अपने बेटों के अँधेरे जीवन में रंग भरते पिता का संघर्ष है फ़िल्म- रंगीली

अपने बेटों के अँधेरे जीवन में रंग भरते पिता का संघर्ष है फ़िल्म- रंगीली

समीक्षा:
डॉ तबस्सुम जहां

अभी हाल ही मे स्टेज ऐप पर रिलीज़ फ़िल्म ‘रंगीली’ बहुत चर्चा मे रही। रंगीली शब्द आते ही हमारे मन मे अनेक रंग बिरंगे रंगो की छवि बनने लगती है। रंगो की एक भरी पूरी दुनिया। लेकिन एक ऐसे पिता जिनकी पत्नी के जाने के बाद उनके दोनों बेटो के जीवन से रंग ही ख़त्म हो जाएँ तो ऐसे पिता का जीवन भी भयंकर अंधकार मे घिर जाता है। ऐसे में एक पिता अपने बेटों के जीवन मे रंग भरने का हर संभव प्रयास करता है और अंत मे सफल होता हैं। इसके लिए वो क्या क्या जतन करते हैं और उनके बेटों के जीवन मे अँधेरा क्यों हो जाता है। कुछ ऐसे ही परिदृश्य मे रचा बुना गया है रंगीली फ़िल्म का ताना बाना।

रंगीली’ फ़िल्म ग़रीब पिता बने संदीप शर्मा के इर्द-गिर्द घूमती है।

कहते हैं जवान बेटे बुढ़ापे में पिता की लाठी बनते है लेकिन इस फ़िल्म में एक पिता के परिवार में उसके बेटों राम लक्ष्मण के साथ कुछ ऐसा हादसा हो जाता है कि उसे अपने दोनों बेटों की लाठी बनना पड़ता है। सिर्फ़ कुछ समय के लिए ही नहीं बल्कि आजीवन। पिता केवल लाठी ही नहीं बनता बल्कि उनके जीने का सहारा, उनका हौसला उनकी शक्ति बनता है। जिससे प्रेरणा लेकर उसके दोनों बेटे वो कार्य कर दिखाते हैं जिससे न केवल बाप का सिर सम्मान और गर्व से ऊँचा हो जाता है बल्कि समाज मे एक बेहतरीन सन्देश भी पहुँचता है। शायद यही संदेश इस फ़िल्म की मूल भावना भी है।

‘रंगीली’ फ़िल्म ग़रीब पिता बने संदीप शर्मा के इर्द-गिर्द घूमती है। जिनकी पत्नी गुज़र चुकी है और दो जवान बेटे राम लक्ष्मण उनके जीवन का आधार है। जिनके लिए वह जीते मरते है। एक लड़की की इज़्ज़त बचाते समय उनके दोनों बेटों के साथ एक भयंकर हादसा हो जाता है जिससे वह अंदर से बुरी तरह टूट कर भी उनके सामने मज़बूत बने रहते है। वह अकेले में भयंकर रुदन और चीत्कार करते है लेकिन किसी के सामने अपनी पीड़ा को सामने नहीं आने देते। एक गहरा अंधकार उनको घेर लेता है जिसे चीर कर वह बेटों के जीवन में रोशनी लाते है। एक पिता की बेबसी, लाचारी और संवेदनशीलता, मार्मिकता को संदीप शर्मा ने बहुत ही जीवंतता के साथ निभाया है। बेटों को सिखाना, उन्हें हँसाने के लिए कोशिश करना, अंत में पैराओलम्पिक में जाने के लिए हुई ट्रेनिंग आदि ऐसे अनेक दृश्य है जो भावुक कर जाते हैं।

रंगीली एक बहुत ही प्यारी, बहुत ही संवेदनशील, मार्मिक, पिता पुत्र के रिश्ते और उनकी भावनाओं को उकेरती फिल्म है जो स्टेज ऐप पर आई है। संदीप शर्मा के कुशल निर्देशन में बनी इस फिल्म के सभी पात्र एकदम वास्तविक से लगते हैं। इसमें एक गरीब मजदूर परिवार की व्यथा को उभारा गया है। किस प्रकार आगे चलकर यह परिवार संघर्षों और विपरीत परिस्थितियों में अपना मुकाम बनाते हैं यह भी दिखाती है। फ़िल्म अपने पहले दृश्य से ही दर्शकों को बाँधती है। फ़िल्म के शुरु में अलग-अलग दिखाए दृश्य रोचकता और उत्सुकता को बढ़ाते हैं। फ़िल्म में एक रोमांच है जो अंत तक बना रहता है। अनेक कड़ियाँ है जो अंत में जब खुलती हैं तो दर्शक हक्के बक्के रह जाते हैं।

फिल्म में कहीं-कहीं लगा है कि तकनीकी पक्ष और अधिक मजबूत हो सकता था लेकिन सीमित संसाधनों में हरियाणा में जिस प्रकार से काम हो रहे हैं उस दृष्टिकोण से देखा जाए तो इसे बेहद पुष्ट और सराहनीय कहा जा सकता है। चूंकि संदीप शर्मा बॉलीवुड में काम कर चुके हैं और हरियाणा में भी अच्छा और लगातार काम कर रहे हैं उनकी सतरंगी फिल्म काफी चर्चा में रही थी जिसे नेशनल अवार्ड भी मिला है और उसी श्रृंखला में वह आगे लगातार काम कर रहे हैं।
फिल्में में पात्रों के अभिनय की बात करें तो एक अच्छे कथानक के साथ उसके सभी पात्रों ने अपनी क्षमता के अनुसार अभिनय किया है।
सबसे ज्यादा और प्रभावित करने वाला अभिनय संदीप शर्मा का रहा है जो बेहद स्वाभाविक और वास्तविक कहा जा सकता है। एक लाचार पिता की संवेदनाओं को उन्होंने बहुत खूबसूरती से निभाया है यकीनन यह निर्देशन में जितना कमाल करते हैं उतना ही उन्होंने अभिनय में भी कमाल किया है और सबसे खास बात यह है कि वह हरेक बार अपने अभिनय से दर्शकों को और समीक्षकों को चौंका देते हैं। इस फिल्म में सबसे खास बात यह है कि पहली बार उनकी ‘गायकी’ भी सामने आई है यह स्वरूप अभी तक अनछुआ था और इस फिल्म के जरिए पहली बार दर्शकों के सामने आया है। गायकी के क्षेत्र में भी उन्होंने कमाल किया है।
कोच बने हरि ओम कौशिक अपने रोल के हिसाब से हरेक सांचे में ढल जाते हैं और अपनी जबरदस्त अभिनय क्षमता के साथ वह नित नए रूप में नजर आते हैं इससे पहले उन्होंने कांड 10 में रिपोर्टर बनकर दर्शकों की खूब वाह वाही लूटी थी।

अर्चना सुहासिनी अपने डॉक्टर के किरदार में एकदम परफेक्ट नजर आई हैं। जिस सहजता से उन्होंने अपना किरदार निभाया है और अभिनय के अनुरूप अपने किरदार में ढल गई है वह वाकई काबिले तारीफ है।
गायत्री कौशल इंस्पेक्टर की भूमिका को बहुत गरिमा पूर्ण तरीके से लेकर चली है एक पुलिसया रौब दाब, हाव भाव उनकी बॉडी लैंग्वेज से बखूबी झलकता है।
राम लक्ष्मण बने राहुल लड़वाल, रजत सोंगरा और पीड़ित लड़की मुस्कान ने भी अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया है। इस फ़िल्म के अन्य पात्र रामबीर आर्यन, राजकुमार धनखड़, नवीन, सुरेंद्र नरवाल, जयंत कटारिया,  आकाश अंदाज़ वी एम बैचेन, वीरू चौधरी, ईश्वर अशरी, अमीन बेरवाल, टाइगर बिश्नोई तथा कैलाश ने भी फ़िल्म में छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभा कर फ़िल्म की कथा को आगे बढ़ाने में अपना पर्याप्त सहयोग किया है

फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें फ़िल्म के संवाद लिखे हैं डॉ वी एम बैचेन और संदीप शर्मा ने। कहानी पटकथा और निर्देशन है संदीप शर्मा का। फ़िल्म के गीत लिखे हैं कृष्ण भारद्वाज ने जिसे संगीत से सजाया है  हरेंद्र भारद्वाज ने। फ़िल्म का बेहतरीन छायाँकन राहुल गरासिया ने किया है और इसकी निर्माता हैं पूनम देसवाल शर्मा।
बेहतरीन संगीत और गीतों से सजी फ़िल्म अंत में सुःखद अंत के साथ समाप्त होती है और अंत में बहुत ही प्यारे “नेत्र दान महादान” का सामाजिक संदेश देती है

समीक्षा:
डॉ तबस्सुम जहां



सेना – गार्जियंस ऑफ़ द नेशन : सैन्य जज़्बे व पिता पुत्र के मार्मिक रिश्ते को दिखाती लाजवाब वेबसीरीज़

लेख: डॉ अल्पना सुहासिनी

इस बार हमने आज़ादी का जश्न मनाया बहुचर्चित वेब सीरीज; “सेना – गार्जियंस ऑफ़ द नेशन” देखकर।

इस पावन पर्व पर यदि देशभक्तिपूर्ण वेब सीरीज देखने को मिल जाए तो क्या ही बात है। अमेज़न एमएक्स प्लेयर पर आई वेब सीरीज़, “सेना – गार्जियंस ऑफ़ द नेशन”  बहुत ही शानदार, दमदार, मार्मिक, संवेदनशील वेब सीरीज है। एक भावुक और प्रेरणादायक सीरीज़ है, जिसमें देशभक्ति, परिवार और व्यक्तिगत बलिदान को सजीवता से पेश किया गया है। यदि आप प्रेरणादायक सैन्य-ड्रामा ढूँढ रहे हैं जो भावनात्मक रूप से प्रभावी हो — तो यह आपकी सूची में शीर्ष पर जगह बना सकती है।
“IIT के बाद हमने लोगों को बैंक में नौकरी करते देखा है। राइटर बनते देखा है। कॉमेडियन बनते देखा है। स्‍टार्टअप बिजनस शुरू करते देखा है। लेकिन क्‍या किसी ने IIT करके आर्मी जॉइन किया है?” कार्तिक शर्मा से उसके पिता का ये सवाल वर्तमान के उन सब पिताओं का सवाल है जो अपने बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर तो बनते देखना चाहते हैं लेकिन सेना में भेजने का साहस नहीं कर पाते।  उस पिता का ये कहना कि यदि उसे सेना में भर्ती होना है, तो वर्दी और पर‍िवार में से किसी एक को चुनना होगा।”, अपने इकलौते बच्चे को खो देने से आशंकित पिता के दर्द की अभिव्यक्ति है। साहस, बलिदान और अनकहे बंधनों की एक दिलचस्प कहानी का मिश्रण है यह वेब सीरीज। । द वायरल फीवर द्वारा निर्मित और अभिनव आनंद द्वारा निर्देशित, यह थ्रिलर वेब सीरीज़ आनंदेश्वर द्विवेदी द्वारा लिखित है। इसमें विक्रम सिंह चौहान, श्री यशपाल शर्मा जी ,शर्ली सेतिया, राहुल तिवारी, विजय विक्रम सिंह, अनुपम भट्टाचार्य, नीलू डोगरा जैसे कलाकार शामिल हैं।
यह वेब सीरीज दर्शकों को कार्तिक शर्मा  नामक ऊर्जावान युवा की एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जहाँ वह कैलिफ़ोर्निया में एक शानदार करियर छोड़कर सैनिक बनना पसंद करता है लेकिन उसका यही फैसला उसके पिता के साथ टकराव का कारण बनता है। पिता और पुत्र संबंधों की यह सीरीज़ सशस्त्र सेना अकादमी की कठिन चयन प्रक्रिया बहुत बारीकी से सामने रखती है। सभी दृश्य बहुत वास्तविक बन पड़े हैं। तमाम विरोधों के बावजूद इन कठिन परीक्षाओं को सफलतापूर्वक पास करने के बाद, कार्तिक को कश्मीर के अस्थिर और अप्रत्याशित क्षेत्र में तैनात किया जाता है। हालाँकि, सीरीज में एक अप्रत्याशित मोड़ तब आता है  जब उसे आतंकवादियों द्वारा पकड़ लिया जाता है।  कार्तिक का किरदार एक दोहरी लड़ाई का सामना करता है जो न केवल उसके अपहरणकर्ताओं के खिलाफ है बल्कि भावनात्मक लड़ाई भी है जो वर्षों की चुप्पी ने उसके और उसके पिता के बीच पैदा कर दी है।
इस वेब सिरीज की सबसे बड़ी खासियत पिता और पुत्र के भावात्मक द्वंद और स्नेह के अटूट विश्वास की डोर की कहानी होना है। सीरीज में सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है पिता और पुत्र का रिश्ता। यशपाल शर्मा जी और विक्रम सिंह चौहान ने इस रिश्ते को नई ऊंचाइयां दी हैं।

अभिनय की दृष्टि से अगर देखें तो वाकई सलाम है यशपाल शर्मा जी को जिन्होने एक पिता की बेबसी, टूटन, भय, आत्मीयता, भोलेपन को इस शिद्दत से जिया है कि वे बस पिता (दीनदयाल शर्मा) ही नज़र आते हैं। एक जगह वे कहते हैं,”सैनिक बनना आसान नहीं है बेटा, लेकिन एक बार वर्दी पहन ली… तो फिर डर और थकान के लिए कोई जगह नहीं बचती।” अभी तक अधिकांश फिल्मों में जिस तरह यशपाल जी ने विलेन की भूमिकाओं को सशक्तता से निभाया है उससे इतर इस वेब सीरीज में एक पिता के मार्मिक किरदार को इतने शीर्ष तक लेकर गए हैं कि आंखों से आंसू अनवरत बहते रहते हैं, यशपाल जी को यूं ही “poet of acting”, नहीं कहा जाता ये  वो अपने सर्वश्रेष्ठ अभिनय से समय समय पर साबित करते रहे हैं। उन्होंने दीनदयाल के किरदार को ऐसी जीवंतता और ऊंचाई दे दी है कि हम स्तब्ध रह जाते हैं। एक जगह अपने पुत्र को अपना लिखा पत्र देते हुए जिस मासूमियत से वे शर्माते हुए हंसते हैं शानदार दृश्य बन पड़ा है, क्योंकि आज भी भारतीय पिता अपने बच्चों से खुलकर अपने स्नेह को अभिव्यक्त नहीं कर पाते, एक अन्य स्थान पर जब पिता पुत्र दोनों को कैदी बना लिया जाता है पुत्र घिसटकर अपने पिता के कांधे पर सर रखता है और दोनों बिना कुछ बोले एक दूसरे से जो ऊर्जा लेते हैं वह दृश्य अभूतपूर्व है।
यशपाल जी के अलावा कार्तिक के किरदार में विक्रम सिंह चौहान ने भी अपने अभिनय की जीवंतता से चौंका दिया। वर्तमान पीढी का ऐसा युवा जो इंजीनियरिंग के क्षेत्र में ही नहीं वरन अपने साहस और जांबाजी के चलते आर्मी में जिस सशक्तता से खुद को साबित करता है वह सभी युवाओं का आदर्श बन जाता है। विक्रम जी ने अपने किरदार को इतनी ईमानदारी और मेहनत से जिया है की दिल जीत लिया। साथ ही दीनदयाल की की पत्नी बनीं नीलू डोगरा की अभिनय की सहजता दिल छू लेती है। हमजा के किरदार में राहुल तिवारी जी ने कमाल काम किया है उनके किरदार में ग्रे शेड अंत तक पता नहीं चलने देती कि वास्तविकता में वे क्या हैं।
इस शो की खासियत इसमें वास्तविक सेना के दिग्गजों का भी शामिल किया जाना हैं। वेब सीरीज के कई दृश्य इतने कमाल बने हैं कि लंबे समय तक ज़हन में बस जाते हैं, एक दृश्य में जब भागते समय पिता घायल हो जाते हैं। कार्तिक उन्हें अपनी पीठ पर उठाकर चलता है।,यह पल दर्शकों के लिए सबसे भावुक क्षणों में से एक है ऐसे दृश्य सिहरन पैदा करते हैं आंसू रोके नहीं रुकते। पूरी वेब सीरीज भावनाओं का ऐसा उद्वेलन पैदा करती है कि अंत तक हम उन्हीं भावों में डूबते उतराते हैं। 
यह वेब सीरीज राजनैतिक हथकंडों पर भी कई सवालिया निशान लगाती है हमजा का ये कहना कि हम तो बस सरकारों के मोहरे हैं, कहीं न कहीं राजनैतिक हक़ीक़त की ओर इशारा करता है। यह वेब सीरीज इसलिए भी देखी और दिखाई जानी जरुरी है कि वर्तमान की आरामतलब ज़िंदगी के शौकीन युवा जिस तरह आर्मी की ओर से विमुख हो रहे हैं उन्हें सीरीज़ यह दिखाती है कि जब भी राष्ट्र पुकारे, युवाओं को आगे बढ़कर योगदान देना चाहिए , चाहे सेना में हों या किसी अन्य क्षेत्र में।
यह संदेश है कि देशभक्ति सिर्फ़ नारों से नहीं, कर्मों से झलकती है।” सिरीज में माखनलाल चतुर्वेदी आदि कवियों की कविताओं के उद्धरण इसे और संवेदनशील बनाते हैं,  इसके अलावा परिवारिक रिश्तों की अहमियत, साहस और धैर्य, स्वच्छ और सकारात्मक दृष्टि का संदेश भी यह सीरीज देती है। बेहद कसावटपूर्ण निर्देशन, शानदार वीडियोग्राफी, सटीक संवाद, शानदार अभिनय सब मिलकर वेब सीरीज को पुष्टता देते हैं। ये कहा जा सकता है कि वेब सीरीज की दुनिया का मास्टर पीस है यह वेब सीरीज। यह सीरीज़ सिर्फ़ एक आर्मी ड्रामा नहीं, बल्कि परिवार और देश दोनों के लिए समर्पण की कहानी है। इसलिए चूके नहीं, ज़रूर देखें।

लेख: डॉ अल्पना सुहासिनी




Blood On The Crown – a film from Malta and its Historical synergy with Indian History

Film Review: Blood on the Crown
Directed by Davide Ferrario | Starring Harvey Keitel, Malcolm McDowell, Tom Prior

Blood on the Crown (originally titled Just Noise) is a historical drama that brings to screen one of the most pivotal yet underrepresented events in Malta’s history—the Sette Giugno (June 7) uprising of 1919. With an international cast and a subject deeply rooted in national identity, the film aims to spotlight a moment of civil unrest that marked the Maltese people’s resistance to British colonial rule.

Historical Context

The film recounts the events surrounding June 7, 1919, when British troops opened fire on unarmed Maltese civilians protesting inflation, food shortages, and political marginalization under colonial administration. The uprising resulted in the deaths of four Maltese citizens and galvanized the movement for greater self-governance, which would eventually lead to Malta’s independence decades later. It was presented by Reuben Gauci, High Commissioner of Malta in India on 1st May, 2025 to celebrate 60 years of Malta-India diplomatic relations and also to mark 106 years of Jallianwala Bagh massacre and the June 7 uprising in Malta, parallel events from the contemporary history of the two countries.

Story and Execution

Blood on the Crown attempts to balance dramatic storytelling with historical accuracy. The narrative alternates between perspectives—those of local protestors, British administrators, and foreign journalists—giving viewers a panoramic sense of the tensions on the island. Tom Prior plays a young journalist who uncovers the human cost of colonial suppression, while screen veterans Harvey Keitel and Malcolm McDowell lend weight to the roles of the high-ranking officials caught between imperial duty and conscience.

The film succeeds in portraying the injustice and brutality of colonial authority, especially in scenes depicting the shooting of protestors and the desperate attempts of civilians to assert their dignity. However, some aspects of the script feel overly expository, and at times the emotional resonance is undercut by uneven pacing and production constraints.

Visuals and Atmosphere

Shot on location in Malta, the film leverages its historical setting beautifully. Narrow streets, baroque architecture, and sunlit piazzas add authenticity to the period setting. The cinematography is evocative, though the limited budget occasionally shows in crowd scenes and action sequences that could have benefited from more scale or realism.

Cultural Impact

For a Maltese audience, Blood on the Crown is more than just a film—it’s a cinematic reckoning with national trauma and pride. By dramatizing a moment often relegated to textbooks, the film contributes to a broader international awareness of Malta’s struggle for sovereignty and the sacrifices made along the way.

Verdict

While not without its flaws, Blood on the Crown is a bold and important film that sheds light on a forgotten chapter of colonial resistance. It serves as a tribute to those who stood up against oppression and is a meaningful addition to the limited canon of Maltese historical cinema.

Rating: 3.5/5




घर की बात’ वेबसीरीज़।

समीक्षा तबस्सुम जहां

‘घर की बात’ वेबसीरीज़। भरपूर मनोरंजन के साथ हरियाणवी सिनेमा में पहली बार हरियाणवी अर्बन का पदार्पण।
डॉ तबस्सुम जहां

जब भी हम हरियाणवी फिल्मों या वेब सीरीज की बात करते हैं तो हमारे सामने सबसे पहले ग्रामीण कल्चर आँखों के सामने घूम जाता है गाँव खेत खलिहान, हुक्का, पगड़ी, खाप पंचायत आदि। लेकिन वर्तमान समय मे हरियाणवी संस्कृति के नाम पर केवल गाँव का चूल्हा चौका, गाय भैंस, पंचायत आदि दिखाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि आधे से ज्यादा हरियाणा ऐसा भी है जो बेहद शिक्षित, संभ्रांत शहरी परिवेश मे बसा हुआ है पर सिनेमाई जगत में अक़्सर शहरी हरियाणा को अनदेखा कर दिया जाता है। शहरी यानी अर्बन हरियाणा को दिखाने का शुरूआती प्रयास डायरेक्टर आशीष नेहरा ने अपनी वेबसीरीज़ ‘घर की बात’ में बखूबी किया है। इस वेबसीरीज़ में पहली बार अर्बन हरियाणा की हाईप्रोफाइल सोसायटी के विभिन्न पहलुओं को दर्शकों के सामने रखा गया है। सबसे ख़ास बात यह कि ‘घर की बात’ अर्बन हरियाणवी सीरीज़ को हरियाणा के गुरुग्राम स्थित प्रोडक्शन हाउस रेन्वॉयर फिल्म्स ने बनाया है, जिसके कर्ता-धर्ता हितेश दुआ हैं, जो सुपवा से पासआउट हैं।
एक तरह से इसे डायरेक्टर आशीष नेहरा और क्रियेटर हितेश दुआ का एक नवीन प्रयोग कहा जा सकता है वो भी हास्य से भरपूर चार एपिसोड में आप परत दर परत इसके किरदारों और उनकी दुनिया से रूबरू होते हैं ।
वेबसीरीज़ ‘घर की बात’ का पहला दृश्य है घर में पूजा है दोनों ओर से मेहमान आने वाले हैं लेकिन कुछ भी व्यवस्थित नहीं है। हवन के दौरान परिवार में अनेक विसंगतियाँ पैदा होती है जिससे वेबसीरीज़ में हास्य का पुट पैदा होता है।
यह वेबसीरीज़ बताता है कि अगर आप ऑनलाइन शॉपिंग कर रहे हैं तो ज़िंदगी आपके लिए बहुत आसान और सरल है। वेबसीरीज़ में मीशो शॉपिंग एप की खासियत बता कर ऑनलाइन सुविधाओं के बारे में बताया गया है। स्टेज एप और मीशो मिलकर पहली बार दर्शकों के लिए कुछ नया पेश करने में कामयाब नजर आती आते हैं।
दूसरी ख़ास बात जो इस वेबसीरीज़ में दिखाई देती है कि अपने पूर्ववत सिनेमा से इतर इस वेबसीरीज़ में महिला आत्मसम्मान, महिला आर्थिक सशक्तिकरण और परिवार में महिला की भागीदारी और उसकी भूमिका को भी स्वीकार किया गया है। न केवल इसके पुरुष पात्र महिला दिवस की पार्टी देकर अपनी बीवीओ को ख़ुश करते हैं बल्कि इसमें नायक बने जे पी की बॉस एक महिला है जिसे निभाया है उर्वशी धीमन ने जो पहली बार परदे पर आई है मगर कमाल नजर आती है। योगा टीचर भी एक महिला ही बनी है अनाहीता अमानी सिंह जो सुपवा के निर्देशन विभाग से निकल अभिनय में अपनी छाप छोड़ती हैं ।
संदीप शर्मा अपनी ऑनलाइन होने वाली क्लास में भी महिला और घर में उसकी अहम भूमिका पर अपना लेक्चर देते हैं।
फ़िल्म में चूंकि नायक जे पी के माता पिता गाँव से और नायिका के शहर से हैं इसलिए एक जगह शहर बनाम गाँव पर तीखी चर्चा होती है। यह दृश्य फ़िल्म को बहुत रोचक बनाता है।
वेबसीरीज़ के अंत में सोसायटी में समधी बनाम समधी की रेस का आयोजन होता है। उसकी तैयारी के लिए दोनों ओर से अनेक उपक्रम किए जाते हैं इस रेस को गाँव बनाम शहर कहना ग़लत नहीं होगा लेकिन अंत में जीत न तो गाँव की होती है और न ही शहर की बल्कि इससे इतर दोनों ही ओर से रिश्ते और पारिवारिक मूल्य जीत जाते हैं। वेबसीरीज़ का यह बहुत प्यारा सा महत्वपूर्ण मैसेज अंत में डायरेक्टर आशीष नेहरा दर्शकों तक पहुँचाने में सफल हो गए हैं। अंत का दृश्य बहुत ही भावुक कर देता है।

फ़िल्म के पात्रों की बात करें तो नवीन ओहल्यान जी ने कमाल की एक्टिंग की है ह्यूमर क्रियेट करने में वो बहुत सफल रहे हैं। इनकी वाईफ़ बनी स्वीटी मलिक ने भी अपने किरदार के हिसाब से अच्छा काम किया है। संदीप शर्मा जी ने शिक्षित शहरी हरियाणवी किरदार में ज़बरदस्त अभिनय किया है। वेबसीरीज़ के अंत में उनका किरदार दर्शकों की तालियां बटोर ले जाता है। संदीप शर्मा की पत्नी बनी गायत्री कौशल ने फ़िल्म के किरदार के अनुसार जितना अभिनय किया है उसमें जान फूँक दी है। मोहित नैन और स्नेहा तोमर ने भी पति पत्नी का किरदार बखूबी निभाया है। इन मुख्य किरदारों के अलावा अनिल कुमार ढाढा जी के रूप में खूब गुदगुदाते हैं, विशाल कुमार ने दर्जी के रोल में प्रवासी पंछी का दर्द बताया और हास्य में व्यंग कमाल का दिया, जितेंद्र गौड़ ने पंडित के रोल में जो समा बांधा वाकई काबिलेतारीफ है , योगेश्वर सिंह और सतीश नांदल ने भी अच्छा काम किया है। कुल मिलाकर सभी छोटे बड़े कलाकारों ने अपने किरदार और अभिनय के साथ भरपूर न्याय किया है।

कहा जा सकता है की ‘घर की बात’ वेबसीरीज़ में कहानी और उसके विषय को बहुत ही हल्के फुल्के अंदाज़ में पेश किया गया है। फ़िल्म के आरम्भ में जितेंद्र गौड़ पंडित जी और नवीन ओहल्यान के संवाद दृश्य को रोचक बनाते हैं। संवाद विषय और पात्रों व उसके किरदारों के अनुरूप हैं। छोटे चुटिले संवादों से हास्य का पुट झलकता है। जिनमें पर्याप्त कसावट है। जितेंद्र राठी की कास्ट्यूम भी बेहद कमाल की है।
दक्षिणा में खड़ाऊ देते वक्त नवीन जी पंडित जी से कहते हैं – “यो तो है तू भगवान का दास, और पहनना चाहे एडीडास।” इस तरह के गुदगुदाने वाले चुटीले संवाद और कई सीन है जो आपको बांध कर रखते हैं
फोटोग्राफर शुभम सैनी ने वेबसीरीज़ में कमाल की फोटोग्राफी की है। आशीष नेहरा का निर्देशन लाजवाब है, यकीन नहीं होता पिंजरे की तितलियाँ जैसी गंभीर फिल्म बनाने वाले आशीष नेहरा एक ही घर में हँसी का गुलदस्ता यूँ सजाकर पेश करेंगे । कुल मिलाकर यह वेबसीरीज़ न केवल दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है अपितु अंत में एक बहुत प्यारा सा मैसेज भी देती है। इस लाजवाब वेबसीरीज़ के डायरेक्टर हैं आशीष नेहरा और क्रियेटर हैं हितेश दुआ।
हितेश दुआ ने एक जिम्मेवार क्रीऐटर के रूप में हरियाणा को उसकी पहली अर्बन सीरीज दे दी है और उम्मीद है आगे भविष्य में यह टीम नए नए प्रयोग करती नजर आएगी | इस वेबसीरीज को लिखा है निमित फोगाट ने और एडिट किया है हितेश दुआ और रोहित शर्मा ने , साउन्ड दिया है गौरव गिल ने |




दो दिवसीय बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल संपन्न हुआ।

समीक्षा तबस्सुम जहां

मुंबई के वेदा कुनबा में 8 और 9 मार्च दो दिवसीय बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल संपन्न हुआ। बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के फाउंडर बॉलीवुड एक्टर यशपाल शर्मा और प्रतिभा शर्मा हैं जो पिछले चार साल से इस फेस्टिवल को कर रहे हैं। इस बार यह फेस्टिवल स्टेज ऐप और ओम पुरी फाउंडेशन के सयुंक्त तत्वाधान मे हुआ।शनिवार और रविवार चले इस दो दिवसीय फेस्टिवल में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय फ़िल्में दिखाई गईं। फेस्टिवल में बॉलीवुड जगत की अनेक हस्तियों पूनम ढिल्लो, पद्मिनी कोल्हापुरे, लिलीपुट, उपासना सिंह, नंदिता पुरी, ईशान पुरी, असीम बजाज, मनोज जोशी, सीमा पाहवा, दीपक पराश्रर, यशपाल शर्मा, प्रतिभा शर्मा अविनाश दास, संतोष झा, धर्मेंद्र नाथ ओझा, रवि यादव ने शिरक़त की।

फिल्मों की स्क्रीनिंग के बाद कैटेगरी को अवार्ड देने का सिलसिला शुरु हुआ। बेस्ट शॉर्ट फिल्म कैटेगरी में इंडिया से फ़िल्म ‘चौधरी साहब’ के लिए उसके डायरेक्टर ‘अमित पहल’ को दिया गया। वहीं फॉरेन कैटेगरी में यह अवार्ड हंगरी फ़िल्म ‘ब्लूम’ के लिए ज़ाल्ट वेनज़ेल ने अपने नाम किया। बेस्ट डायरेक्टर के लिए इंडिया से विग्नेश नादर को उनकी फ़िल्म ptsd के लिए अवार्ड मिला तो वहीं फॉरेन के लिए मानसी नयानेश मेहता को ऑस्ट्रेलियाई फ़िल्म ICK के लिए पुरस्कार मिला। बेस्ट एक्टर इंडिया के लिए चेतन शर्मा को उनके बेहतरीन अभिनय के लिए ‘नाचार’ फ़िल्म के लिए पुरुस्कृत किया गया तो वहीं बेस्ट एक्ट्रेस के लिए ही इंडिया से ही ज़रीना वहाब और पारुल चौहान ने जीता।
बेस्ट लॉन्ग शॉर्ट फ़िल्म इंडिया कैटेगरी में फ़िल्म ‘भूख’ ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ख़िताब जीता वहीं दूसरी ओर फॉरेन कैटेगरी में ऑस्ट्रेलिया की फ़िल्म ‘फ्रॉमक्रोनी हार्ट’ के लिए चार्ली मैंड्रक्किया ने अपने नाम किया। बेस्ट डायरेक्टर इंडिया के लिए सईकत बागबान को उनकी फ़िल्म ‘भूख’ के लिए दिया गया तो वहीं फॉरेन में यह पुरस्कार यूनाइटेड किंगडम की फ़िल्म ‘द सिल्वर लाइनिंग’ फ़िल्म के लिए उसके डायरेक्टर माईकी एल्ताफ ने अपने नाम किया।
बेस्ट एक्टर का अवार्ड शिशिर शर्मा को फ़िल्म भूख के लिए दिया गया वहीं फॉरेन में इस कैटेगरी के लिए यह अवार्ड तुर्की से अली अल्तूनेली ने ‘इन हिंडसाइट’ के लिए जीता।
बेस्ट एक्ट्रेस इंडिया कैटेगरी में शिल्पा ‘कटारिया सिंह’ को फ़िल्म भूख के लिए विजेता घोषित किया गया तथा फॉरेन कैटेगरी में ‘अरिली जॉय हवर्ड’ को फ़िल्म फ्रॉम क्रोनी हार्ट के लिए दिया गया। बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर की कैटेगरी में योगेश भारद्वाज ने फ़िल्म ‘हैंडफुल ऑफ़ लाइफ’ के लिए पुरुस्कार अपने नाम किया। बेस्ट शॉर्ट इंडिया डॉक्युमेंट्री कैटेगरी में बानी प्रकाश दास, प्रदीप गोगई को ‘फाइट फॉर राईट’ तथा फॉरेन कैटेगरी में एना बोल्मार्क को उनकी डॉक्युमेंट्री वाटर ऑफ़ कंडक्टर ऑफ़ लाइफ़ के लिए मिला।
बेस्ट लॉन्ग डॉक्यूमेंट्री इंडिया में रामनामी: द सर्च ऑफ़ लार्ड राम के लिए बालेंन्दु डी कौशिक तथा फॉरेन के लिए फ़्रांस के थैरी पॉमियर को ‘चरक पूजा’ के लिए नामांकित किया गया। बेस्ट म्युज़िक वीडियो की कैटेगरी में ‘थिरुवोनाप्पू’ के लिए अभिलाष चंद्रन और मुटियार पंजाबन के लिए ‘तारिक़’ को विजेता घोषित किया गया।
बेस्ट एनिमेशन कैटेगरी में इंडिया की एनीमेशन फ़िल्म द ‘लीजेंड ऑफ़ हनुमान’ के लिए ‘जीवन J कांग, नवीन जॉन’ को पुरस्कृत किया गया।
बेस्ट स्टूडेंट्स फ़िल्म कैटेगरी के लिए इमेजिन फायर के डायरेक्टर ‘आरव के सिन्हा’ को पुरस्कृत किया गया।
इस साल इंडिया की बेस्ट फीचर फ़िल्म का अवार्ड जीता नलिन कुलश्रेष्ठ की फ़िल्म ‘लीर’ ने तो वहीं फॉरेन से इस कैटेगरी के लिए कौमुई की जापानी फ़िल्म ‘स्पॉटलाइट’ को चुना गया। बेस्ट डायरेक्टर के लिए इंडिया से ‘चल हल्ला बोल’ के डायरेक्टर ‘महेश बनसोडे’ तथा फॉरेन से ‘ऑन माई वे’ के लिए फ्रांस के ‘थैरी ओबेदिया’ को दिया गया। बेस्ट एक्टर के लिए इंडिया से मोहित नैन को उनकी फ़िल्म ‘धड़ाम’ के लिए चुना गया। वहीं फॉरेन से ‘फिरमाइने रिचर्ड’ को फ़िल्म ‘ऑन माई वे’ के लिए चुना गया। बेस्ट इंडिया एक्ट्रेस के लिए चेतना सरसार को फ़िल्म कांड 2010 के लिए मिला। वही दूसरी ओर फॉरेन के लिए के लिए एना को टिनी ‘लिटिल वॉइसिस’ के लिए नामांकित किया गया। बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस के लिए ‘प्रगति सिंह’ को उनकी फ़िल्म धडाम के लिए के लिए चुना गया। वहीं एक्टर के लिए राम नारायण गर्ग को कांड के लिए अवार्ड दिया गया।
इस साल का फाउंडर चॉइस अवार्ड राजेश अमरलाल बब्बर को उनकी फ़िल्म तथा वैशाली भगीरथ पिल्लेवान को ‘संघर आमच्या अस्तित्वच्या’ को दिया गया।
इस साल ओमपुरी बेस्ट एक्टर का अवार्ड फ़िल्म जगत की महान विभूति मनोज जोशी को दिया गया तथा सिनेमा में अतुलनीय योगदान के लिए सीमा पाहवा जी को अवार्ड दिया गया।
अवार्ड सेरेमनी से पहले लक्ष्मी राजेश ने गणेश वंदना गा कर शुभारम्भ किया। वहीं आकाश शर्मा ने अपने गाने से फेस्टिवल में चार चाँद लगा दिए। हरियाणवी डांसर सोनिया सरताज ने हॉल में उपस्थित लोगों को थिरकने पर मजबूर कर दिया। दो दिवसीय इस फेस्टिवल का लाजवाब संचालन बिफ़्फ़ की एंकर ‘डॉ अल्पना सुहासिनी, तथा ‘मोना शाह ने किया और अवार्ड सेरेमनी के दौरान बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल की टीम को सम्मानित भी किया गया।




वेश्यावृत्ति के दलदल से निकलने को बेताब “पिंजरे की तितलियां”
डॉ तबस्सुम जहां।

वेश्यावृत्ति के दलदल से निकलने को बेताब “पिंजरे की तितलियां”

समीक्षा
डॉ तबस्सुम जहां।

पिछले बरस देश विदेश में 10 से ज़्यादा राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल में अवार्ड अपने नाम कर चुकी फ़िल्म ‘पिंजरे की तितलियाँ’ अपने बोल्ड विषय को लेकर ख़ासी चर्चा बटोर रही है। पिछले बरस संजय लीला भंसाली की सुपरहिट वेबसीरीज़ ‘हीरामंडी’ की तरह डायरेक्टर आशीष नेहरा की यह फ़िल्म भी वेश्यावृति पर आधारित है जिसमें पारंपरिक वेश्यावृति को आगे बढ़ाने की छटपटाहट दिखाई देती है।
“पिंजरे की तितलियाँ” फ़िल्म में दिखाया परिवेश हमारे मुख्यधारा समाज के लिए बेशक टैबू हो सकता है पर यह भी सत्य है कि भारत से सटे पाकिस्तान तथा बांग्लादेश बॉर्डर पर ऐसे अनेक गाँव हैं जहाँ पर कुछ परिवारों मे पीढ़ीगत वेश्यावृत्ति का काम होता है। इन्हीं परिवारों में से एक की कहानी है फ़िल्म पिंजरे की तितलियाँ।
फ़िल्म में आखिरकार पिंजरे की तितलियाँ कौन हैं, अपने पिंजरे को तोड़ने के लिए वे किस प्रकार संघर्ष करती हैं। परिवार या समाज का वे कौन सा भयावह रूप है जिसे निर्देशक लोगों को दिखाना चाहता है। क्या ये पिंजरा टूट पाता है? ऐसे अनेक प्रशन दर्शकों के दिमाग़ में कौधते हैं जिनका उत्तर उन्हें फ़िल्म देख कर मिलता है।

फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें तो फ़िल्म का निर्देशन बहुत कमाल का है। पूरी फिल्म एक ही घर मे दिखाई गई है। पात्रों की संख्या भी गिनी चुनी है। पिता खब्बी बने मोहनकान्त, अजमल बनाम युवांग निज़ाम साहब बने दिग्विजय ओहल्यान ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की भरपूर प्रशंसा प्राप्त की है। स्त्री पात्रों में रूही का किरदार निभाने वाली गीता सरोहा ने दृश्यों में जान फूंक दी है। अफ़साना का अहम किरदार निभाया है सौम्या राठी ने। रुख़सार बनी रुचिता देओल ने अपने ग़ज़ब के अभिनय से सबकी खूब तारीफ बटोरी है। इतनी कम उम्र में रुचिता का इतना गम्भीर अभिनय सिद्ध करता है कि वह एक लाजवाब अदाकारा हैं। अपनी बेहतरीन अदाकारी के लिए रुचिता को मुंबई में हुए बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड भी मिला है। पात्रों की दृष्टि से देखें तो जहाँ एक ओर पुरुष पात्र दर्शकों में घृणा पैदा करते हैं वहीं दूसरी ओर सभी स्त्री पात्र दर्शकों की भरपूर संवेदना और सहानुभूति बटोर ले जाते हैं। फ़िल्म चूंकि वेश्यावृत्ति के मुद्दे पर आधारित है पर इसका निर्देशन में बहुत कसावट है। हालांकि विषय बोल्ड होने के के कारण यह फ़िल्म खासी चर्चा में रही है। पंजाबी मिश्रित संवाद हैं। फ़िल्म में गाली गलौच की अधिकता है जो परिवेश जनित है।

फ़िल्म की कहानी की बात करें तो पूरी फिल्म रुख़सार पात्र के इर्दगिर्द घूमती है। जिसके भीतर मौजूदा व्यवस्था को लेकर घृणा है। फ़िल्म के अंत मे वह पुरुषवादी व्यवस्था से अकेले लोहा लेती है। उसको ठेंगा दिखाती हुई ज़ोर ज़ोर से हँसती है। उसके सामने निज़ाम साहब बना पुरूष समाज खुद को ठगा हुआ-सा महसूस करता है। फ़िल्म का आरंभ जिस विसंगति और बेचैनी के साथ आरंभ होता है वहीं अंत में निज़ाम साहब का अपना-सा मुँह लेकर वापस जाना दर्शकों को थोड़ा सुकून-सा दिलाता है। फ़िल्म का अंत क्या होगा यह दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। रुखसार का विद्रोही होना दिखाता है कि वह पीढ़ीगत पेशे को स्वीकार नहीं करना चाहती। वह पढ़ना चाहती है। खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वह पिता से बगावत करती है। असल में वो मौजूदा व्यवस्था से विद्रोह करती है और आगे आने वाली पीढ़ी के लिए मार्ग खोल देती है। उसे घर की छत से एक गली मुख्य सड़क तक जाती नज़र आती है यही उसके लिए आशा की किरण है। डायरेक्टर आशीष नेहरा में एक बातचीत में बताया कि फ़िल्म का विषय चाहे कितना ही बोल्ड क्यों न हो लेकिन फ़िल्म में दर्शकों को कहीं से भी अश्लीलता या नग्नता नज़र नहीं आएगी। राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अनेक पुरस्कार जीतने के बाद फ़िल्म 3 जनवरी को ‘चौपाल’ एप्स पर रिलीज़ हुई है।

फ़िल्म के संगीत पक्ष बेजोड़ है। जब बैकग्राउंड म्यूज़िक बजता है तो वह दर्शकों के अंतर्मन को चीर कर रख देता है। इस म्यूज़िक में पीड़ा है विक्षोभ है स्त्री के अंतर्मन का। फ़िल्म का संगीत दर्शकों के दिल में संत्रास और बेचैनी पैदा करता है। और यह बेचैनी असल में फ़िल्म में दिखाए गए किरदारों के दिल की बेचैनी और घुटन है जिसे निर्देशक दर्शकों के मर्म तक पहुँचाने में सफल रहा है।
इस फ़िल्म का लाजवाब संगीत दिया है हिमांशु दहिया ने। पिंजरे की तितलियां शीर्षक सांग गाया है नितेश ने और गाने के बोल दिए हैं वरुनेन्द्र त्रिवेदी ने।
फिल्म निर्माता है तरणजीत बल, राकेश नेहरा और अभिषेक श्रीवास्तव।




वेश्यावृत्ति के दलदल से निकलने को बेताब “पिंजरे की तितलियां”

समीक्षा:
डॉ तबस्सुम जहां।

पिछले बरस देश विदेश में 10 से ज़्यादा राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल में अवार्ड अपने नाम कर चुकी फ़िल्म ‘पिंजरे की तितलियाँ’ अपने बोल्ड विषय को लेकर ख़ासी चर्चा बटोर रही है। पिछले बरस संजय लीला भंसाली की सुपरहिट वेबसीरीज़ ‘हीरामंडी’ की तरह डायरेक्टर आशीष नेहरा की यह फ़िल्म भी वेश्यावृति पर आधारित है जिसमें पारंपरिक वेश्यावृति को आगे बढ़ाने की छटपटाहट दिखाई देती है।
“पिंजरे की तितलियाँ” फ़िल्म में दिखाया परिवेश हमारे मुख्यधारा समाज के लिए बेशक टैबू हो सकता है पर यह भी सत्य है कि भारत से सटे पाकिस्तान तथा बांग्लादेश बॉर्डर पर ऐसे अनेक गाँव हैं जहाँ पर कुछ परिवारों मे पीढ़ीगत वेश्यावृत्ति का काम होता है। इन्हीं परिवारों में से एक की कहानी है फ़िल्म पिंजरे की तितलियाँ।
फ़िल्म में आखिरकार पिंजरे की तितलियाँ कौन हैं, अपने पिंजरे को तोड़ने के लिए वे किस प्रकार संघर्ष करती हैं। परिवार या समाज का वे कौन सा भयावह रूप है जिसे निर्देशक लोगों को दिखाना चाहता है। क्या ये पिंजरा टूट पाता है? ऐसे अनेक प्रशन दर्शकों के दिमाग़ में कौधते हैं जिनका उत्तर उन्हें फ़िल्म देख कर मिलता है।

फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें तो फ़िल्म का निर्देशन बहुत कमाल का है। पूरी फिल्म एक ही घर मे दिखाई गई है। पात्रों की संख्या भी गिनी चुनी है। पिता खब्बी बने मोहनकान्त, अजमल बनाम युवांग निज़ाम साहब बने दिग्विजय ओहल्यान ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की भरपूर प्रशंसा प्राप्त की है। स्त्री पात्रों में रूही का किरदार निभाने वाली गीता सरोहा ने दृश्यों में जान फूंक दी है। अफ़साना का अहम किरदार निभाया है सौम्या राठी ने। रुख़सार बनी रुचिता देओल ने अपने ग़ज़ब के अभिनय से सबकी खूब तारीफ बटोरी है। इतनी कम उम्र में रुचिता का इतना गम्भीर अभिनय सिद्ध करता है कि वह एक लाजवाब अदाकारा हैं। अपनी बेहतरीन अदाकारी के लिए रुचिता को मुंबई में हुए बॉलीवुड इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड भी मिला है। पात्रों की दृष्टि से देखें तो जहाँ एक ओर पुरुष पात्र दर्शकों में घृणा पैदा करते हैं वहीं दूसरी ओर सभी स्त्री पात्र दर्शकों की भरपूर संवेदना और सहानुभूति बटोर ले जाते हैं। फ़िल्म चूंकि वेश्यावृत्ति के मुद्दे पर आधारित है पर इसका निर्देशन में बहुत कसावट है। हालांकि विषय बोल्ड होने के के कारण यह फ़िल्म खासी चर्चा में रही है। पंजाबी मिश्रित संवाद हैं। फ़िल्म में गाली गलौच की अधिकता है जो परिवेश जनित है।

फ़िल्म की कहानी की बात करें तो पूरी फिल्म रुख़सार पात्र के इर्दगिर्द घूमती है। जिसके भीतर मौजूदा व्यवस्था को लेकर घृणा है। फ़िल्म के अंत मे वह पुरुषवादी व्यवस्था से अकेले लोहा लेती है। उसको ठेंगा दिखाती हुई ज़ोर ज़ोर से हँसती है। उसके सामने निज़ाम साहब बना पुरूष समाज खुद को ठगा हुआ-सा महसूस करता है। फ़िल्म का आरंभ जिस विसंगति और बेचैनी के साथ आरंभ होता है वहीं अंत में निज़ाम साहब का अपना-सा मुँह लेकर वापस जाना दर्शकों को थोड़ा सुकून-सा दिलाता है। फ़िल्म का अंत क्या होगा यह दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। रुखसार का विद्रोही होना दिखाता है कि वह पीढ़ीगत पेशे को स्वीकार नहीं करना चाहती। वह पढ़ना चाहती है। खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वह पिता से बगावत करती है। असल में वो मौजूदा व्यवस्था से विद्रोह करती है और आगे आने वाली पीढ़ी के लिए मार्ग खोल देती है। उसे घर की छत से एक गली मुख्य सड़क तक जाती नज़र आती है यही उसके लिए आशा की किरण है। डायरेक्टर आशीष नेहरा में एक बातचीत में बताया कि फ़िल्म का विषय चाहे कितना ही बोल्ड क्यों न हो लेकिन फ़िल्म में दर्शकों को कहीं से भी अश्लीलता या नग्नता नज़र नहीं आएगी। राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अनेक पुरस्कार जीतने के बाद फ़िल्म 3 जनवरी को ‘चौपाल’ एप्स पर रिलीज़ हुई है।

फ़िल्म के संगीत पक्ष बेजोड़ है। जब बैकग्राउंड म्यूज़िक बजता है तो वह दर्शकों के अंतर्मन को चीर कर रख देता है। इस म्यूज़िक में पीड़ा है विक्षोभ है स्त्री के अंतर्मन का। फ़िल्म का संगीत दर्शकों के दिल में संत्रास और बेचैनी पैदा करता है। और यह बेचैनी असल में फ़िल्म में दिखाए गए किरदारों के दिल की बेचैनी और घुटन है जिसे निर्देशक दर्शकों के मर्म तक पहुँचाने में सफल रहा है।
इस फ़िल्म का लाजवाब संगीत दिया है हिमांशु दहिया ने। पिंजरे की तितलियां शीर्षक सांग गाया है नितेश ने और गाने के बोल दिए हैं वरुनेन्द्र त्रिवेदी ने।
फिल्म निर्माता है तरणजीत बल, राकेश नेहरा और अभिषेक श्रीवास्तव।




कोलार के मूलनिवासियों का संघर्ष दिखाती है फ़िल्म थांगलान।

डॉ तबस्सुम जहां

भारत के कर्नाटक राज्य का कोलार क्षेत्र जो सोने की खदान के लिए मशहूर है उस क्षेत्र के मूलनिवासी उसके पूर्वजों के खून से सने इतिहास को थांगलान फ़िल्म में दिखाया गया है। फ़िल्म दिखाती है कि कैसे अंग्रेज़ और ज़मींदार वहाँ के मूलनिवासियों को लगान, ब्याज और जुर्माना लगा कर उनकी ही ज़मीन से उन्हें बेदखल कर रहे हैं। दूसरे ब्राह्मणवाद और उससे उपजी वर्णव्यवस्था ने भी उनकी हालात दयनीय कर दी हैं। फ़िल्म की कहानी शुरू होती है एक असुर नाग जाति के थांगलान परिवार से। थंगलान का अर्थ होता है ‘सन ऑफ गोल्ड’ और फ़िल्म की कहानी भी सोने पर आधारित है। फ़िल्म का काल ब्रिटिश पीरियड में 1850 के आस पास दिखाया गया है।
फ़िल्म में दिखाया गया है कि मूलनिवासियों को उनके पुरखों की ज़मीन से बेदखल करके या तो उन्हें खड़ेदा जा रहा या उसी भूमि पर हमेशा के लिए गुलाम बनाया जा रहा है। मूलनिवासियों के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए उनके ही व्यक्तियों की मदद लेना, धोखे और झूठ से उनकी जमीन हड़प लेना, मूलनिवासियों का शोषण, ज़मीन और जंगल को बचाने की जद्दोजहद फ़िल्म थांगलान में देखी जा सकती है।
थांगलान अपने परिवार के साथ गाँव में रहता है और अपनी छोटी-सी भूमि में खेती करता है, गाँव का ज़मीदार उसके खेत में आग लगवाकर उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है। वह मान सम्मान से अपने और अपने परिवार के साथ रहना चाहता है। इसलिए अंग्रेज़ अफसर के साथ सोना ढूंढने निकल पड़ता है। फ़िल्म में दिखाया गया है कि आरथी जो कि एक मायावी स्त्री है वह मायावी शक्ति के रूप में सोने की भूमि की रक्षा करती है। वह अपनी माया और जादू से अपनी भूमि को बाहरी लोगों से सुरक्षित रखती है। आरथी की मायावी सोने की चट्टान अभेद है जिसे कोई भेद नहीं सकता। जो भी इस क्षेत्र में आता है वह उसे मौत के घाट उतार देती है। कभी सांपों के जरिए कभी तूफानों के जरिए कभी काले बाघ के जरिए।
थांगलान अपनी बच्चों को अपने परदादा कोडियानी की कहानी सुनाता है कि वो नदी से कैसे सोना निकालते थे, उसी नदी के पार दूर हाथी की तरह एक पहाड़ है वहाँ सोने की चट्टाने हैं। फ़िल्म में सोने को पाने के लिए दो अंग्रेज अफसर कोलार के ही कुछ पारंपरिक लोगों की मदद लेते हैं। इस टकराव में पानी की तरह ख़ून बहता है और थांगलान और उसके साथियों को अच्छी खासी मुसीबत का सामना करना पड़ता है।
फिल्म का अंत बहुत दिलचस्प है और जीत कहीं ना कहीं मूलनिवासियों की दिखाई गई है जो की आभासी जान पड़ती है।
फिल्म निर्देशक पा. रंजीत द्वारा निर्देशित थंगालान के जी एफ (कोलार गोल्ड फील्ड) फ़िल्म देखते हुए लगता है जैसे किसी पौराणिक जगत या उनकी कहानियों की सैर कर रहे हों। पौराणिक और आज़ादी से पहले की जनजातिए घालमेल को डायरेक्टर ने बखूबी फिल्माया है। फ़िल्म के अनेक दृश्य बहुत लाजवाब बन पड़े हैं।
फ़िल्म में जातिगत भेदभाव दिखाया गया है इसमें ब्राह्मण वाद का विरोध और बुद्ध के प्रति आसक्ति दिखाई गई है। इसमें चोलराजाओं, टीपूसुल्तान और अंग्रेज सभी को विदेशी बताया है जो सोना चुराने की कोशिश करते रहे हैं। फ़िल्म की सबसे खास बात यह है कि इसमें मूलनिवासी को बुद्ध से जोड़ा गया है, और बताया गया है कि कैसे उनके ईष्ट बुद्ध को नष्ट किया गया। उनकी संस्कृति को नष्ट किया। फ़िल्म में आरथी बार-बार थांगलन के सपनों में आती रहती है जो असल में ईसा से 500 साल पहले थांगलान की पत्नी ही थी। दोनों पति-पत्नी मिलकर पहले सोने की रक्षा करते थे लेकिन थांगलान भटक गया और इसी वजह उसे सैकड़ो साल से जातिगत भेदभाव झेलने पड़े। इसके अलावा इसमें थांगलान का बेटा अशोक है जो सम्राट अशोक की ओर इशारा करते हुए मेटाफर की तरह से दिखाया गया है क्योंकि वो बुध्द की मूर्ति निकालता है उसका सिर जोड़ता है।
आरथी बार- बार थांगलान को सचेत करती है और वापस जाने को कहती है। थंगलान इसे दिमागी वहम समझता है।
साउथ इंडस्ट्री के सुपरहीरो विक्रम अपनी बेहतरीन अभिनय और गजब के परफॉर्मेंस की वजह से जाने जाते हैं फ़िल्म ‘अपरिचित’ और ‘आई’ में उनके किए किरदार हॉलीवुड को टक्कर देते हैं। इस बार थांगलान फिल्म में भी विक्रम अपने अभिनय और लुक की वजह से दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रहे हैं। आदिवासी बने विक्रम अपने लुक की वजह से इस फ़िल्म में कभी ब्रह्मराक्षस तो कभी अघोरी का भी एहसास कराते हैं। विक्रम ने थांगलान में ग़ज़ब की जीवंत एक्टिंग की है। एक ही फ़िल्म में वह अनेक किरदारों में नजर आए हैं। अपनी गजब अभिनव क्षमता से वह दर्शकों को शुरु से अंत तक बांधे रखते हैं। वैसे एक्टिंग की बात की जाए तो विक्रम सहित पार्वती थिरुवोथु, मालविका मोहनन, डैनियल कैल्टागिरोन व तमाम सितारों ने अपने-अपने किरदार के साथ इंसाफ किया है. अभिनय में किसी में भी कोई कमी नजर नहीं आती. पा. रंजीत का निर्देशन भी जबरदस्त है. फिल्म के सीन को इस तरह फिल्माया गया है, जो दर्शकों को काफ़ी पसंद आ रही है।




An Unforgettable Book Discussion Conducted by Sujata and Oroon

Conversations: Before I Forget

Reviewed by Manohar Khushalani

M.K. Raina’s memoir, “Before I Forget,” is a deeply moving chronicle of his multifaceted life as a theatre actor, director, and cultural activist. The memoir weaves through various stages of his life, from his serene childhood in Kashmir to his influential role in Delhi’s theatre scene, and his poignant experiences during the turbulent periods of Kashmir’s history. At IIC,

Sujata Prasad and Oroon Das, conducted an extremely engaging and memorable conversation with the author.

His narrative began with memories of his early years in Kashmir, painting a picture of harmony and cultural richness. He describes the idyllic days in the Sheetal Nath Sathu Mohalla, where Hindus and Muslims lived together in peace, and his nurturing education at Lal Ded Primary School. This nostalgic recounting provides a stark contrast to the later chapters, which detail the descent of Kashmir into violence and chaos in the 1990s.

The core of Raina’s memoir focuses on his efforts to use theatre as a tool for social change and healing. Despite the insurgency and violence in regions like Kashmir and the North-East, Raina set up theatre workshops aimed at reviving folk traditions and fostering community spirit. His work often put him in danger, yet he persisted, driven by a cause greater than activism—a belief in mending the fabric of society. One of his significant achievements was the successful theatre workshop in Kashmir in 2000, where he taught young locals not just theatre, but values of rationality and responsibility.

Raina’s reflections on the political and cultural history of India are profound. He recounts witnessing turbulent times, the Emergency period, Indira Gandhi’s assassination, the Delhi riots, and the death of playwright Safdar Hashmi. These events are narrated with a historian’s precision and a poet’s sensitivity, capturing both the joy and sorrow of living through India’s tumultuous times.

The memoir delves deeply into the traumatic period of the 1990s in Kashmir. Raina’s mother’s illness during the violence-ridden winter. Amidst curfews and security checks, he navigated the challenges of getting medical care for his mother, only to face the heartbreak of her passing. The exodus of Kashmiri Pandits during this period is another painful memory, highlighting the erosion of centuries-old communal bonds.

Raina’s narrative does not shy away from the complexities and mistrust that grew among communities: How even brothers became strangers, emphasizing the profound impact of fear. His return to Kashmir in the 2000s to conduct theatre workshops marked a significant effort to rebuild trust and revive cultural practices like the traditional folk theatre, Bhand Pather.

Raina balances personal anecdotes with broader socio-political observations. His encounters with cultural luminaries in Delhi, such as Shabana Azmi, Naseeruddin Shah, and Om Puri, are interspersed with reflections on the decline of the city’s once-vibrant theatre scene

“Before I Forget” is a testament to M.K. Raina’s unwavering dedication to his craft and his cause. It is a poignant reminder of the importance of cultural heritage in fostering understanding and unity in times of conflict. His declaration, “We should never forget but always forgive”

First Published in IIC Diary April-May 2024




Jaya Bacchan- The snob is inevitably ok

They may say as they please. Call u a snob, a stoic, a conventional but u are the best Jayaji. People’s memories are so shallow and so shortlived. Little do they remember how arduous it has had been to be a BACCHAN’S WIFE. Sacrificing is not the word. A willing suspension of the yearning for the glam industry at the peak of your career, raising two children with an unparalleled wisdom of INDIAN SOLACE boldly facing every media gossip about the husband and standing true to all wifely responsibilities through the thick and thin of the BACCHAN PARIVAAR is indeed praiseworthy.. Everlastingly supporting a husband when he is a victim of both; public acclaim and accuse is not an easy achievement at all. PROUD of you. You have been the most dignified INDIAN actress ever. One can watch all your films with family is the best compliment that I think exemplifies your artless and immaculate persona as an INDIAN WOMAN ACTOR. Let them talk. They are of least importance. Indeed, a woman of your stature definitely has a reason to feel.proud of herself. And…it is NOT always important to put a fake smile in front of the media and walk the red carpet. I perfectly understand the irritation it causes. So, JAYAJI is avoiding media intervention and so justifiably indeed. If u want her to be kind, let her privacy be hers.

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