्मिला ने स्वीकार कर लिया है. लेकिन लक्ष्मण के वन जाने के पहले वह एक बार लक्ष्मण से मिल कर अपने को अयोध्या के राजभवन के अपने चौदह वर्षों के वनवास के लिए तैयार कर लेना चाहती है. वह वन-गमन की तैयारी करते लक्ष्मण को बुला भेजती है.

लक्ष्मण एवं उर्मिला दोनों को ही पता है कि उनका यह मिलन एक क्षणिक मिलन-मात्र है। उर्मिला के उलाहनों से प्रारम्भ हुए इस अल्पकालीन मिलन में दोनों में से कोई भी अपने अन्तर के ज्वार भाटे से दूसरे को अवगत नहीं करा पाता है। उन दोनों को ही पता है कि दोनों को अगले चौदह वर्षों का भीषण वियोग सहना है। उर्मिला का उर अश्रुओं से गीला है। लेकिन जाते हुए वह लक्ष्मण को दुःख नहीं देना चाहती… अतः अपनी चपलता को बनाये रखने का असहज सा प्रयास करती है. गरिमा और दीप्ति का आविर्भाव इस बालिका, उर्मिला में अभी होना बाकी है. मायके में माता-पिता, और अयोध्या में सीता के संरक्षण में पली-बढ़ी उर्मिला अभी तक एक चपला बालिका भर ही तो रही है…

अतुल के लक्ष्मण ने ऐसे एकाकी क्षणों के लिये अपनी उर्मिला को ‘मिला’ नाम दिया है. वे आते हैं, और अपनी ‘मिला’ से पूछते हैं, “तुम्हें क्या बात करनी है?”
ये कुछ क्षण आसंग विरह के पूर्वरंग के समान हैं. दोनों ही सोच रहे हैं कि क्या बात करें, कैसे एक-दूसरे से विदा लें. वह भी लक्ष्मण के साथ वन जाना चाहती है, परन्तु उसे पता है कि यह सम्भव नहीं है… उसका विराट कर्त्तव्य उसके सामने नजर आ रहा है.
लेकिन कर्त्तव्य के साथ-साथ उसका अपना विरह भी तो है… एक नन्हा सा, कोमल भावनाओं से भरा हृदय भी तो उसके पास है! यहाँ पर अतुल ने उर्मिला को एक छोटी सी, लगभग नन्हीं सी नवविवाहिता किशोरी के रूप में दिखाया है, चौदह वर्षों का लम्बा विरह जिसके आगे प्रस्तुत होने को ही है! वह कहती है, “मुझे? मुझे क्या बात करनी है?”
लक्ष्मण कहते हैं, “मैं चौदह वर्ष के लिये वन जा रहा हूँ और तुम्हें मुझसे कोई बात नहीं करनी?”
उर्मिला आज इन कुछ पलों में जैसे अपने आने वाले चौदह वर्षों को जी लेना चाहती है, अपने सायास ओलाहनों से बातचीत को सहज करने का प्रयास करती, “तुम्हें भी कहाँ करनी है बात! तुम तो सुनते ही तैयार भी हो गये, जैसे प्रतीक्षा में थे कि कब अवसर आये और तुम मिला से दूर जाओ। मैं बहुत लड़ती हूँ ना तुमसे!”
लक्ष्मण तो ठहरे सदा के गम्भीर! लेकिन अपने कर्तव्यों के बीच उन्हें उर्मिला के उर में समाते जा रहे विरह का भान भी था. वे उस चंचला से बोले, “तुम कहाँ लड़ती हो। कदाचित लड़ने के कारण मैं ही देता हूँ तुमको। अब चौदह वर्ष का समय मिला है तो सोचूँगा कहाँ सुधार हो सकता है।”
दोनों का वार्तालाप चलता रहता है, स्तब्ध बैठे दर्शक सुनते रहते हैं, अपने अश्रुओं को रोकने का असफल प्रयास करते हुए…
लेकिन आसन्न विरह के इस क्षण में उर्मिला उतनी चंचला भी नहीं रह पाती, जिसका प्रयास वह अब तक कर रही थी! वह नन्हीं सी बच्ची, वह चंचला किशोरी अब अपने लक्ष्मण को उपदेश दे रही है, “… आज मुझे लड़ना नहीं है। सुनो, तुम ना… भैया-भाभी की सेवा में, कुछ अपना ध्यान भी रख लेना। खिला के भैया-भाभी को कुछ अपने नाम भी रख लेना। समय पे उठना, समय पे खाना, उल्टी करवट मत सोना। याद मेरी आ भी जाये, भैया के आगे मत रोना।”
‘उल्टी करवट मत सोना…’ उस दिशा में शैया पर उर्मिला होती थी! अब जब वह वहाँ नहीं होगी, तो लक्ष्मण को अपनी मिला की याद आयेगी, उन्हें सन्ताप होगा! अपने विरह से बड़ा उस मानिनी के लिये है अपने प्रिय के विरह का भान!

लेकिन विरह-सन्ताप के साथ-साथ इस सीता-भगिनी को कर्त्तव्य-बोध भी है! ‘याद मेरी आ भी जाये, भैया के आगे मत रोना।’ अपने व्यक्तिगत सन्ताप के क्षणों में भी कर्त्तव्य-बोध के होने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है!
दोनों के बीच वार्तालाप सतत प्रवाहमान है. प्रेक्षागृह का वायुमण्डल प्रेक्षकों की निस्तब्ध साँसों और आँखों की नमी से बोझिल होता चला जाता है. लक्ष्मण कहते हैं, “मिला… ना राम को, ना सीता को, ना लक्ष्मण को ये श्राप मिला। यदि सच में मिला किसी को तो उर्मिला को ये वनवास मिला। मिला, तुम महलों में रह कर भी वनवास का जीवन भोगोगी। मोर के संग मोरनी को देखोगी, तो भी रो दोगी। पर आह, दुर्भाग्य। मेरी मिला का वनवास ना वतर्मान याद रखेगा, ना इतिहास। उर्मिला का वनवास कोई याद नहीं रखेगा।”

लेकिन उर्मिला को अपने लक्ष्मण पर अटूट विश्वास है, “झूठ कहते हो, कोई याद रखे या ना रखे, मिला का वनवास, लक्ष्मण याद रखेगा। रखेगा ना।” और फिर दोनों ही अपने को रोक नहीं पाते… संयम के सारे बांध टूट जाते हैं… दोनों गले मिल कर फफक कर रो पड़ते हैं। उर्मिला का लक्ष्मण पर यही अटूट विश्वास बहुत वर्षों के बाद लक्ष्मण को रूपवती राक्षसी सूर्पणखा से दूर रखने में सफल होता है! सावित्री की कथा इतिहास में कितनी बार दोहराई गई है!
नाटक के लेखक, निर्देशक और प्रस्तुतकर्ता अतुल सत्य कौशिक ने अपने नाटक को कथावाचक के फॉर्मेट में तैयार किया है. मंचाग्र में दाहिने हाथ पर कुर्सी पर बैठ कर अतुल पूरी कथा के सूत्र को अपने हाथ में थामे, एक कुशल नाविक की भांति दर्शकों को इस कथा-गंगा की यात्रा करवाते हैं. इस कथा-यात्रा की पतवार हैं नृत्य और सजीव गायन, जिसमें लोक से लेकर शास्त्रीय तक सबका समायोजन अतुल ने किया है. अंजली मुंजाल की अत्यन्त सुन्दर और प्रीतिकर नृत्य-संरचनाओं को सुष्मिता मेहता और साथियों ने कत्थक नृत्य के द्वारा प्रस्तुत किया.

एक घंटे और चालीस मिनट के इस नाटक को अतुल ने केवल तीन कलाकारों सुष्मिता मेहता, अर्जुन सिंह और मेघा माथुर के द्वारा प्रस्तुत किया है, जो दृश्यों के अनुसार विभिन्न चरित्रों को बारी-बारी से निभाते हैं. नाटक के आकर्षण का प्रमुख आधार-स्तम्भ है लतिका जैन का गायन. दूसरा स्तम्भ है नाटक में नृत्यों का प्रयोग. आज हिन्दी रंगमंच में गायन और नृत्य का प्रयोग लगभग समाप्त हो चुका है. कविता, गीत, गानों, गजल इत्यादि के माध्यम से निर्देशक ने विभिन्न भावों और संवेदनाओं को दिखाया है. मैथिल सुहाग-गीत ‘साँवर साँवर सुरतिया तोहार दुलहा, गोरे गोरे लखन … दुलहा’, अवधी के विदाई गीत ‘काहे को ब्याही बिदेस’, रामनिवास जाजू की हिन्दी कविता, और हिन्दी, उर्दू, फारसी, बृजभाषा इत्यादि के एक प्रसिद्ध गीत जेहाल-ए-मिस्कीं इत्यादि को प्रयोग करके अतुल ने आज के समय में एक साहसिक प्रयोग किया है… जिसकी बानगी हमने बापी बोस के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में भी देखी थी. कुछ लोग इस नाटक को डांस-ड्रामा या नृत्य-नाटिका का नाम देंगे. मैं इस प्रकार के पश्चिमी वर्गीकरण के विरुद्ध हूँ… हमारे नाट्यशास्त्र में कलाओं को एक समग्र तरीके से देखने का प्रावधान है, ना कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करके देखने का, जो मुझे ज्यादा उचित लगता है. अतुल के सैट की परिकल्पना में भी कहीं अल्पना जैसी पारम्परिक शैलियों की झलक मिलती है.

नाटक में प्रकाश-व्यवस्था तरुण डांग ने और ध्वनि-व्यवस्था दीप्ति ग्रोवर ने सम्भाली थी. संगीत निर्देशन अनिक शर्मा का रहा. गायन जीवन्त था, लेकिन संगीत कराओके था, क्योंकि, ‘संगीतकारों को साथ लेकर चलना सम्भव नहीं हो पाता!’, अतुल कहते हैं. हिन्दी रंगमंच की यही विडम्बना है, कि एक प्रस्तोता को कितने ही समझौते करने पड़ते हैं!