Shyam Swami: A Journey from Stage to Screen

The theatrical journey of Shyam Swami, which began in the historic lanes of Bikaner, Rajasthan, has evolved over the years into a significant cultural odyssey, seamlessly bridging the worlds of stage and screen. His earliest tryst with performance took place during his school years, where weekly assemblies became a platform for reciting poems, narrating stories, and enacting skits. His selection for a drama in the annual function further nurtured this emerging passion for theatre.

A pivotal moment arrived before his college years when he was selected for the Theatre Summer Workshop organized by the Jodhpur Sangeet Natak Akademi. This workshop provided him with an intensive introduction to various theatrical forms and techniques. It was here that he played the lead role in Charpai, written by Suresh Awasthi and directed by S.D. Chauhan — a performance that marked his first significant step as a theatre practitioner.

Following this, Swami became associated with the Marudhara Theatre Society. Under the direction of Ashok Joshi, he performed the lead role in Tidorav, a Rajasthani play authored by Harish Bhadani, which was successfully staged across the state in nine performances. During this period, he also participated in a National School of Drama (NSD) workshop conducted by Vagish Kumar Singh. The workshop resulted in the creation of Ek Ped Ki Kahani, an environment-themed play that was performed over 37 times throughout Rajasthan and received widespread acclaim from audiences.

Upon completing his graduation, Swami moved to Delhi for professional reasons. Although he stepped away from active theatre for a period, his engagement with the art continued through regular attendance at performances. A fortuitous meeting with director Ashok Talwar at Shri Ram Centre opened new avenues, leading to his selection for a role in the television serial Vaidik Kaleen Nariyaan. This opportunity brought him closer to the worlds of acting and production, marking the beginning of a new phase in his artistic journey.

Swami then fully embraced production work, collaborating with some of the most eminent figures in Indian theatre and cinema, including Tigmanshu Dhulia, Gulzar Sahab, Sagar Sarhadi, and Meghna Gulzar. His passion for theatre remained constant, reflected in his significant contribution to the production of Amal Allana’s teleplay Devyani Ka Kehna, a noteworthy milestone in his career.

During the Commonwealth Games, he undertook the production responsibilities for NSD professor Hema Singh’s acclaimed solo play Zindagi Madhur Hai, Kuman Senu Mein, which was successfully performed more than thirteen times across India, including at the Bharat Rang Mahotsav. His dual role as actor and production member in the Parsi play Khoobsurat Bala, directed by Vagish Kumar Singh and Hema Singh for the Theatre Olympics, stands as a highlight of his theatrical career.

Years of active involvement in both theatre and screen ultimately inspired him to establish the Skin and Stage Foundation (Trust). Today, Shyam Swami brings together his acting expertise and production experience to lead this institution as a vibrant cultural initiative. His journey exemplifies how dedication, passion, and creativity can converge to shape a meaningful artistic legacy, contributing to both traditional theatre and contemporary media.




अपने बेटों के अँधेरे जीवन में रंग भरते पिता का संघर्ष है फ़िल्म- रंगीली

अपने बेटों के अँधेरे जीवन में रंग भरते पिता का संघर्ष है फ़िल्म- रंगीली

समीक्षा:
डॉ तबस्सुम जहां

अभी हाल ही मे स्टेज ऐप पर रिलीज़ फ़िल्म ‘रंगीली’ बहुत चर्चा मे रही। रंगीली शब्द आते ही हमारे मन मे अनेक रंग बिरंगे रंगो की छवि बनने लगती है। रंगो की एक भरी पूरी दुनिया। लेकिन एक ऐसे पिता जिनकी पत्नी के जाने के बाद उनके दोनों बेटो के जीवन से रंग ही ख़त्म हो जाएँ तो ऐसे पिता का जीवन भी भयंकर अंधकार मे घिर जाता है। ऐसे में एक पिता अपने बेटों के जीवन मे रंग भरने का हर संभव प्रयास करता है और अंत मे सफल होता हैं। इसके लिए वो क्या क्या जतन करते हैं और उनके बेटों के जीवन मे अँधेरा क्यों हो जाता है। कुछ ऐसे ही परिदृश्य मे रचा बुना गया है रंगीली फ़िल्म का ताना बाना।

रंगीली’ फ़िल्म ग़रीब पिता बने संदीप शर्मा के इर्द-गिर्द घूमती है।

कहते हैं जवान बेटे बुढ़ापे में पिता की लाठी बनते है लेकिन इस फ़िल्म में एक पिता के परिवार में उसके बेटों राम लक्ष्मण के साथ कुछ ऐसा हादसा हो जाता है कि उसे अपने दोनों बेटों की लाठी बनना पड़ता है। सिर्फ़ कुछ समय के लिए ही नहीं बल्कि आजीवन। पिता केवल लाठी ही नहीं बनता बल्कि उनके जीने का सहारा, उनका हौसला उनकी शक्ति बनता है। जिससे प्रेरणा लेकर उसके दोनों बेटे वो कार्य कर दिखाते हैं जिससे न केवल बाप का सिर सम्मान और गर्व से ऊँचा हो जाता है बल्कि समाज मे एक बेहतरीन सन्देश भी पहुँचता है। शायद यही संदेश इस फ़िल्म की मूल भावना भी है।

‘रंगीली’ फ़िल्म ग़रीब पिता बने संदीप शर्मा के इर्द-गिर्द घूमती है। जिनकी पत्नी गुज़र चुकी है और दो जवान बेटे राम लक्ष्मण उनके जीवन का आधार है। जिनके लिए वह जीते मरते है। एक लड़की की इज़्ज़त बचाते समय उनके दोनों बेटों के साथ एक भयंकर हादसा हो जाता है जिससे वह अंदर से बुरी तरह टूट कर भी उनके सामने मज़बूत बने रहते है। वह अकेले में भयंकर रुदन और चीत्कार करते है लेकिन किसी के सामने अपनी पीड़ा को सामने नहीं आने देते। एक गहरा अंधकार उनको घेर लेता है जिसे चीर कर वह बेटों के जीवन में रोशनी लाते है। एक पिता की बेबसी, लाचारी और संवेदनशीलता, मार्मिकता को संदीप शर्मा ने बहुत ही जीवंतता के साथ निभाया है। बेटों को सिखाना, उन्हें हँसाने के लिए कोशिश करना, अंत में पैराओलम्पिक में जाने के लिए हुई ट्रेनिंग आदि ऐसे अनेक दृश्य है जो भावुक कर जाते हैं।

रंगीली एक बहुत ही प्यारी, बहुत ही संवेदनशील, मार्मिक, पिता पुत्र के रिश्ते और उनकी भावनाओं को उकेरती फिल्म है जो स्टेज ऐप पर आई है। संदीप शर्मा के कुशल निर्देशन में बनी इस फिल्म के सभी पात्र एकदम वास्तविक से लगते हैं। इसमें एक गरीब मजदूर परिवार की व्यथा को उभारा गया है। किस प्रकार आगे चलकर यह परिवार संघर्षों और विपरीत परिस्थितियों में अपना मुकाम बनाते हैं यह भी दिखाती है। फ़िल्म अपने पहले दृश्य से ही दर्शकों को बाँधती है। फ़िल्म के शुरु में अलग-अलग दिखाए दृश्य रोचकता और उत्सुकता को बढ़ाते हैं। फ़िल्म में एक रोमांच है जो अंत तक बना रहता है। अनेक कड़ियाँ है जो अंत में जब खुलती हैं तो दर्शक हक्के बक्के रह जाते हैं।

फिल्म में कहीं-कहीं लगा है कि तकनीकी पक्ष और अधिक मजबूत हो सकता था लेकिन सीमित संसाधनों में हरियाणा में जिस प्रकार से काम हो रहे हैं उस दृष्टिकोण से देखा जाए तो इसे बेहद पुष्ट और सराहनीय कहा जा सकता है। चूंकि संदीप शर्मा बॉलीवुड में काम कर चुके हैं और हरियाणा में भी अच्छा और लगातार काम कर रहे हैं उनकी सतरंगी फिल्म काफी चर्चा में रही थी जिसे नेशनल अवार्ड भी मिला है और उसी श्रृंखला में वह आगे लगातार काम कर रहे हैं।
फिल्में में पात्रों के अभिनय की बात करें तो एक अच्छे कथानक के साथ उसके सभी पात्रों ने अपनी क्षमता के अनुसार अभिनय किया है।
सबसे ज्यादा और प्रभावित करने वाला अभिनय संदीप शर्मा का रहा है जो बेहद स्वाभाविक और वास्तविक कहा जा सकता है। एक लाचार पिता की संवेदनाओं को उन्होंने बहुत खूबसूरती से निभाया है यकीनन यह निर्देशन में जितना कमाल करते हैं उतना ही उन्होंने अभिनय में भी कमाल किया है और सबसे खास बात यह है कि वह हरेक बार अपने अभिनय से दर्शकों को और समीक्षकों को चौंका देते हैं। इस फिल्म में सबसे खास बात यह है कि पहली बार उनकी ‘गायकी’ भी सामने आई है यह स्वरूप अभी तक अनछुआ था और इस फिल्म के जरिए पहली बार दर्शकों के सामने आया है। गायकी के क्षेत्र में भी उन्होंने कमाल किया है।
कोच बने हरि ओम कौशिक अपने रोल के हिसाब से हरेक सांचे में ढल जाते हैं और अपनी जबरदस्त अभिनय क्षमता के साथ वह नित नए रूप में नजर आते हैं इससे पहले उन्होंने कांड 10 में रिपोर्टर बनकर दर्शकों की खूब वाह वाही लूटी थी।

अर्चना सुहासिनी अपने डॉक्टर के किरदार में एकदम परफेक्ट नजर आई हैं। जिस सहजता से उन्होंने अपना किरदार निभाया है और अभिनय के अनुरूप अपने किरदार में ढल गई है वह वाकई काबिले तारीफ है।
गायत्री कौशल इंस्पेक्टर की भूमिका को बहुत गरिमा पूर्ण तरीके से लेकर चली है एक पुलिसया रौब दाब, हाव भाव उनकी बॉडी लैंग्वेज से बखूबी झलकता है।
राम लक्ष्मण बने राहुल लड़वाल, रजत सोंगरा और पीड़ित लड़की मुस्कान ने भी अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया है। इस फ़िल्म के अन्य पात्र रामबीर आर्यन, राजकुमार धनखड़, नवीन, सुरेंद्र नरवाल, जयंत कटारिया,  आकाश अंदाज़ वी एम बैचेन, वीरू चौधरी, ईश्वर अशरी, अमीन बेरवाल, टाइगर बिश्नोई तथा कैलाश ने भी फ़िल्म में छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभा कर फ़िल्म की कथा को आगे बढ़ाने में अपना पर्याप्त सहयोग किया है

फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें फ़िल्म के संवाद लिखे हैं डॉ वी एम बैचेन और संदीप शर्मा ने। कहानी पटकथा और निर्देशन है संदीप शर्मा का। फ़िल्म के गीत लिखे हैं कृष्ण भारद्वाज ने जिसे संगीत से सजाया है  हरेंद्र भारद्वाज ने। फ़िल्म का बेहतरीन छायाँकन राहुल गरासिया ने किया है और इसकी निर्माता हैं पूनम देसवाल शर्मा।
बेहतरीन संगीत और गीतों से सजी फ़िल्म अंत में सुःखद अंत के साथ समाप्त होती है और अंत में बहुत ही प्यारे “नेत्र दान महादान” का सामाजिक संदेश देती है

समीक्षा:
डॉ तबस्सुम जहां



दो दिवसीय बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल संपन्न हुआ।

समीक्षा तबस्सुम जहां

मुंबई के वेदा कुनबा में 8 और 9 मार्च दो दिवसीय बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल संपन्न हुआ। बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के फाउंडर बॉलीवुड एक्टर यशपाल शर्मा और प्रतिभा शर्मा हैं जो पिछले चार साल से इस फेस्टिवल को कर रहे हैं। इस बार यह फेस्टिवल स्टेज ऐप और ओम पुरी फाउंडेशन के सयुंक्त तत्वाधान मे हुआ।शनिवार और रविवार चले इस दो दिवसीय फेस्टिवल में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय फ़िल्में दिखाई गईं। फेस्टिवल में बॉलीवुड जगत की अनेक हस्तियों पूनम ढिल्लो, पद्मिनी कोल्हापुरे, लिलीपुट, उपासना सिंह, नंदिता पुरी, ईशान पुरी, असीम बजाज, मनोज जोशी, सीमा पाहवा, दीपक पराश्रर, यशपाल शर्मा, प्रतिभा शर्मा अविनाश दास, संतोष झा, धर्मेंद्र नाथ ओझा, रवि यादव ने शिरक़त की।

फिल्मों की स्क्रीनिंग के बाद कैटेगरी को अवार्ड देने का सिलसिला शुरु हुआ। बेस्ट शॉर्ट फिल्म कैटेगरी में इंडिया से फ़िल्म ‘चौधरी साहब’ के लिए उसके डायरेक्टर ‘अमित पहल’ को दिया गया। वहीं फॉरेन कैटेगरी में यह अवार्ड हंगरी फ़िल्म ‘ब्लूम’ के लिए ज़ाल्ट वेनज़ेल ने अपने नाम किया। बेस्ट डायरेक्टर के लिए इंडिया से विग्नेश नादर को उनकी फ़िल्म ptsd के लिए अवार्ड मिला तो वहीं फॉरेन के लिए मानसी नयानेश मेहता को ऑस्ट्रेलियाई फ़िल्म ICK के लिए पुरस्कार मिला। बेस्ट एक्टर इंडिया के लिए चेतन शर्मा को उनके बेहतरीन अभिनय के लिए ‘नाचार’ फ़िल्म के लिए पुरुस्कृत किया गया तो वहीं बेस्ट एक्ट्रेस के लिए ही इंडिया से ही ज़रीना वहाब और पारुल चौहान ने जीता।
बेस्ट लॉन्ग शॉर्ट फ़िल्म इंडिया कैटेगरी में फ़िल्म ‘भूख’ ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ख़िताब जीता वहीं दूसरी ओर फॉरेन कैटेगरी में ऑस्ट्रेलिया की फ़िल्म ‘फ्रॉमक्रोनी हार्ट’ के लिए चार्ली मैंड्रक्किया ने अपने नाम किया। बेस्ट डायरेक्टर इंडिया के लिए सईकत बागबान को उनकी फ़िल्म ‘भूख’ के लिए दिया गया तो वहीं फॉरेन में यह पुरस्कार यूनाइटेड किंगडम की फ़िल्म ‘द सिल्वर लाइनिंग’ फ़िल्म के लिए उसके डायरेक्टर माईकी एल्ताफ ने अपने नाम किया।
बेस्ट एक्टर का अवार्ड शिशिर शर्मा को फ़िल्म भूख के लिए दिया गया वहीं फॉरेन में इस कैटेगरी के लिए यह अवार्ड तुर्की से अली अल्तूनेली ने ‘इन हिंडसाइट’ के लिए जीता।
बेस्ट एक्ट्रेस इंडिया कैटेगरी में शिल्पा ‘कटारिया सिंह’ को फ़िल्म भूख के लिए विजेता घोषित किया गया तथा फॉरेन कैटेगरी में ‘अरिली जॉय हवर्ड’ को फ़िल्म फ्रॉम क्रोनी हार्ट के लिए दिया गया। बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर की कैटेगरी में योगेश भारद्वाज ने फ़िल्म ‘हैंडफुल ऑफ़ लाइफ’ के लिए पुरुस्कार अपने नाम किया। बेस्ट शॉर्ट इंडिया डॉक्युमेंट्री कैटेगरी में बानी प्रकाश दास, प्रदीप गोगई को ‘फाइट फॉर राईट’ तथा फॉरेन कैटेगरी में एना बोल्मार्क को उनकी डॉक्युमेंट्री वाटर ऑफ़ कंडक्टर ऑफ़ लाइफ़ के लिए मिला।
बेस्ट लॉन्ग डॉक्यूमेंट्री इंडिया में रामनामी: द सर्च ऑफ़ लार्ड राम के लिए बालेंन्दु डी कौशिक तथा फॉरेन के लिए फ़्रांस के थैरी पॉमियर को ‘चरक पूजा’ के लिए नामांकित किया गया। बेस्ट म्युज़िक वीडियो की कैटेगरी में ‘थिरुवोनाप्पू’ के लिए अभिलाष चंद्रन और मुटियार पंजाबन के लिए ‘तारिक़’ को विजेता घोषित किया गया।
बेस्ट एनिमेशन कैटेगरी में इंडिया की एनीमेशन फ़िल्म द ‘लीजेंड ऑफ़ हनुमान’ के लिए ‘जीवन J कांग, नवीन जॉन’ को पुरस्कृत किया गया।
बेस्ट स्टूडेंट्स फ़िल्म कैटेगरी के लिए इमेजिन फायर के डायरेक्टर ‘आरव के सिन्हा’ को पुरस्कृत किया गया।
इस साल इंडिया की बेस्ट फीचर फ़िल्म का अवार्ड जीता नलिन कुलश्रेष्ठ की फ़िल्म ‘लीर’ ने तो वहीं फॉरेन से इस कैटेगरी के लिए कौमुई की जापानी फ़िल्म ‘स्पॉटलाइट’ को चुना गया। बेस्ट डायरेक्टर के लिए इंडिया से ‘चल हल्ला बोल’ के डायरेक्टर ‘महेश बनसोडे’ तथा फॉरेन से ‘ऑन माई वे’ के लिए फ्रांस के ‘थैरी ओबेदिया’ को दिया गया। बेस्ट एक्टर के लिए इंडिया से मोहित नैन को उनकी फ़िल्म ‘धड़ाम’ के लिए चुना गया। वहीं फॉरेन से ‘फिरमाइने रिचर्ड’ को फ़िल्म ‘ऑन माई वे’ के लिए चुना गया। बेस्ट इंडिया एक्ट्रेस के लिए चेतना सरसार को फ़िल्म कांड 2010 के लिए मिला। वही दूसरी ओर फॉरेन के लिए के लिए एना को टिनी ‘लिटिल वॉइसिस’ के लिए नामांकित किया गया। बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस के लिए ‘प्रगति सिंह’ को उनकी फ़िल्म धडाम के लिए के लिए चुना गया। वहीं एक्टर के लिए राम नारायण गर्ग को कांड के लिए अवार्ड दिया गया।
इस साल का फाउंडर चॉइस अवार्ड राजेश अमरलाल बब्बर को उनकी फ़िल्म तथा वैशाली भगीरथ पिल्लेवान को ‘संघर आमच्या अस्तित्वच्या’ को दिया गया।
इस साल ओमपुरी बेस्ट एक्टर का अवार्ड फ़िल्म जगत की महान विभूति मनोज जोशी को दिया गया तथा सिनेमा में अतुलनीय योगदान के लिए सीमा पाहवा जी को अवार्ड दिया गया।
अवार्ड सेरेमनी से पहले लक्ष्मी राजेश ने गणेश वंदना गा कर शुभारम्भ किया। वहीं आकाश शर्मा ने अपने गाने से फेस्टिवल में चार चाँद लगा दिए। हरियाणवी डांसर सोनिया सरताज ने हॉल में उपस्थित लोगों को थिरकने पर मजबूर कर दिया। दो दिवसीय इस फेस्टिवल का लाजवाब संचालन बिफ़्फ़ की एंकर ‘डॉ अल्पना सुहासिनी, तथा ‘मोना शाह ने किया और अवार्ड सेरेमनी के दौरान बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल की टीम को सम्मानित भी किया गया।




वेश्यावृत्ति के दलदल से निकलने को बेताब “पिंजरे की तितलियां”

समीक्षा:
डॉ तबस्सुम जहां।

पिछले बरस देश विदेश में 10 से ज़्यादा राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल में अवार्ड अपने नाम कर चुकी फ़िल्म ‘पिंजरे की तितलियाँ’ अपने बोल्ड विषय को लेकर ख़ासी चर्चा बटोर रही है। पिछले बरस संजय लीला भंसाली की सुपरहिट वेबसीरीज़ ‘हीरामंडी’ की तरह डायरेक्टर आशीष नेहरा की यह फ़िल्म भी वेश्यावृति पर आधारित है जिसमें पारंपरिक वेश्यावृति को आगे बढ़ाने की छटपटाहट दिखाई देती है।
“पिंजरे की तितलियाँ” फ़िल्म में दिखाया परिवेश हमारे मुख्यधारा समाज के लिए बेशक टैबू हो सकता है पर यह भी सत्य है कि भारत से सटे पाकिस्तान तथा बांग्लादेश बॉर्डर पर ऐसे अनेक गाँव हैं जहाँ पर कुछ परिवारों मे पीढ़ीगत वेश्यावृत्ति का काम होता है। इन्हीं परिवारों में से एक की कहानी है फ़िल्म पिंजरे की तितलियाँ।
फ़िल्म में आखिरकार पिंजरे की तितलियाँ कौन हैं, अपने पिंजरे को तोड़ने के लिए वे किस प्रकार संघर्ष करती हैं। परिवार या समाज का वे कौन सा भयावह रूप है जिसे निर्देशक लोगों को दिखाना चाहता है। क्या ये पिंजरा टूट पाता है? ऐसे अनेक प्रशन दर्शकों के दिमाग़ में कौधते हैं जिनका उत्तर उन्हें फ़िल्म देख कर मिलता है।

फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें तो फ़िल्म का निर्देशन बहुत कमाल का है। पूरी फिल्म एक ही घर मे दिखाई गई है। पात्रों की संख्या भी गिनी चुनी है। पिता खब्बी बने मोहनकान्त, अजमल बनाम युवांग निज़ाम साहब बने दिग्विजय ओहल्यान ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की भरपूर प्रशंसा प्राप्त की है। स्त्री पात्रों में रूही का किरदार निभाने वाली गीता सरोहा ने दृश्यों में जान फूंक दी है। अफ़साना का अहम किरदार निभाया है सौम्या राठी ने। रुख़सार बनी रुचिता देओल ने अपने ग़ज़ब के अभिनय से सबकी खूब तारीफ बटोरी है। इतनी कम उम्र में रुचिता का इतना गम्भीर अभिनय सिद्ध करता है कि वह एक लाजवाब अदाकारा हैं। अपनी बेहतरीन अदाकारी के लिए रुचिता को मुंबई में हुए बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड भी मिला है। पात्रों की दृष्टि से देखें तो जहाँ एक ओर पुरुष पात्र दर्शकों में घृणा पैदा करते हैं वहीं दूसरी ओर सभी स्त्री पात्र दर्शकों की भरपूर संवेदना और सहानुभूति बटोर ले जाते हैं। फ़िल्म चूंकि वेश्यावृत्ति के मुद्दे पर आधारित है पर इसका निर्देशन में बहुत कसावट है। हालांकि विषय बोल्ड होने के के कारण यह फ़िल्म खासी चर्चा में रही है। पंजाबी मिश्रित संवाद हैं। फ़िल्म में गाली गलौच की अधिकता है जो परिवेश जनित है।

फ़िल्म की कहानी की बात करें तो पूरी फिल्म रुख़सार पात्र के इर्दगिर्द घूमती है। जिसके भीतर मौजूदा व्यवस्था को लेकर घृणा है। फ़िल्म के अंत मे वह पुरुषवादी व्यवस्था से अकेले लोहा लेती है। उसको ठेंगा दिखाती हुई ज़ोर ज़ोर से हँसती है। उसके सामने निज़ाम साहब बना पुरूष समाज खुद को ठगा हुआ-सा महसूस करता है। फ़िल्म का आरंभ जिस विसंगति और बेचैनी के साथ आरंभ होता है वहीं अंत में निज़ाम साहब का अपना-सा मुँह लेकर वापस जाना दर्शकों को थोड़ा सुकून-सा दिलाता है। फ़िल्म का अंत क्या होगा यह दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। रुखसार का विद्रोही होना दिखाता है कि वह पीढ़ीगत पेशे को स्वीकार नहीं करना चाहती। वह पढ़ना चाहती है। खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वह पिता से बगावत करती है। असल में वो मौजूदा व्यवस्था से विद्रोह करती है और आगे आने वाली पीढ़ी के लिए मार्ग खोल देती है। उसे घर की छत से एक गली मुख्य सड़क तक जाती नज़र आती है यही उसके लिए आशा की किरण है। डायरेक्टर आशीष नेहरा में एक बातचीत में बताया कि फ़िल्म का विषय चाहे कितना ही बोल्ड क्यों न हो लेकिन फ़िल्म में दर्शकों को कहीं से भी अश्लीलता या नग्नता नज़र नहीं आएगी। राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अनेक पुरस्कार जीतने के बाद फ़िल्म 3 जनवरी को ‘चौपाल’ एप्स पर रिलीज़ हुई है।

फ़िल्म के संगीत पक्ष बेजोड़ है। जब बैकग्राउंड म्यूज़िक बजता है तो वह दर्शकों के अंतर्मन को चीर कर रख देता है। इस म्यूज़िक में पीड़ा है विक्षोभ है स्त्री के अंतर्मन का। फ़िल्म का संगीत दर्शकों के दिल में संत्रास और बेचैनी पैदा करता है। और यह बेचैनी असल में फ़िल्म में दिखाए गए किरदारों के दिल की बेचैनी और घुटन है जिसे निर्देशक दर्शकों के मर्म तक पहुँचाने में सफल रहा है।
इस फ़िल्म का लाजवाब संगीत दिया है हिमांशु दहिया ने। पिंजरे की तितलियां शीर्षक सांग गाया है नितेश ने और गाने के बोल दिए हैं वरुनेन्द्र त्रिवेदी ने।
फिल्म निर्माता है तरणजीत बल, राकेश नेहरा और अभिषेक श्रीवास्तव।




Jaya Bacchan- The snob is inevitably ok

They may say as they please. Call u a snob, a stoic, a conventional but u are the best Jayaji. People’s memories are so shallow and so shortlived. Little do they remember how arduous it has had been to be a BACCHAN’S WIFE. Sacrificing is not the word. A willing suspension of the yearning for the glam industry at the peak of your career, raising two children with an unparalleled wisdom of INDIAN SOLACE boldly facing every media gossip about the husband and standing true to all wifely responsibilities through the thick and thin of the BACCHAN PARIVAAR is indeed praiseworthy.. Everlastingly supporting a husband when he is a victim of both; public acclaim and accuse is not an easy achievement at all. PROUD of you. You have been the most dignified INDIAN actress ever. One can watch all your films with family is the best compliment that I think exemplifies your artless and immaculate persona as an INDIAN WOMAN ACTOR. Let them talk. They are of least importance. Indeed, a woman of your stature definitely has a reason to feel.proud of herself. And…it is NOT always important to put a fake smile in front of the media and walk the red carpet. I perfectly understand the irritation it causes. So, JAYAJI is avoiding media intervention and so justifiably indeed. If u want her to be kind, let her privacy be hers.

Those that intend to comment may use the comment box given below:




‘This is a dream come true.’

Actor AUROSIKHA DEY participated in the Cannes Film Festival, representing the film The Shameless, in which she played the character Durwa. I talked to her and wanted to know about the experiences she had gained. Here are the excerpts of that conversation.

Congratulations on representing your film “The Shameless” at the prestigious Cannes Film Festival. Could you share your experience and your movie’s reception at the festival?

When I first heard the news from my director and producer, I was numb for a fraction of a second, searching for the perfect expression. This is a dream come true; I feel ecstatic. It is an honour to represent my film on such a prestigious platform and present it to a global audience. I am both happy and humbled by this opportunity. I had a great time in Cannes. It was a privilege to meet many professionals worldwide, learn about new cultures and passions, and discuss ideas and filmmaking. The film was received extremely well at Cannes. The audience’s reaction was incredible. They appreciated both the story and my performance in the movie. I am very humbled and honoured by the response.

Please tell me about your character in “The Shameless” and how you felt working with Anusuya. 

I am thrilled to contribute to this exceptional project. My director, Konstantin Bojanov, crafted a brilliant script and meticulously outlined the character ‘Durwa’, which provided invaluable clarity for my preparation. As a primary cast member, Durwa introduces shades of grey and compels the audience to confront the conflict between conventional norms and individual will. She is aggressive and fiercely focused on securing her daily livelihood above all.

I had a great time working with Anusuya. I am thrilled and proud of the global adulation and appreciation the film and the entire team have received.

The Cannes Film Festival is known for its glamour and star-studded red-carpet events. Can you describe any memorable moments or interactions with fellow artists or industry professionals during the festival?

I was extremely excited to be on the Cannes red carpet and present my film. I was wearing a beautiful saree designed by Priyanka Raajiv. Right before walking on the red carpet, I was a bit nervous and jittery but also thrilled. There were so many photographers ready to take our pictures. I chatted with my co-actors, and they all shared the same feelings. It was my day.

As an artist, how do you view the importance of platforms like Cannes in promoting diverse and thought-provoking cinema worldwide, and what impact do you hope your film will have on audiences globally?

It’s an honour to represent my film on such a prestigious platform and present it to a global audience. I am both happy and humbled by this opportunity.

It’s a significant achievement to showcase my work on such a grand stage. As an actor, you always aspire to reach a broader audience, allowing your work to be visible and appreciated. Being able to do so on a platform like Cannes, one of the biggest film festivals in the world, not only marks a proud moment for me as an actor but also reaffirms faith and confidence in myself.

With the success of “The Shameless” at Cannes, what are your future aspirations and goals as an actor? Are there any dream roles or collaborations you’d like to pursue in the coming years?

Both the role and the story are integral parts of any project. The role has to be significant enough that one cannot imagine the story without it. It’s about the weight of the role. There are so many roles to choose from for my dream role that it is tough to select. I want to do as much work as possible with as many versatile directors in as many complex roles as possible.




India needs more of Sonu Sood and Gautam Gambhir

By Sunil Sarpal

Their names should be revered with a lot of respect and gratitude as they are the Role Models in our society. 

Both resurrect the society where Administration fails in fulfilling their duties and responsibilities towards mankind, particularly down-trodden strata of society. 

During Covid time, when migrant workers were rendered homeless and hapless, Sonu Sood came to their rescue and provided them with suitable transport so that they could reach their homes safely.  In doing so, he had to deal with a high level of dignitaries to get permission to transport them from one state to another.  He turned out the messiah for the down-trodden then.

Sonu, by profession, is an actor and plays generally the role of a villain in South movies.  But for the above cause, he turned out to be a real hero in the public eye. 

Gautam Gambhir, an ex Indian Cricketer is another live example whose heart beats for the poor and down-trodden.  He is running 4-5 outlets where free food is supplied to the poor  of society.  He claims to have no such means to provide food but earn this money by playing competitive cricket. 

Society these days has turned selfish and self-centered.  They hardly think in terms of less privileged. 

Me and mine are the buzzwords.  . 

Human being sans humanity is in the blood of today’s man.  As a result, people keep fighting for petty issues. 

God provides money to fulfill our basic necessities i.e. ROTI, KAPRA, AND MAKAN. 

What is the difference between a human being and animal if the latter consumes animal food  We are human beings and humanity should be reflective in our persona i.e. in thought, action and reaction.  If not, we need to still improve upon otherwise we remain animals in human form.  If we remain animals in human form, what kind of society we are building.  What kind of heritage we are leaving behind for our next generation to step into. 

When will we improve upon even if people like Sonu Sood and Gautam Gambhir set unprecedented examples in front of us.  If we still do not improve upon,  we are cowards and ‘C’ class citizens of society. 

Even if we are rich and people just gather around us, of what use.  One of them will stab us on our back and run away with our false pride 




“बॉलीवुड में जिन्हें आदर्श माना, उन्हीं के साथ काम करने का मौका मिला” – योगेश भारद्वाज।

योगेश भारद्वाज।

लेख: डॉ. तबस्सुम जहां

 बॉलीवुड के उभरते कलाकार योगेश भारद्वाज न सिर्फ एक सफल अभिनेता हैं बल्कि कवि और कहानीकार भी हैं।

 उनका जन्म रोहतक (हरियाणा) के एक छोटे से गाँव ‘बसाना’ में हुआ था। चूँकि उन्हें बचपन से ही भजन गाने और लिखने का शौक था, इसी शौक ने उन्हें एक बहुत बड़ी जागरण पार्टी में शामिल होने का मौका दिया। वह चार साल तक इस जागरण पार्टी से जुड़े रहे जहाँ उनके भजन बहुत लोकप्रिय हुए। बकौल योगेश, ”मैंने कभी नहीं सोचा था कि जब मैं बड़ा होऊंगा तो कला मेरा पेशा बन जाएगा। 12वीं की परीक्षा पास करने के बाद जब मैं रोहतक शहर के जाट कॉलेज में पढ़ने गया तो मुझे यूथ फेस्टिवल के बारे में पता चला। यूथ फेस्टिवल के दौरान एक नाटक के दौरान मेरी मुलाकात बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता जयदीप अहलावत से हुई। उन्होंने मेरी प्रतिभा देखकर कहा कि मैं इस क्षेत्र में अच्छा कर सकता हूं। मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ और मैंने अभिनय को अपना जीवन बनाने का फैसला किया।”

 साल 2012 में योगेश एक्टिंग की पढ़ाई करने के लिए रोहतक स्थित फिल्म इंस्टीट्यूट गए। वहाँ उन्हें समझ आया कि उनकी भूख ‘प्रसिद्धि’ की नहीं बल्कि ‘सिद्धि’ की है। वहाँ से निकलने के बाद उन्होंने तीन हरियाणवी फिल्मों में काम किया और कुछ म्यूजिक एल्बम का निर्देशन भी किया। जल्द ही उन्हें लगने लगा कि उनका कार्यक्षेत्र छोटा होता जा रहा है। उनके शब्दों में, ”संसाधन और पैसा दोनों कम पड़ रहे थे. कुछ नया सीखने और बड़ा काम करने के लिए मुझे ऐसी जगह जाना था जहाँ बड़े पैमाने पर सिनेमा बनता हो. दिसंबर 2017 के अंत में मैं सपनों के शहर मुंबई आ गया। यहाँ आने के बाद मुझे मुंबई के मशहूर कास्टिंग डायरेक्टर मिस्टर जोगी मलंग सर के साथ काम करने का मौका मिला।”

मुंबई आने के बाद योगेश भारद्वाज को काम के नये अवसर मिले। बाद में उन्हें बॉलीवुड की कुछ बेहतरीन फिल्मों में काम करने का मौका मिला। 2019 में योगेश भारद्वाज की एक के बाद एक तीन बॉलीवुड फिल्में रिलीज हुईं- ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’, ‘एस पी चौहान’, ‘सैटेलाइट शंकर’। इन फिल्मों से योगेश ने बॉलीवुड की दुनिया में अपना नाम बनाया है। फिल्म ‘छिपकली’ और ‘कॉलेज कांड’ वेब सीरीज की सफलता ने योगेश भारद्वाज को सिनेमा जगत में एक मंझे हुए कलाकार के रूप में स्थापित कर दिया है।

योगेश भारद्वाज का मानना है कि निजी तौर पर और एक अभिनेता के तौर पर उन्हें ऐसी फिल्में पसंद हैं जो भरपूर मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों को समाज की कुछ छुपी और अहम सच्चाई से भी रूबरू कराती हैं। जिसके नायक आम लोगों की जिंदगी के बारे में बात करते हैं।

फिल्म छिपकली में काम करने के बारे में योगेश कहते हैं कि वह अपने पसंदीदा अभिनेता और गुरु मशहूर बॉलीवुड अभिनेता निर्देशक यशपाल शर्मा के साथ उनकी पहली निर्देशित फिल्म दादा लखमी में काम कर रहा थे तभी एक दिन उन्होंने कहा कि आप किसी की तलाश में हैं आपको बड़ी फिल्म के बड़ी भूमिका मिलनी चाहिए। लेकिन जब कोविड काल आया तो सब कुछ बंद हो गया। ऐसे में योगेश की लेखनी ने उन्हें बचा लिया। कविताएँ और कहानियाँ लिखते रहे। कोविड के बाद दोबारा मुंबई पहुंचे। एक दिन यशपाल सर ने फोन किया और मिलने को कहा। कहा कि तुम्हें एक बड़ी फिल्म में बड़ा रोल मिल रहा है। इस तरह ‘छिपकली’ बॉलीवुड में उनकी पहली मुख्य भूमिका वाली फिल्म बन गई।’

फिल्म छिपकली में अपने किरदार के बारे में वह आगे कहते हैं कि छिपकली में उनके किरदार रुद्राक्ष नाम के एक निजी जासूस का है जो एक लेखक के घर उसकी पत्नी और बेटे की मौत का रहस्य जानने के लिए आता है। बाकी फिल्मों से छिपकली इसलिए अलग है क्योंकि अब तक हमने बहुत सारी सस्पेंस थ्रिलर सुनी और देखी हैं, लेकिन यह पहली दार्शनिक थ्रिलर है जो एक मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने के साथ-साथ कई सामाजिक मुद्दों और विज्ञान के बारे में बात करती है।

 मुंबई से जुड़े अपने संघर्ष के बारे में योगेश कहते हैं कि मुंबई आने के बाद उन्हें ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। यहाँ आते ही उन्हें काम मिलना शुरू हो गया। उनके मुताबिक, “मेरा संघर्ष बाहरी से ज्यादा आंतरिक रहा है कि मुझे अपने बाहरी काम के साथ-साथ अपनी कला के जरिए भी अपने विचार व्यक्त करने हैं, जो एक कलाकार के तौर पर मैं समाज से कहना चाहता हूं।”

 योगेश भारद्वाज के मुताबिक बॉलीवुड इस वक्त काफी विविधता के साथ काम कर रहा है। और वह हर तरह के किरदार करना चाहते हैं। इसके अलावा वह उन किरदारों को करना पसंद करेंगे जिनके होने या न होने से कहानी पर पूरा असर पड़ेगा।

 हरियाणा सिनेमा जगत के लिए मील का पत्थर साबित हुई फिल्म दादा लखमी के बारे में योगेश का मानना ​​है कि निस्संदेह दादा लखमी हरियाणा की अब तक की सबसे बड़ी और मजबूत फिल्म है। इस फिल्म ने देश के हर राज्य और विश्व मंच पर हरियाणवी संस्कृति को दर्शाया है। ये सिर्फ एक फिल्म नहीं बल्कि हरियाणवी सिनेमा की धरोहर है. अब अगर किसी को हरियाणा में विश्व स्तरीय सिनेमा बनाना है तो उसे दादा लखमी के मानकों से आगे बढ़कर काम करना होगा।

हरियाणवी सिनेमा और उसके कलाकारों के भविष्य के सवाल पर योगेश कहते हैं कि स्टेज ऐप के आने से हरियाणा के कलाकारों को अपना सिनेमा बनाने और उसे लोगों के सामने पेश करने का मंच मिला है। जो लोग मुंबई आने का सपना नहीं देखते थे और किसी कारणवश उस सपने को पूरा नहीं कर पाए उनके लिए अब अपने क्षेत्र में रहकर सिनेमा में काम करने के अधिक अवसर हैं। 

बॉलीवुड के बड़े अभिनेताओं के साथ काम करने के अपने अनुभव को साझा करते हुए योगेश भारद्वाज कहते हैं कि सभी के साथ यह एक अद्भुत अनुभव था। अभिनय की पढ़ाई के दौरान जिन कलाकारों को मैं अपना आदर्श मानता था उनके साथ काम करना एक उपलब्धि की तरह था। वे सभी दिग्गज अभिनेता हैं। उनके साथ काम करके मुझे बहुत सी नई चीजें सीखने को मिलीं और एक अभिनेता के रूप में खुद को अधिक परिपक्व महसूस किया।

 योगेश भारद्वाज एक अभिनेता के साथ-साथ एक दिलदार कवि भी हैं। अपनी लेखनी और कविता संग्रह के बारे में योगेश कहते हैं कि उन्हें बचपन से ही लिखने का शौक रहा है। पहले वह भजन और गीत लिखते थे। लेकिन मुझे नहीं पता था कि एक दिन कविताएं इतना बड़ा आकार ले लेंगी और मेरी जिंदगी का इतना बड़ा हिस्सा बन जाएंगी। मेरा पहला कविता संग्रह पिछले वर्ष “रास्ते ही मंजिल हैं” नाम से प्रकाशित हुआ है, जिसे पाठकों का भरपूर प्यार मिल रहा है।

 अंत में योगेश अपने प्रशंसकों और सिनेमा जगत में नए आए लोगों को संदेश देते हैं कि इस क्षेत्र को अपना व्यवसाय बनाने से पहले इसके बारे में सही जानकारी होना बहुत जरूरी है। यह पता लगाना जरूरी है कि क्या यह सिर्फ आपका शौक है या आप इसमें अपना सर्वश्रेष्ठ काम कर सकते हैं।

वर्ष 2023 में, योगेश की फिल्म ‘लॉस्ट’, ‘कड़क सिंह’ क्रमशः हिंदुस्तानी सिनेमा के दिग्गज अभिनेता श्री पंकज कपूर जी और यामी गौतम और पंकज त्रिपाठी जी के साथ रिलीज़ हुई। उन्होंने एक नाटक ‘अणु’ भी प्रस्तुत किया, जो उनके द्वारा ही लिखा, निर्देशित और प्रस्तुत किया गया था और इसे बड़ी सफलता मिली। उसी वर्ष उनका पहला कविता संग्रह “रास्ते ही मंजिल हैं” प्रकाशित हुआ और पाठकों ने उन्हें एक लेखक के रूप में दिल से स्वीकार कर लिया। बॉलीवुड में बतौर लीड एक्टर उनकी दूसरी फिल्म बनकर तैयार है, जिसका फिल्म फेस्टिवल्स का सफर शुरू हो चुका है। इस साल “बवाल” नाम की एक वेब सीरीज भी रिलीज होने वाली है जिसका निर्देशन राजेश अमरलाल बब्बर ने किया है।

आजकल वह अपनी पत्नी के साथ मुंबई में रहते हैं और सफलता हासिल करने के लिए अभी भी लगातार सीख रहे हैं। जल्द ही उनका एक और स्वलिखित नाटक भी रिलीज़ होने वाला है, जिसका निर्देशन और अभिनय योगेश भारद्वाज करेंगे।




Review of Merry Christmas(movie) in the light of Western Classical Music

I am a big fan of filmmaker Sriram Raghavan and after Andha Dhun the expectations were high. His recent film Merry Christmas did not fail to amuse me. It was a rapturous experience to see his film in theatre. Witty dialogs, on screen flirting, old world charm of Bombay (not Mumbai as he wrote in title roll) and a Hitchcockian drama in a Victorian set up is all I needed for a thorough entertainment. However, there is more to it if you see details and feel the film. The screenplay is doubtlessly taut with twists and turns every 15 minutes; there is God in details. The visuals of Victorian Gothic and Art Deco buildings of Mumbai added a splendour. Particularly for people who like Mumbai, this movie is a treat because Bombay seeps into it as a character. With an overtone of Christmas, the choice of cityscape cannot be better than Bombay in whole of India.

I never knew Katrina Kaif has so much left in her in terms of acting and histrionics. In Bollywood and regional films of India an actress is outdated after few years being in her peak. She is generally shown and seen as a Diva and an item number. Most of the actresses are out of business before they hit mid-life. So, in that kind of background Katrina has made a comeback and what a comeback it is!!  Her charm added to her free willy nature of the character and surprisingly her histrionics later on exhibited the violence and cruelty in that character. Vijay Setupathy made “Non-Acting” his acting style. His witty one liners, awkward dance and subtle expressions made my day. His method acting made it a superb watching experience. And I must mention Sanjay Kapoor, who, in a brief role, was hilarious.

The movie is a dark comedy, a Noir film where two lonely souls with chequered past and shades of grey cross paths on a Christmas night and gets locked forever. You may love or hate the ending but last 15 minutes was extraordinary. And now comes the role of Western Classical Music in creating and maintaining the mood of this film.

I have observed earlier in Andhadhun how beautifully Sriram Raghavan used Beethoven’s Symphony no.5 to show the jarring visuals and rapturous moments. Similarly, the background music in “Merry Christmas” was heavily influenced by Western Classical Music. For example, during the gunshot the crescendo of Grieg’s Peer Gynt Suite no 1,“In the hall of the Mountain King” superbly helped to muffle the crime. If you hear this classical music piece you will relate how the slow tempo initially is growing to a thundering crescendo eventually within few minutes. For your reference I am pasting the Youtube link below. If you see the film you can relate to what I mean.

https://www.youtube.com/watch?v=4nMUr8Rt2AI

Similarly, to add class, Maria was playing Habanera from Carmen by Bizet. Listen to the video. Ronnie was constantly saying “Oh she is a classy woman.” In India, due to a colonial hangover, anything Western means sophistication and it implies that to enjoy western classical music, Opera particularly one needs good education and sophistication, which is treasured by many. So the Habanera from Carmen is a great choice to exemplify class.

And in the end Vivaldi’s Winter played for almost 10 minutes to the perfection. Starting with the Pizzicato which exemplified the sprinkling of doubt in the police officer’s mind, it moves on to a rise in tempo and tone, where swiftly the hidden things expose fast climaxed with the exchange of ring between two souls with tormented past. There is anxiety, hope, romance, despair, magic realism and baffle in that last 5 minutes superbly portrayed by Vivaldi’s Winter. Nowhere in Bollywood I expected Vivaldi’s Winter to personify the swift changes of human behaviour amidst the movie characters. Sriram Raghavan deserves a special mention for this intelligent use of western classical music to evoke and maintain feelings in a film.

Earlier I have observed use of Western Classical Music pieces in a Satyajit Ray movie or Shyam Benegal movie. For example, Gluck’s Melodie from Orpheus and Euridicce was used in “Jana Aranya” by Ray and he also borrowed Mozart’s Symphony no 25 in Feluda theme in “Joy baba Felunath” or Mozart Symphony “Jupiter” and Requiem mass in songs of “Hirak Rajar Desh e”. Kamaleswar Mukherjee used Beethoven Symphony 5 first movement in his “Meghe dhaka tara”. Shyam Benegal films like Kalyug, Trikal or Mammo used music of Beethoven and Mozart. However, in Bollywood use of Western classical music motifs are few and far. In a refreshing take, Sriram Raghavan has used Vivaldi, Grieg and Bizet in “Merry Christmas” to reflect and set the mood.

Overall, the movie “Merry Christmas” brings a point that “Content is King” in an industry flooded with Jawaans, Pathaans and Animal. Merry Christmas is a thoroughly entertaining movie where you have to sit on the edge not to miss the details. Particularly the edgy ending was something a movie goer will remember for a long, long time. In fact, Merry Christmas opens a new year of pure filmmaking and story telling in Bollywood

_______Biswa Prasun Chatterji.




20 जनवरी होगा बिफ़्फ़ का धमाकेदार आयोजन। धरती पर चमकेंगे फ़िल्मी सितारे।

लेख: डॉ तबस्सुम जहां

बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल का चौथा आयोजन मुंबई में होने जा रहा है। हर साल की तरह इस बार भी सिनेमा जगत की अनेक बड़ी हस्तियाँ इसमें शिरक़त करेंगी। यह कार्यक्रम इस बार भी मुंबई में 20 जनवरी 2024 को वेदा कुनबा थियेटर, अँधेरी वेस्ट में होने जा रहा है। बॉलीवुड एक्टर डायरेक्टर प्रतिभा शर्मा तथा सुप्रसिद्ध एक्टर डायरेक्टर यशपाल शर्मा बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के संस्थापक व आइकॉन फेस हैं।

बता दें कि बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल की स्थापना प्रथम लॉकडाउन से पहले 2020 में हुई थी। तब से इसके लगातार तीन कामयाब सेशन हो चुके हैं। 2020-2021दो सालों से अनवरत ऑनलाइन होने वाले इस फेस्टिवल का ऑफलाइन संचालन तीसरी बार पिछले बरस 17-18 दिसंबर को मुंबई के ओशिवारा हारमनी मॉल अंधेरी में हुआ था। इसका चौथा एक दिवसीय सेशन इस बार भी 20 जनवरी 2024 को वेदा कुनबा थियेटर, अँधेरी वेस्ट मुंबई में होने जा रहा है।

बिफ़्फ़ अपने तीन बरस की कामयाब यात्रा कर चुका है। वर्तमान समय के कमर्शियल दौर में बॉलीवुड इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का एक ही उद्देश्य है कि दर्शकों तक ज़्यादा से ज़्यादा स्तरीय व बेहतरीन फ़िल्मे पहुँचाएं। फ़िल्म जगत से जुड़े नए लोग फ़िल्म जगत से जुडी बारिकियों को समझें, सीखे और इसका लाभ उठाते हुए कम संसाधनों के साथ भी अच्छी फ़िल्म निर्माण कर सके। बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल उन लोगों के लिए काम करता है जिनके पास प्रतिभा तो हैं परंतु मंच और अच्छे मार्गदर्शन का अभाव है। यह मंच नई प्रतिभाओं को आगे लाता है। फेस्टिवल मे होने वाली मास्टर क्लास से इन नई प्रतिभाओं को मार्गदर्शन मिलता है। बिफ़्फ़ मुंबई मे फ़िल्म जगत से सम्बंधित लोग अपनी फीचर फ़िल्म, शॉर्ट फ़िल्म, डॉक्यूमेंट्री, मोबाइल फ़िल्म, स्टूडेंट्स फ़िल्म, एनीमेशन फ़िल्म और म्युज़िक वीडियो इसके अलावा सिनेमा पर आधारित पुस्तके भी भेज सकते हैं। चयनित बेहतरीन फ़िल्म को वर्ष के अंत में होने वाले फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाया जाता है। बेहतरीन कैटेगरी को अवार्ड भी दिया जाता है।

बिफ़्फ़ मुंबई मंच की सशक्त हस्ताक्षर हिंदी सिनेमा तथा रंगमंच के बेहतरीन और लाजवाब एक्टर यशपाल शर्मा और उनकी पत्नी प्रतिभा शर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। लगान फ़िल्म में अपने ज़बरदस्त अभिनय का लोहा मनवाने वाले यशपाल शर्मा ने फ़िल्म यहाँ, अनवर, गुनाह, दम, वेलकम टू सज्जनपुर, गैंग्स ऑफ वासेपुर 2, गंगाजल, राउडी राठौड़, सिंह इज़ किंग सरीखी फिल्मों में अपने अभिनय का बेहतर प्रदर्शन किया वहीं दादा लख्मीचंद जैसी क्लासिकल संगीतमय फ़िल्म बना कर डायरेक्शन के क्षेत्र में भी बुलन्दी के सभी झंडे गाड़ दिए। वहीं दूसरी ओर प्रतिभा शर्मा एक्टर डायरेक्टर होने के साथ यह एक समाज सेविका के रूप में भी जानी जाती हैं जिनका ‘पहल फाउंडेशन’ आर्थिक संकट में फंसे कलाकारों की सहायता करता है। इनकी रचनाधर्मिता की बात करें तो इनकी तक़रीबन सभी छोटी बड़ी फिल्में, डॉक्यूमेंट्री तथा कविताएं व कहानी स्त्री जागरूकता व स्त्री सशक्तिकरण की बुलन्द आवाज़ हैं।

यशपाल शर्मा तथा प्रतिभा शर्मा ने बताया कि आज के कमर्शियल दौर में बॉलीवुड इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का एक ही उद्देश्य है कि दर्शकों तक ज़्यादा से ज़्यादा स्तरीय व बेहतरीन फ़िल्मे पहुँचाएं। फ़िल्म जगत से जुड़े नए लोग फ़िल्म जगत से जुडी बारिकियों को समझें, सीखे और इसका लाभ उठाते हुए कम संसाधनों के साथ भी अच्छी फ़िल्म निर्माण कर सके। बिफ़्फ़ की शुरु होने के बारे में प्रतिभा शर्मा बताती हैं कि यह फेस्टिवल बातों-बातों में शुरु हुआ था और जैसे ही बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल नाम दिमाग में आया तो इसे आनन फानन तुरंत ही रजिस्टर्ड कर लिया गया। हालांकि इसे लाने के पीछे हमारा एकमात्र उद्देश्य अच्छे सिनेमा को प्रमोट करना है। यशपाल शर्मा इसके मक़सद और उद्देश्य के संबंध में बताते हैं कि जो लोग अच्छे टैलेंटिड हैं, अच्छे कलाकार हैं अच्छे डायरेक्टर व एक्टर हैं वो लोग कई बार फेस्टिवल को लेकर इनसिक्योर महसूस करते हैं कि पता नहीं इतनी बड़ी-बड़ी फिल्में फेस्टिवल में आएंगी तो पता नहीं उनका नम्बर आएगा या नहीं। पर मैं उनको भरोसा दिलाता हूँ कि अगर उनकी फ़िल्म में दम है या उनकी एक्टिंग में दम है तो बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल उनको ज़रूर सिलेक्ट करेगा और उनको सम्मानित करेगा व उनको अवार्ड देगा।

बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल उन लोगों के लिए काम करता है जिनके पास प्रतिभा तो हैं परंतु मंच और अच्छे मार्गदर्शन का अभाव है। यह मंच नई प्रतिभाओं को आगे लाता है। फेस्टिवल मे होने वाली मास्टर क्लास से इन नई प्रतिभाओं को मार्गदर्शन मिलता है।

वर्तमान में देश विदेश में अनेक छोटे बड़े फ़िल्म फेस्टिवल हो रहे हैं अन्य फेस्टिवल से इतर बिफ़्फ़ कैसे ख़ास है या बिफ़्फ़ ने कैसे अपनी छवि बाक़ी फेस्टिवल से अलग बनाई है इस संबंध में प्रतिभा शर्मा कहती हैं कि उनकी जो ज्यूरी है वह बहुत स्पेशल है। नेशनल और इंटरनेशनल अवार्ड विनिंग ज्यूरी है। उनके शब्दों में “हम निष्पक्ष होकर सारा फैसला देते हैं। पहले हम लोग जो होम ज्यूरी हैं वो देखती हैं वो इस तरह फाईनल फैसला लेते हैं उसके बाद चयन होता है फिल्मों का। इस तरह बहुत ही ट्रांसपेरेंसी होती है। इसमे हम किसी की फ़िल्म अच्छी हो तभी अवार्ड देते हैं।” यशपाल शर्मा के अनुसार “आजकल बहुत सारे फेस्टिवल हो रहे हैं लेकिन मैंने जितने भी फेस्टिवल देखें हैं 90% फेस्टिवल उनकी मैनेजमेंट में गड़बड़ी, उनका एक अच्छा सिनेमा दिखाने में गड़बड़ी, उनका अपने दोस्तों का सिनेमा दिखाने की गड़बड़ी यानी वह केवल अपने कुछ लोगों का सिनेमा दिखाते हैं जिन्हें वह प्रमोट करना चाहते हैं। जब कोई फ़िल्म चल रही है किसी फेस्टिवल के अंदर और वह लोगों को बोरिंग लगे अच्छी न लगे, उसका मानक सही न हो यानी उसकी डिग्निटी सही न हो, फ़िल्म की क्वालिटी अच्छी न हो तो असल में हम अपने दर्शकों को तोड़ रहे होते हैं और उनको जोड़ नहीं रहे होते हैं। केवल कुछ लोगों को खुश करने के लिए दिखा रहे होते हैं।” उनके अनुसार उनके बिफ्फ में ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। वे बताते हैं कि पिछले सेशन में बहुत लोग हमारे खिलाफ़ हो गए थे कि हमारी फ़िल्म क्यों नहीं दिखाई। वह फिल्में ज्यूरी ने सिलेक्ट नहीं की थीं इसलिए नहीं दिखाई। हमें इस बात का कोई ग़म नहीं है हम अपनी क्वालिटी के तौर पर अपना फेस्टिवल आगे बढ़ाते रहेंगे और आगे चलते रहेंगे।

बिफ़्फ़ मुंबई का पिछला तीसरा आयोजन मुंबई में हुआ जो अपने आप में बेहद सफल रहा। महीनों तक देश विदेश में इस फेस्टिवल की चर्चा होती रही। खासतौर पर यह फेस्टिवल दो दिन दिखाई जाने वाली सामाजिक फिल्मों को लेकर अधिक चर्चा में रहा। प्रतिभा शर्मा बताती हैं कि बिफ़्फ़ अपने सामाजिक दायित्वों को पूरी तरह से निभा रहा है। वार्षिक फेस्टिवल के अलावा हम लेट्स टॉक के मंच पर सिनेमा जगत से जुड़े कलाकारों व सेलिब्रिटी को बुलाकर विविध विषयों पर चर्चा की जाती है । सिर्फ़ एक्टिंग ही नहीं या सिर्फ़ निर्देशन ही नहीं या फ़िर संगीत ही नहीं बल्कि फ़िल्म से जुड़े सभी पहलुओं पर। तो एक सर्वांगीण चर्चा जो इस मंच पर होती है और मेरे ख़्याल से जिस मंच पर सर्वांगीण चर्चा होती है वो स्वयं अपने आप मे एक सामाजिक दायित्व निभा रहा है। उनके कथानुसार “बिफ़्फ़ अपना सामाजिक दायित्व निभा रहा है या नहीं यह तो दर्शक तय करेंगे और दर्शकों का, लोगों का अभी तक हमें बहुत प्यार मिला है तो मेरे ख़्याल से हम लोग सही जा रहे हैं।” यशपाल शर्मा का भी मानना है कि उनके बिफ़्फ़ में इंडियन फिल्में और विदेशी फिल्में दोनों शामिल हैं चाहे वह शॉर्ट फ़िल्म हों चाहे फ़ीचर फ़िल्म हों, चाहे डॉक्यूमेंट्रीज़ हों या वेबसीरीज़ हों या बाक़ी हों तो इसलिए इसमें जो विदेशी अच्छा सिनेमा है वो हम को देखने को मिलता है। और जो हमारा अच्छा सिनेमा है वो विदेशियों को देखने को मिलता हैं। पिछले फेस्टिवल में मुझे अभी तक याद है कितनी सारी विदेशी फिल्में आई थीं जिनको देखना अपने आप में कमाल का अनुभव था। हमको एक अच्छा दर्शक भी होना है क्योंकि सिनेमा देख कर हम बहुत कुछ सीखते हैं। तो हमारे फेस्टिवल में एक मेला जैसा लगा है तीन साल। और बक़ायदा लोगों ने ख़ूब देखा है सिनेमा और तारीफ़ भी की है। सैंकड़ों मैसेज भी आए हैं। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है हमारा यही मक़सद है कि विदेशी सिनेमा भारतीयों तक पहुँचे और भारतीय सिनेमा विदेशियों तक पहुँचे बिफ़्फ़ ने दोनों जगह आशातीत सफलता पाई है।

प्रतिभा शर्मा और यशपाल शर्मा बताते हैं कि बिफ़्फ़ में लोग फीचर फ़िल्म, शॉर्ट फ़िल्म, डॉक्यूमेंट्री, मोबाइल फ़िल्म, स्टूडेंट्स फ़िल्म, एनीमेशन फ़िल्म और म्युज़िक वीडियो इसके अलावा सिनेमा पर आधारित पुस्तक भी भेज सकते हैं। चयनित बेहतरीन फ़िल्म को जनवरी में होने वाले फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाया जाएगा। इतना ही नहीं बेहतरीन कैटेगरी को अवार्ड भी दिया जाएगा।

बिफ़्फ़ फेस्टिवल सीज़न 4 जनवरी में मुंबई में होगा उसके लिए ज़ोरो शोरो से तैयारियां हो रही हैं एक ख़ास बात जो बिफ़्फ़ को अन्य फेस्टिवल से अलग करती है वो इसकी रचनाधर्मिता के प्रति लगाव है यही कारण है कि इस बार पहली बार लोगों की सिनेमा जगत विषय पर लिखने वाले लेखकों को भी फेस्टिवल में शामिल किया गया है प्रतिभा शर्मा और यशपाल शर्मा चूंकि स्वयं लेखन और साहित्य जगत में रूचि रखते हैं इसलिए फेस्टिवल में उन पुस्तकों को भी शामिल किया गया है जो सिनेमा से जुड़ी हैं। चयनित पुस्तकों को भी अवार्ड दिया जाएगा।


लेखक: डॉ तबस्सुम जहां

पुस्तक ‘दूसरी हिंदी’ मे कविताएं संकलित। इनकी प्रथम लघुकथा चौथी दुनिया समाचार पत्र में छपी। इसके बाद समय-समय पर अनेक कहानियां, लघुकथाएं, कविताएँ, पुस्तक समीक्षा, फ़िल्म समीक्षा, आलेख, आलोचनात्मक समीक्षा देश-विदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे सदभावना दर्पण, संवदिया, पुरवाई (ब्रिटेन), हम हिंदुस्तानी (अमेरिका), साहित्यकुंज (कनाडा), नेशनल एक्सप्रेस, विभोम स्वर, सामायिक सरस्वती, विश्वगाथा, आगमन, अनुस्वार, पैरोकार, आधुनिक साहित्य पत्रिका, हस्ताक्षर, जामिया हिंदी विभाग की पत्रिका ‘मुजीब’ तथा लोकस्वामी, लोकमत, मुस्लिम टुडे, यूनिवर्सल कवरेज, चौथी दुनिया, भारत भास्कर, दैनिक भास्कर, इंदौर समाचार पत्र, डेल्ही हंट, अमृतविचार, हरिभूमि, 4 pm, दैनिक जनवाणी, जनहित इंडिया, प्रातः काल समाचार पत्र, मीडिया केयर, देश रोज़ाना, उजाला, विशेष दृष्टि तथा सिटी एयर, क़ुतुब मेल, फॉलोअप, समाचार वार्ता, पार्लियामेंट स्ट्रीट, पैरोकार वार्ता के अलावा अनेक प्रतिष्ठित वेबसाइट और अनेक अखबारों में प्रकाशित हों चुकी हैं।