नाटक “बैजू बावरा”

समीक्षा — अनिल गोयल
मराठी और बंगाली रंगमंच से आक्रान्त होने की सीमा तक प्रभावित रहे हिन्दी रंगमंच में कुछ चरित्र, विशेषकर भारतीय इतिहास, संस्कृति और धर्म से जुड़े हुए लोग किनारों पर ही रहे… जिसमें विभिन्न विचारधारावादी बौद्धिकों का बहुत बड़ा योगदान रहा. हालांकि, हमारे फिल्म-जगत ने ऐसे अनेक व्यक्तियों पर फिल्में बनाईं. स्थिति में परिवर्तन आने से, नकार दिये गये ऐसे कुछ चरित्र अब रंगमंच के प्रकाश-पुंज की परिधियों में आ रहे हैं.

ऐसे ही एक महान संगीत-नायक बैजू बावरा के जीवन पर 2024 के जनवरी माह की चौथी तिथि को अरविन्द सिंह चन्द्रवंशी ने अपना नया नाटक ‘बैजू बावरा’ दिल्ली के श्रीराम सैंटर में गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा के सौजन्य से प्रस्तुत किया. नाटक का लेखन विशाल सिंह और अरविन्द सिंह ने किया है.

यह नाटक एक बार फिर से इस बहस को जन्म देता है कि क्या उन व्यक्तियों का कोई अस्तित्व कभी रहा होगा, जो राजदरबारों में नहीं रहे, जिनका उल्लेख राजाओं-बादशाहों के द्वारा लिखवाये गये इतिहास में नहीं है, और जिनकी भव्य राजसी समाधियाँ या मजारें नहीं बन सकीं! ऐसे अनेक ऐतिहासिक लोगों के योगदान को उनके अपने क्षेत्रों के दिग्गज तो स्वीकार करते हैं, परन्तु हिन्दी रंगकर्मी अपनी दृष्टि उन दिग्गजों तक नहीं पहुँचाना चाहते. एक वर्ग कुछ गैर-ऐतिहासिक चरित्रों पर ‘अनारकली’ और ‘मुगले आजम’ जैसी फिल्में बना लेता है. परन्तु दूसरा वर्ग तुलसी, मीरा, सूरदास, रसखान, बैजू बावरा, शिवाजी, महाराणा प्रताप, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और इन जैसे अनगिनत महान चरित्रों को गुमनामी के अन्धेरों में खोये रहने को ही विवश करता आया है.

इस बहस से बाहर निकल कर, आज के काल के हिन्दी रंगमंच के परिदृश्य में, अत्यन्त सीमित साधनों में इस प्रकार के एक ऐतिहासिक नाटक को करना साहस का नहीं, अपितु दुस्साहसिक कृत्य ही कहा जायेगा! अरविन्द की इस नाटक की यह पहली प्रस्तुति थी, जिस कारण से इस प्रस्तुति से बहुत अधिक अपेक्षाएँ की भी नहीं गई थीं. और एक संगीतमयी नाटक में सबसे पहली आवश्यकता होती है गायक-अभिनेताओं की. आज की तिथि में दिल्ली में गायक-अभिनेताओं की खोज करना रेगिस्तान में पानी ढूँढ़ने के समान ही होगा. पर्वतीय कला केन्द्र से जुड़े कुछ रंगकर्मियों को छोड़ दें, तो बाकी अभिनेता और अभिनेत्रियों को इस विषय में कोई विशेष दक्षता प्राप्त नहीं है. ऐसे में, इस नाटक का क्या भविष्य होगा? इस प्रश्न का उत्तर तो भविष्य ही दे पायेगा! हाँ, अभिनेताओं ने अपनी ओर से भरपूर मेहनत करके नाटक के विषय को दर्शकों तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

इस नाटक में मंच-आलोकन ने निराश ही किया… आज यदि रंगमंच के प्रकाश-आयोजक नृत्य के लिये बनाई गई लाईटें नाटकों में प्रयोग कर रहे हैं, मंच के पीछे से दर्शकों की ओर को, उनकी आँखों पर प्रकाश फेंक रहे हैं, जर्क या झटके के साथ प्रकाश को खोल और बन्द कर रहे हैं, अकारण ही पूरे नाटक में धुएँ का प्रयोग कर रहे हैं, तो वे रंगमंच को हानि ही पहुँचा रहे हैं. रंगमंच एक सामूहिक प्रक्रिया है. यदि प्रकाश, संगीत, परिधान इत्यादि किसी भी क्षेत्र का व्यक्ति एकाधिक बार रिहर्सल में आ कर विषय को समझने की चेष्टा नहीं करता, तो नाटक कैसे उठ पायेगा? आज मुम्बई में फिल्म इंडस्ट्री में भी, गानों के गायन के समय पर इस सामूहिक प्रक्रिया को एकल बना दिया गया है, जहाँ पहले से रिकार्डेड ट्रैक्स हैं, एक गायक आते है और गा कर चला जाता है, फिर कभी और, दूसरा गायक आता है और अपनी पंक्तियाँ गा कर चला जाता है, तो उस गाने में भाव और फिल्म के दृश्य के लिये आवश्यक कोमल संवेदनाएँ कैसे पैदा होंगी? बहुत सुनियोजित तरीके से हिन्दी फिल्म संगीत की हत्या की जा रही है. आशा है कि दिल्ली के रंगकर्मी इससे कुछ सीखेंगे और अपने काम को एक सामूहिक प्रक्रिया के रूप में ही स्वीकार करेंगे… अन्यथा दिल्ली के रंगमंच के दरवाजे सदा के लिये बन्द हो जाने वाले दिन शायद बहुत दूर नहीं होंगे!

एक अछूते विषय को लेकर नाटक करने के लिये अरविन्द सिंह को फिर बधाई!




आपदा-काल में भास का सहारा

‘आपदा को अवसर में बदलना’ – आजकल यह उक्ति प्रायः सुनने को मिल जाती है. आज के समय की जीवित स्मृति में सबसे बड़ी आपदा रही करोना. सब लोग अपने-अपने घरों के अन्दर बन्द हो जाने को मजबूर हो गये थे. ऐसे में, विज्ञान से ले कर नाटक तक हर विषय पर सैंकड़ों-हजारों लोगों ने ‘ऑनलाइन’ या इन्टरनैट पर चर्चा के माध्यम से आपसी सम्बन्ध और संवाद को चलाये रखा, और करोड़ों मनुष्यों के मानसिक सन्तुलन को बनाये रखने में एक प्रशंसनीय भूमिका निभाई!
ऐसी ही एक चर्चा का सहभागी बनने का सौभाग्य मुझे भी मिला. करोना के कालखण्ड में ही ग्वालियर की गीतांजलि गीत ने अपने रंगसमूह ‘मेरा मंच’ के माध्यम से भास के तेरह नाटकों पर भारतरत्न भार्गव के व्याख्यानों की एक श्रृंखला आयोजित की थी. संगीत नाटक अकादमी अमृत सम्मान से सम्मानित, आकाशवाणी, बी.बी.सी. तथा संगीत नाटक अकादमी से जुड़े रहे भारतरत्न भार्गव डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी तथा कवलम नारायण पणिक्कर जैसे दिग्गजों के साथ काम कर चुके हैं, और सम्प्रति टैगोर फैलोशिप ले कर शोध कर रहे हैं.
इन व्याख्यानों की सबसे रोचक बात रही इनका समय! यह व्याख्यानमाला सायं चार बजे से होती थी. उन दिनों में, काम कोई न होने के कारण हम दोपहर में खाना खा कर सो जाते थे. फिर, चार बजे से कुछ ही पहले नींद खुलती थी, भागते-दौड़ते जैसे-तैसे मैं कंप्यूटर खोलता था, कपड़े पहनता था, पत्नी भी जाग जाती थीं, तब तक भारतरत्न जी का व्याख्यान प्रारम्भ हो चुका होता था! व्याख्यान सुनते-सुनते ही पानी पीता था, चाय आ जाती थी, वह भी पीता रहता था, लगता था कि बिस्कुट खा रहा हूँ, और वह नमकीन होता था; कभी नमकीन के चक्कर में बिस्कुट खा जाता था! करोना काल में बचे हुए हम लोगों की बहुत सी दुखद, लेकिन कुछ मधुर, रोमांचकारी स्मृतियाँ भी हैं! उन्हीं में से एक गीतांजलि गीत द्वारा आयोजित व्याख्यानों की यह श्रृंखला भी थी.
भास के नाट्य-साहित्य पर आधारित इस श्रृंखला का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष था प्रतिदिन के व्याख्यान के बाद का प्रश्नोत्तर-काल. इसके लिये भार्गव जी ने यथेष्ट समय माँगा, जिसे गीतांजलि ने मुक्तमन से स्वीकार किया. और सच में, यह श्रृंखला गीतांजलि की श्रृंखला न रह कर भार्गव जी और श्रोताओं की श्रृंखला बन गई! बाद में, सभी ने इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाने का सुझाव दिया. अब सेतु प्रकाशन के संस्थापक-संचालक अमिताभ राय ने, जो इस श्रृंखला से प्रारम्भ से ही इससे जुड़े रहे, इन व्याख्यानों तथा प्रश्न और उत्तरों को ‘महाकवि भास का नाट्य वैशिष्ट्य’ नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है. बातचीत की स्वाभाविकता को बनाये रखने, और इसे आत्मीय संस्पर्श देने के उद्देश्य से इसकी भाषा को यथावत रखा गया है, जो पुस्तक को बहुत पठनीय बना देता है.
“ग्यारहवीं–बारहवीं शताब्दी से जो आक्रान्ता आये, उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे विश्वप्रसिद्ध केन्द्रों को ध्वस्त कर दिया, नष्ट कर दिया” – इस प्रकार का क्षोभ प्रकट करने के बाद इन नाटकों को फिर खोज लिये जाने की कहानी भार्गव जी विषय-प्रवेश में सुनाते हैं, और, कि कैसे ये नाटक केरल के देवालयों अर्थात कुताम्बलम में खेले जाते रहे, लेकिन खोज लिये जाने के लगभग सत्तर वर्षों के बाद भी ये नाटक हमारे लिये अपरिचित ही रहे, और कैसे सन 1974 में शान्ता गाँधी के द्वारा भास के ‘स्वप्नवासवदत्ता’ नाटक को अमेरिका के हवाई विश्वविद्यालय में सफलतापूर्वक खेलने पर भारत के लोगों की नींद टूटी, और उनका ध्यान इन नाटकों की ओर गया. भार्गव जी को पणिक्कर जी ने बताया कि केरल में कुड़ियाट्टम, कथक्कली और नाट्यशास्त्र के विद्वान अप्पुकुट्टन नायर ने तभी केरल संगीत नाटक अकादमी के सचिव बने पणिक्कर जी को कुड़ियाट्टम और नाट्यशास्त्र से परिचित करवाया, जिससे पणिक्कर जी संस्कृत नाटकों के प्रति आकृष्ट हुए. बाकी सब तो जाना-पहचाना इतिहास है.
बाद में पणिक्कर जी ने कालिदास संस्कृत अकादमी में ‘मध्यमव्यायोग’ नाटक का मंचन करके उत्तर भारत के लोगों को भास के नाटकों से परिचित करवाया. भार्गव जी बताते हैं कि इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता है इनके कथानक. कालिदास से पहले के काल में रहे भास के तेरह में से छः नाटक महाभारत पर आधारित हैं. दो नाटक, ‘अभिषेक’ और ‘प्रतिभा’ रामायण पर आधारित हैं. एक नाटक ‘बालचरित’ कृष्ण की कथाओं पर आधारित है. ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘प्रतिज्ञा यौगन्धरायण’, ‘अविमारक’ और ‘चारुदत्त’, ये चार नाटक उनकी मूल कृतियाँ मानी जाती हैं.
‘मेरा मंच’ के माध्यम से भास के तेरह नाटकों पर व्याख्यानों की श्रृंखला, वहाँ उठे प्रश्न और जिज्ञासाओं, और श्रोताओं की रुचि ने भार्गव जी को इन नाटकों के हिन्दी भाषा में पाठान्तर की भूमिका तैयार कर दी. पाठान्तर वाले भास के इन सभी तेरह नाटकों को सेतु प्रकाशन ने ही ‘भास नाट्य समग्र’ के नाम से छापा है. भास के नाटकों के अन्य अनुवादों या पाठान्तरों और भार्गव जी के पाठान्तर में मूल अन्तर यह है, कि उन्होंने इन नाटकों का पद्यात्मक पाठान्तर किया है. यह पाठान्तर करते समय उन्होंने ‘नाट्यशास्त्र में निर्देशित संहिता के अनुसार’ तनिक छूट भी ली है, जिससे ‘इन नाटकों की समकालीन उपयोगिता में यत्किंचित वृद्धि हो सके’. इसीलिये वे इसे अनुवाद न कह कर पाठान्तर कहते हैं, जिससे कि आंगिक और वाचिक अभिनय में भाव, राग तथा ताल के तात्विक गुणों का समन्वय हो सके. सबसे अच्छी बात है, कि इन दोनों पुस्तकों को पाठकों को उचित मूल्य पर उपलब्ध करवाने के लिये प्रकाशक ने इन्हें पेपरबैक में छापा है, जिससे ये पुस्तकें साधारण जन के लिये बहुत आसानी से सुलभ हो सकेंगी.
भास की विलक्षण प्रतिभा को समझने के लिये ‘महाकवि भास का नाट्य वैशिष्ट्य’ का पढ़ना आवश्यक है! और भास के नाटकों को पढ़ने के लिये दूसरी पुस्तक ‘भास नाट्य समग्र’ का पढ़ना तो आवश्यक है ही! और यदि पाठक ‘भास नाट्य समग्र’ को भास के नाटकों के संस्कृत संस्करणों के साथ रख कर पढ़ेंगे, तो उन्हें इन प्राचीन नाटकों के आज के समय में प्रासंगिक होने का भान हो सकेगा!




गली दुल्हन वाली

गली दुल्हन वाली
टिप्पणी — अनिल गोयल

दिल्ली की रामलीला से अपने अभिनय-जीवन का प्रारम्भ करने वाले सुभाष गुप्ता 1975 में ‘नाटक पोलमपुर का’ में समरू जाट की भूमिका से ‘अभियान’ रंगसमूह से जुड़े. अभियान की स्थापना इसके कुछ ही पहले, 1967 में, दिल्ली के कुछ उत्साही रंगकर्मियों ने की थी. सुभाष गुप्ता के द्वारा ‘अभियान’ के लिये रूपान्तरित और निर्देशित नाटक ‘गली दुल्हन वाली’ का प्रदर्शन 15 अप्रैल 2023 को दिल्ली के लिटिल थिएटर ग्रुप प्रेक्षागृह में हुआ. यह नाटक मीरा कान्त की इसी नाम की कहानी पर आधारित है. केवल सन्दर्भ के लिये, मीरा कान्त अपनी इस कहानी को स्वयं भी एकल नाटक के रूप में रूपान्तरित कर चुकी हैं.

‘गली दुल्हन वाली’ नगीना नाम की एक अनपढ़ स्त्री के संघर्ष की कथा है. नगीना विवाह के पश्चात् एक कसाई रज्जाक की ‘दुल्हन’ बन कर आती है, और अपने पति के द्वारा पीटे जाने और दुर्व्यवहार का शिकार होती है. वह जिस गली में रहती है, वह गली ही नगीना के दुल्हन वाले रूप का वहन करती हुई ‘गली दुल्हन वाली’ के नाम से पहचानी जाने लगती है. नगीना काफी समय तक अपने पति के दुर्व्यवहार को सहती रहती है. लेकिन जब वही सब कुछ उसके बच्चों के साथ होता है, तो वह इस सब को अस्वीकार करके अपने बच्चों की रक्षा के लिये खड़ी हो जाती है. वह शिक्षा को ही अपने बच्चों के उद्धार का माध्यम मानती है, और इस विषय पर अपने पति से किसी समझौते के लिये तैयार नहीं होती. अपनी नाबालिग बेटी के एक बड़ी वय के आदमी के साथ विवाह के प्रश्न पर वह खुल कर अपनी बेटी की रक्षा में आ जाती है. उसके पड़ोस में रहने वाली एक हिन्दू महिला, गौरी की माँ एक पड़ोसन के नाते उसके इस संघर्ष में उसका साथ निभाती है. किस प्रकार से अत्यन्त साधारण से लगने वाले प्राणी छोटे-छोटे संघर्ष कर के समाज में बड़े परिवर्तन ले आते हैं, इस नाटक को देखने से नजर आता है. यह नाटक मनुष्य की इच्छा-शक्ति के बल को रेखांकित करता है. अपने पति से लगातार पिटते रहने वाली वह अनपढ़ स्त्री एक सीमा के बाद, केवल अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर ही, उसके विरुद्ध खड़ी हो पाती है और उसके सामने झुकने से इंकार कर देती है.

बहुत वर्ष पूर्व, दिल्ली में एक बंगाली नाटक ‘शानु रॉयचौधरी’ में स्वातिलेखा सेनगुप्ता को एकल अभिनय करते देखा था. भाषा का अवरोध होते हुए भी, लगभग ढाई घंटे के नाटक में मंच पर स्वातिलेखा अकेले ही लगातार दर्शकों को बांधे रही थीं. कुछ वैसा ही अनुभव इस नाटक में श्रुति मेहर नोरी को नगीना की भूमिका में देख कर हुआ. सुभाष गुप्ता ने इस एक-पात्रीय कहानी को रूपान्तरित करते हुए नगीना के पति रज्जाक का भी चरित्र नाटक में बना दिया है. रज्जाक की भूमिका में नीतीश पाण्डे के पास सीमित ही सम्भावनाएँ उपलब्ध थीं, जिनका उन्होंने अच्छे से उपयोग किया. लेकिन नगीना के चरित्र में विद्यमान अपार सम्भावनाओं का श्रुति ने भरपूर उपयोग किया, और नाटक को दर्शनीय बनाया. नीतीश और श्रुति दोनों ही कलाकार हैदराबाद के निवासी हैं, हालाँकि नीतीश का मूल स्थान उत्तर भारत है.

और इसी कारण, नाटक के संवादों में विशुद्ध पुरानी दिल्ली या दिल्ली छः के उच्चारण को प्राप्त कर लेने का श्रेय नाटक के निर्देशक को भी जाता है. हैदराबाद के भारी-भरकम लहजे वाली उर्दू को छोड़ कर उन्होंने श्रुति से पुरानी दिल्ली वाले लहजे को इस नाटक में बहुत सफलता के साथ प्रयोग करवाया. दिल्ली छः की भाषा का उसकी बारीकियों को जाने बिना ही विभिन्न फिल्मों में बड़ा व्यापारिक उपयोग किया गया है. लेकिन सुभाष गुप्ता का स्वयं का बचपन वहाँ बीता है, अतः वे इस नाटक की भाषा के साथ न्याय कर पाये हैं.

एकल नाटक में एकरसता या मोनोटोनी की समस्या सदैव ही रहती है. यों भी, दिल्ली का आजकल का दर्शक बहुत जल्दी ऊब जाता है. ऐसे में, एक तो नाटक के आलेख को सम्पादित करके कुछ छोटा करने की आवश्यकता है. दूसरे, इस नाटक में एकरसता की समस्या कुछ अधिक ही अनुभव की गई, विशेषकर नाटक के पूर्वार्द्ध में, जब तक रज्जाक का प्रवेश नहीं हुआ था. दर्शकों को बांधे रखने के लिये निर्देशक को इस पक्ष पर विचार करना होगा. आलेख में कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन करके नगीना के इस सशक्त चरित्र को कुछ और अधिक बहुआयामी बनाने की सम्भावनाएँ नाटक में हैं. लगातार फ्लैशबैक में चलने वाले इस नाटक में, गली में बहुत सी घटनाएँ घटित होती हैं. गली में घटित होने वाली घटनाओं को दिखाने के लिये, घर के दरवाजे को किसी अन्य स्थान पर स्थानान्तरित करके भी बहुत सशक्त तरीके से प्रस्तुति की एकरसता को समाप्त किया जा सकता है. इससे नगीना और रज्जाक दोनों ही का चरित्र और अधिक उभर कर आयेगा.

एकल नाटक होने के कारण कलाकारों के परिधान में बहुत अधिक सम्भावनाएँ नहीं थीं. और अभियान तो बिना टीम-टाम के, अपनी सादगीपूर्ण, यथार्थवादी प्रस्तुतियों के लिये ही जाना जाता है. फिर भी, फ्लैशबैक के दृश्यों में यदि एकाध स्थान पर कलाकारों के परिधान बदले रहते, तो नाटक की एकरसता को तोड़ा जा सकता था.

अभियान पिछले पचपन वर्षों से अधिक से नाटक करता आ रहा है. उनके पास मंच पर और मंच के पीछे एक बहुत सशक्त टोली है. उस सशक्त आधार को प्रयोग करके, और कुछ नये नाटकों और आलेखों का प्रयोग करके अभियान दिल्ली के सुप्तप्रायः रंगमंच-जगत में नई जान फूँकने की क्षमता रखता है. इसके साथ ही साथ, उनके पास अपना एक बहुत सशक्त दर्शक-वर्ग भी है. ऐसे में दिल्ली के दर्शकों की अभियान से कुछ अलग विषयों पर, और कुछ नये नाटकों की अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा! हिन्दी में पुराने और नये भी बहुत से अच्छे नाटक हैं. आशा है कि अभियान इस ओर ध्यान देगा.

आजकल दिल्ली में नाटक करने के लिये प्रेक्षागृह तीसरे पहर दो बजे ही मिल पाता है! और पाँच या छः बजे शो होता है. उसके पहले कलाकारों के द्वारा एक रिहर्सल भी जरूरी होती है. ऐसे में, मंच-आलोकन करने वाले व्यक्ति को कठिनाई से एक-दो घंटे का ही समय लाइट-डिजाईन करने के लिये मिलता है! इतने कम समय में क्या मंच-आलोकन सम्भव है? और यदि यह सम्भव नहीं है, तो क्या दिल्ली में मंच-आलोकन की कला समाप्त हो जायेगी? इस प्रश्न पर दिल्ली के रंगकर्मियों को गम्भीरता से विचार करना होगा, और इस विषय में कुछ कदम उठाने ही होंगे; अन्यथा, आजकल की तथाकथित “इंटैलीजैंट लाइट्स” मंच-आलोकन की प्रयोगशीलता को समाप्त कर देंगी!




मन के भँवर

मन के भँवर
अनिल गोयल

हिन्दी में नाटकों की कमी का रोना रोते रहना हमारे रंगकर्मियों का प्रिय व्यसन है, जबकि हजारों नाटक हिन्दी में लिखे गये हैं. लगभग पाँच दशक पूर्व लिखी गई डॉ. दशरथ ओझा की पुस्तक ‘हिन्दी नाटक कोश’ में ही अनगिनत नाटकों का विवरण दिया गया है; इसके बाद से तो और न जाने कितने नाटक लिखे जा चुके हैं. किसी भी अच्छे पुस्तकालय में नाटकों की सैंकड़ों पुस्तकें मिल जाती हैं. रुदाली के इस व्यसन में रत हमारे रंगकर्मी मराठी, बंगाली, कन्नड़ इत्यादि भारतीय भाषाओं, तथा विदेशी भाषाओं से भी नाटकों का हिन्दी में अनुवाद करके काम चलाते रहे हैं.

इससे कहीं अधिक आसान काम था अपनी ही भाषा में मंचन-योग्य नाटक खोजना. किन्तु वह काम हमारे रंगकर्मियों ने नहीं किया. ऐसे में, अपने उत्कृष्ट अभिनय के लिये संगीत अकादमी सम्मान से सम्मानित भूपेश जोशी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नाटककार दया प्रकाश सिन्हा के नाटक ‘मन के भँवर’ को खोज कर और उसे मंचित करके एक प्रशंसनीय कार्य किया है. हिन्दी के एक प्रतिष्ठित लेखक के एक लगभग भुला दिये गये एक मूल हिन्दी नाटक को प्रस्तुत करना सचमुच भूपेश की खोजी नजर को दर्शाता है. साठ और सत्तर के दशकों में आकाशवाणी पर मनोवैज्ञानिक घटनाक्रम वाले अनेक नाटक प्रसारित हुए. परन्तु उन्हें रंगमंच पर शायद ही कभी मंचित किया गया होगा. रेडियो नाटक को नाटक की विधा क्यों नहीं माना गया, यह शोध का विषय हो सकता है, हिन्दी साहित्य की ही तरह हिन्दी रंगमंच भी अपने-अपने दड़बों में बन्द रहने की प्रवृत्ति का शिकार रहा है…
सन 1960 में लिखा गया नाटक ‘मन के भँवर’ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित एक बहुत ही संवेदनशील नाटक है। तलाक का कानून पारित हो जाने के बाद, साठ के दशक में भारतीय समाज में परिवारों के विघटन का काल प्रारम्भ हो चुका था. स्वतन्त्रता के बाद भारतीय समाज में तीव्र गति से परिवर्तन भी आ रहे थे. इन सब परिवर्तनों के चलते पति-पत्नी के बीच की बढ़ने वाली दूरियों और परिवारों के विघटन का चित्रण इस नाटक में किया गया है. अचम्भे की बात है कि मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में ही दया प्रकाश सिन्हा ने इस पारिवारिक टूटन और विघटन का इतना सटीक चित्रण कैसे किया! और उससे भी अधिक अचम्भे की बात है हिन्दी रंगमंच-जगत की इस नाटक की पूर्ण उपेक्षा. दया प्रकाश सिन्हा के अनुसार, इस नाटक के लिखे जाने के बाद के कुछ वर्षों में इसके कुछ मंचन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) और लखनऊ इत्यादि में हुए थे. लेकिन उसके बाद साठ वर्षों तक, नाटकों की कमी का रोना रोते रह कर भी किसी ने इस नाटक पर ध्यान नहीं दिया! 1968 में प्रकाशित इस नाटक के पचपन वर्षों में इस नाटक की पूर्ण उपेक्षा हिन्दी रंगमंच की सोच को बखूबी दर्शाती है!

नाटक का शीर्षक ‘मन के भँवर’ नाटकों के दो प्रमुख पात्रों डॉ. वशिष्ठ और उनकी पत्नी छाया के मन में उठते विचारों के भँवर का ही चित्रण है. विचारों की भँवरों में डूबती-उतराती युवा गृहिणी छाया अपने जीवन के पिछले दिनों में ही कैद है, और उससे बाहर आने का कोई प्रयास वह नहीं करती है. दूसरी ओर, डॉ. वशिष्ठ अपने रोगियों की चिकित्सा में पूर्ण समर्पण भाव से रत हैं. वे अपनी एक मनोरोगी पूनम के उपचार के लिये उससे बहुत कोमलता और मधुर तरीके से बातचीत और व्यवहार करते हैं. छाया उन दोनों के बीच की बातचीत को उनके बीच बढ़ती नजदीकियाँ मानने की भूल करती है, और डॉ. वशिष्ठ के साथ व्यंग्यात्मक तरीके से बातचीत करके उनके चरित्र पर उँगलियाँ उठाने लगती है. इससे पति और पत्नी के बीच टकराहट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और तदुपरान्त वे दोनों खुल कर एक-दूसरे पर प्रहार करने लगते हैं.
वास्तव में, इन दोनों के बीच के अन्तर का मूल कारण इन दोनों की बिल्कुल अलग-अलग पृष्ठभूमि का होना, और छाया का पूर्ण असहयोगी रवैया हैं. आर्थिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न परिवार से आई छाया के मन में अपने पति के लिये तनिक भर भी सम्मान नहीं है, न ही उसका अपनी वाणी या व्यवहार पर कोई नियन्त्रण है. छाया का यह असंवेदनशील व्यवहार पति-पत्नी को एक-दूसरे से दूर कर देते हैं, जिसमें परिवार जैसी किसी चीज के प्रति छाया के मन में बिलकुल भी सम्मान नहीं है. इसी बीच, छाया के कॉलेज के दिनों का मित्र, एक निम्न स्तर का फिल्म-अभिनेता देवेन्द्र छाया के घर आता है, और उसे अपनी बातों के सब्जबाग दिखा कर अपने साथ भगा ले जाने में सफल होता है. डॉ. वशिष्ठ अकेले पड़ जाते हैं, और अपना पूरा समय अपने रोगियों की सेवा में लगा देते हैं. बाद में छाया के मर जाने का समाचार आता है. डॉ. वशिष्ठ को उनकी सेवाओं के लिये भारत सरकार और यूनेस्को से सम्मान प्राप्त होता है, तो नगर के लोग उनका सम्मान करने के लिये जलूस के रूप में उनके घर आ रहे हैं. तभी मृत-घोषित छाया वहाँ आ जाती है, और डॉ. वशिष्ठ से अपने लिये सहारा माँगती है, क्योंकि तब तक देवेन्द्र की भी मृत्यु हो चुकी है, और अब छाया अकेली है. डॉ. वशिष्ठ उसे स्वीकार नहीं कर पाते, और छाया वहाँ से चले जाने पर मजबूर हो जाती है. लेकिन घर के बाहर निकलते ही उसकी मृत्यु हो जाती है. डॉ. वशिष्ठ को जब किसी ‘अनजान’ स्त्री के उनके घर के सामने मर जाने का समाचार दिया जाता है, तो वे छाया के एक अनजान महिला की लाश के रूप में ले जाये जाने पर चुप रह जाते हैं, हालांकि इस समाचार से वे गहरे मानसिक दबाव में अवश्य आ जाते हैं. और उसी दबाव के फलस्वरूप, अपने को इस सब के लिये दोषी मान कर वे विष खा कर अपना प्राणान्त कर लेते हैं.

इस नाटक में छाया एक ऐसा दुरूह चरित्र है, जिसके पास जब सब कुछ था, तो उसने उसकी महत्ता नहीं समझी। और फिर, जब उसके हाथ से सब कुछ छूट गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। समय रहते उसने रिश्तों को सम्मान नहीं दिया, और फिर वह उलझ गई मन के भंवर में। प्रताप सहगल इस नाटक को ‘कथा एक कंस की’ के साथ दया प्रकाश सिन्हा के दो श्रेष्ठ नाटकों में से एक मानते हैं. नाटक में छाया के रूप में मोहिनी सुंगर ने, और डॉ. वशिष्ठ के रूप में नाटक के निर्देशक भूपेश जोशी ने बहुत सुन्दर अभिनय किया. भूपेश जोशी सामान्य चरित्रों की अपेक्षा जब इस प्रकार के मनोवैज्ञानिक चरित्रों के रूप में आते हैं, तो उनके अभिनय में एक अलग ही निखार आ जाता है… मानसिक दबाव को झेलता, अपनी सिगरेट से अपनी बेबसी को झलकाता हुआ, अपने को समाज की सेवा में पूर्णतः समर्पित कर चुका एक आदर्शवादी डॉक्टर कैसे अपनी घमण्डी और नासमझ पत्नी के व्यवहार का शिकार होता रहता है, कैसे वह अपने विवाह के तुरन्त बाद से लगातार एक बेबसी का जीवन जीने को विवश हो जाता है, भूपेश ने चरित्र में डूब कर बहुत सशक्त तरीके से इसको जिया. इसी प्रकार, अपने प्रेमी देवेन्द्र के मर जाने पर अकेली पड़ जाने के बाद छाया जब डॉ. वशिष्ठ के पास लौटती है और उनके सामने गिड़गिड़ा कर उससे अपने को वहाँ रहने देने की भीख माँगती है, इसे मोहिनी सुंगर ने बहुत सुन्दरता के साथ मंच पर प्रस्तुत किया.
लेकिन ऐसे सुन्दर नाटक में किस प्रकार के प्रकाश-संयोजन की आवश्यकता है, इसे इस नाटक के प्रकाश संयोजक नहीं समझ पाये. डॉ. वशिष्ठ और छाया के पल-पल बदलते मूड को यदि उचित प्रकाश-परिकल्पना का सहयोग मिला होता, तो नाटक और भी अधिक प्रभावशाली बन पाता!

प्रकाश-सञ्चालन को ले कर भी निराशा ही हाथ लगी. मंच-आलोकन में कथानक और चरित्रों की मनोदशा को यदि प्रकाश-संयोजक न समझ पाये, तो नाटक दर्शकों पर अपना सम्पूर्ण प्रभाव छोड़ने में विफल हो जाता है. इस प्रकार के नाटकों में लाईटों का खेल नहीं, बल्कि नाटक के मूड के अनुसार अति-संवेदनशील

प्रकाश-व्यवस्था करने से ही नाटक दर्शकों तक पहुँच पाता है. यदि इस नाटक का कथानक बहुत सशक्त न होता, तो यह नाटक एक विफल नाटक की श्रेणी में आ जाता! रवि शंकर शर्मा का संगीत अवश्य इस नाटक के प्रवाह को सम्भालने में एक सीमा तक सफल रहा.

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मिस्टर राईट

मिस्टर राईट
अनिल गोयल

समुद्र-मन्थन के समय देवताओं और दानवों के बीच हुए संघर्ष के समय से ही अच्छे और बुरे के बीच के द्वंद्व को विभिन्न तरीकों से दिखाया जाता रहा है. राम और रावण का संघर्ष हो या कृष्ण और कंस का, मनुष्य के मन की दैवीय और राक्षसी प्रवृत्तियों के बीच का यह संघर्ष सदैव से यूँ ही चलता आया है, और जब तक मनुष्य नाम का यह दो पैरों वाला प्राणी इस पृथ्वी पर है, यह संघर्ष यूँ ही चलता रहेगा.

26 मार्च को चाणक्यपुरी में नेपथ्य फाउंडेशन द्वारा माला कुमार के निर्देशन में नाटक ‘मिस्टर राईट’ मंचित किया गया. नाटक के लेखक मोहित चट्टोपाध्याय (चटर्जी) ने अपने इस नाटक में इस संघर्ष को एक नये ही तरीके से प्रस्तुत किया है. उन्होंने अपने इस नाटक में दिखाया है कि अच्छी और बुरी दोनों ही प्रवृत्तियाँ मनुष्य के अन्दर ही रहती हैं, जैसे कि हमारे दो हाथ हमारे साथ हमेशा रहते हैं, और बुरी प्रवृत्तियों से बचने के लिये मनुष्य को जीवन भर सतत प्रयास करते रहना होता है. नाटक में, एक दुर्घटना में रजत (संजीव जौहरी) की कार के नीचे आ कर उसके एक जानकार रुशेन की मृत्यु हो जाती है. रुशेन का विवाह तन्द्रा (सुनीता नारायण) से होने वाला था. तन्द्रा मानती है कि यह कोई दुर्घटना नहीं थी, बल्कि रजत ने जानबूझ कर रुशेन की हत्या की है. रजत उसे समझाने का प्रयास करता है, कि यह सचमुच एक दुर्घटना भर थी, और दुर्घटना के उस क्षण में उसका अपने दाहिने हाथ पर नियन्त्रण नहीं रहा था. स्वाभाविक रूप से, तन्द्रा उसकी बात का मजाक उड़ाती है. इस पर रजत, या फिर उसका नियन्त्रण से बाहर जा चुका उसका दाहिना हाथ तन्द्रा का गला घोटने लगता है, जिससे तन्द्रा बहुत कठिनाई से बच पाती है.

रजत अपनी इस समस्या से छुटकारा पाने के लिये एक पण्डित (प्रदीप कुकरेजा) को बुलाता है. पण्डित एक रक्षा-सूत्र उसके हाथ में बाँध कर चला जाता है, परन्तु उससे रजत की स्थिति में कुछ विशेष अन्तर नहीं पड़ता. रजत अपने डॉक्टर मित्र सिन्धु (प्रवीण कुमार) से इस बारे में बातचीत करता है, तो सिन्धु बताता है कि रजत को एक बहुत ही अनजानी सी बीमारी है, जिस में व्यक्ति का अपने शरीर के किसी अवयव पर से अधिकार समाप्त हो जाता है, और वह अवयव स्वतन्त्र रूप से काम करने लगता है. रजत को समझ आ जाता है, कि उसके मन के विकारों ने उसके दाहिने हाथ पर नियन्त्रण पा लिया है, और अब उसका दाहिना हाथ ‘मिस्टर राईट’ उसकी नहीं सुनेगा. इस बीच, एक अनजान युगल, बॉबी (कीमती आनन्द) और मिली (माला कुमार) उसके घर में शरण लेने के लिये आते हैं, तो भी रजत का ‘मिस्टर राईट’ मिली के साथ गलत हरकत करने का प्रयास करता है, लेकिन वे दोनों उसे ठग कर चले जाते हैं. इसके बाद रुशेन के भाई विमल बाबू (संजीव सलूजा) आकर रजत को बताते हैं, कि रुशेन मानसिक समस्या से ग्रस्त था. जब तन्द्रा को इस बात का पता चलता है, तो उसके मन की गलतफहमियाँ दूर हो जाती हैं. उसके मन में उठे सद्भावों से सशक्त हो कर धीरे-धीरे रजत अपने ‘मिस्टर राईट’ पर भी अपना अधिकार पुनः पाने में सफल होता है.

नाटक के ज्यादातर कलाकार दिल्ली के पुराने, बहुचर्चित और मंजे हुए कलाकार हैं, और एकदम कसा हुआ अभिनय करने के लिये जाने जाते हैं. इसी कारण, नाटक में सभी कलाकारों का अभिनय बहुत शक्तिशाली रहा. नाटक की निर्देशिका माला कुमार दूरदर्शन व रेडियो से लगातार जुड़ी रही हैं. अभियान रंगसमूह के साथ उन्होंने बहुत काम किया है, और पिछले लगभग 5-6 वर्षों से अपनी संस्था ‘नेपथ्य’ चला रही हैं. इस नाटक की मंच-सज्जा और कलाकारों के परिधान में भी एक सुरुचिपूर्ण, कलात्मक दृष्टि स्पष्ट नजर आती थी.

रजत की भूमिका निभाने वाले संजीव जौहरी अनेक प्रसिद्ध नाट्य –निर्देशकों के साथ काम कर चुके हैं. उन्होंने रंगमंच पर अपना पदार्पण 1989 में अभियान रंगसमूह के नाटक ‘चक्रव्यूह’ के साथ किया था. वे ‘अभियान’ के लिए ‘अंधी गली’, ‘मिस्टर राईट’ तथा ‘पंछी ऐसे आते हैं’ का निर्देशन कर चुके हैं. उन्होंने ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन के लीला आर्ट्स प्रोडक्शन के लिए भी ‘जात ही पूछो साधु की’, ‘पंछी ऐसे आते हैं’ तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटक ‘राजा’ की संगीतमय प्रस्तुतियां दी हैं. ‘इल्हाम’ में सुभाष गुप्ता के निर्देशन में अभिनय करने के साथ-साथ और भी कितने ही नाटकों में अभिनय किया है. कीमती आनन्द का नाम तो दिल्ली के पुराने लोग बहुत अच्छे से जानते हैं…. दिल्ली में रंगमंच व दूरदर्शन के वे जाने-पहचाने कलाकार हैं. मॉडर्न स्कूल में पढ़े, और मॉडर्न स्कूल ओल्ड स्टूडेंट्स एसोसिएशन से जुड़े रहे प्रदीप कुकरेजा भी दिल्ली रंगमंच का पुराना, जाना-पहचाना चेहरा हैं, जो रेडियो और दूरदर्शन पर अभिनय करते रहे हैं. सुनीता नारायण को संजीव जौहरी ने अभियान के लिये निर्देशित किये नाटक ‘अंधी गली’ में अभिनय के लिये लिया था. सिन्धु के रूप में प्रवीण कुमार, पत्रकार की भूमिका में अतिन रस्तोगी, और नौकर मंगल की भूमिका में आशीष अग्रवाल ने भी अपना मोहक अभिनय दे कर नाटक की सफलता में अपनी-अपनी भूमिका निभाई.




सुख भरी नींद का सपना

सुख भरी नींद का सपना
– एक नया बिदेसिया

     — अनिल गोयल

Shabdayatan
Courtesy: Shabdytan/Ed.Partap Sehgal

“हियाँ के गाँव और गाँवन के जैसे नईं लगत ऐं!” खिड़की के बाहर तेजी से भागते, पीछे छूटते मकानों, दुकानों, खलिहानों को देखती हुई वह बोली.

बस में बैठ कर अपने मोबाईल में खो जाना तो आजकल हर उम्र के लोगों का स्वभाव हो गया है.  जैसे बड़े शहरों में लोगों को अपने पडोसी का नाम भी मालूम नहीं होता, वैसे ही आजकल पाँच-सात घन्टों का सफ़र कर लेने पर भी बस में साथ बैठे लोग एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देखते-पहचानते; सफ़र के दौरान बीच के किसी शहर में बस के रुकने पर आप यदि नीचे उतर कर चाय पीने चले जाएँ और कोई अन्य व्यक्ति आपकी सीट पर आकर बैठ जाये, तो आपके पडोसी को पता भी नहीं चलेगा… वो जमाने अब कहाँ रहे, जब रेल के सफर के पूरा होते-होते तक उस दिन पहली बार एक-दूसरे से मिली दो स्त्रियों के पोते-पोती की शादियाँ भी तय हो जाया करती थीं!

लेकिन यह स्त्री तो अपने से दुगने से भी बड़ी उम्र के श्यामलाल जिन्दल से यात्रा के शुरू होने के समय से ही ऐसे घुलमिल कर बातें करती चली आई थी, जैसे छुटपन से ही उनको जानती रही हो.  कोई स्त्री अपने पति और बच्चों के बारे में या तो अपने मायके वालों से बातें करती है, या फिर अपने ऑफिस की लड़कियों से!  किसी अनजान आदमी से कौन औरत ये सब घरेलू बातें करेगी भला!

लेकिन जिन्दल साहब को इस पिछले एक-डेढ़ घन्टे में ऐसा लगने लगा था, कि जैसे वे इसके पिता के कोई पुराने मित्र हैं जो कभी रोज शाम को उनके साथ बैठ कर चाय पिया करते थे!  तभी तो दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे पर बस में बैठने के बाद से वह श्यामलाल जी को अपने पति और बच्चों ही नहीं, सास-ससुर और देवर और माँ-बाप से लेकर गाँव-मोहल्ला, और अपनी तथा अपने पति की नौकरी तक के भी बारे में सारे विवरण, सारी जानकारियाँ दे चुकी थी.  शुरू में वे उसकी एक-दो बातें सुनने के बाद फिर अपने मोबाईल में व्हाट्सैप पर सन्देश देखने लगे थे.  लेकिन फिर बगल में बैठी इस स्त्री की बातों की अविराम तेज़ धारा में बहते-बहते कुछ समय बाद उन्होंने अपना मोबाईल बन्द ही कर दिया; उन्हें समझ में आ गया था कि इसकी बातों में सिर्फ हाँ-हूँ करने से काम चलने वाला नहीं है – इसकी बातों में एक वाचाल स्त्री का सा अनर्गल प्रलाप तो है, लेकिन एक अजीब सी आत्मीयता भी है, जिससे यह तुरन्त सम्बन्धों की नवीनता की दूरियों को मिटा देने की क्षमता रखती है!

अपने सफ़ेद बालों के प्रति कुछ ज्यादा ही सचेत रहने वाले जिन्दल साहब जब बस-अड्डे पर बस में चढ़े, तो बस में इस लड़की के साथ वाली यही एक सीट खाली थी, बाकी सब सीटों पर यात्रीगण विराजमान थे.  एक बार तो उनका बुजुर्ग मन हिचकिचाया, सोचा कि अगली बस पकड़ लेंगे;  लेकिन कोई और चारा न देख कर सकुचाते-से वहीं बैठ गये – उन्हें हिसार में काम निपटा कर उसी शाम दिल्ली वापिस भी लौटना था.  और यह बस छोड़ दी, तो फिर अगली बस न जाने कितनी देर में मिले!  अतः उस युवा स्त्री की बगल में बस की इस गलियारे वाली सीट पर बैठने के अतिरिक्त और कोई चारा न था.

बैठते ही उस स्त्री ने सवाल दागा था, “हिसार जाय रए आप भी?”

“हां,” कह कर जिन्दल साहब ने अपनी इस सहयात्री को ध्यान से देखा – मुश्किल से सत्ताईस-अठाईस वर्ष की यह स्त्री, एकदम सुघड़ तरीके से साधारण लेकिन एकदम साफ-सुथरे कपडे पहने बैठी थी.  उसकी अत्यन्त साधारण दशा का फीकापन उसके चेहरे के एक अजीब से आत्मविश्वास की चमक से दमक ही रहा था.  कपड़ों के अत्यन्त साधारण होने पर भी आत्म-विश्वास की भव्यता कैसे चेहरे को दमका देती है, यह बात इस लड़की को देख कर अनायास ही समझ में आ जाती थी!  और फिर जैसे पुराने जमाने के स्पूल-रिकॉर्डर का बटन एक बार दबा देने पर गाने अनवरत चलते ही रहते थे, वैसे ही यह स्त्री पिछले डेढ़ घन्टे से लगातार बोले ही जा रही थी – इस टेप-रिकॉर्डर में आवाज को बन्द करने का बटन लगाना भगवान जैसे भूल ही गया था!

“आप कहाँ सर्विस करत हैं?”  उसने पूछा, तो वे बोले, “अखिल भारती बैंक में…”

“क्या हैं आप वहाँ?”

“चीफ मैनेजर हूँ,”  कह कर वह सोचने लगे कि अपने किसी भाई-बन्द की नौकरी लगवाने की बात ना कर दे अब यह.  लेकिन वह तो कुछ और ही बोली, “कितने साल हो गये दिल्ली में रहते आपको?”  उसे मेरे ओहदे से कोई फर्क पड़ा होगा, मुझे सन्देह था!  उसका निस्संकोच प्रश्न मेरा मुँह ताक रहा था.

“हम तो जन्म से यहीं हैं.  पैदा गाँव में हुए थे, लेकिन पिताजी की नौकरी दिल्ली में थी, तो रहे दिल्ली में ही!”

“कैसे आपने जिन्दगी के पचास-पचपन साल दिल्ली में काट लए?  हमारा तो आठ सालों में ही दम घुटने लगा है यहाँ!”

“मैं भी सोचता हूँ कि रिटायरमैंट के बाद गाँव वापिस लौट जाऊँगा.”

“कैसे जायेंगे!  मोड़ा-मोड़ी सब शहर में होएंगे!  कैसे छोड़ पाएँगे उनैं?”  अद्भुत ब्रह्मज्ञान उसके श्रीमुख से झर रहा था!  बात तो उसकी ठीक थी.

श्यामलाल जी बोले, “हमारा मामला थोड़ा अलग है.  घर-परिवार सब गाँव में ही रहा, बुआ-चाचा-ताऊ, सब वहीं हैं, पूरा डेढ़ सौ लोगों का कुनबा है आस-पास के गाँवों में.  दिल्ली में तो हम अकेले ही हैं.  लड़की हमारी कानून पढ़ कर मजिस्ट्रेट हो गई है, शादी करके अपने घर चली गई!  बड़ा बेटा हैदराबाद में है, छोटा लड़का हमारा भोलेनाथ जी हैं, उनका क्या – दिल्ली में रहें या गाँव में, उसने तो अपनी बिसाती की दुकान चलानी है.  दिल्ली में तो न तो ढंग से साँस ले सकते हैं, न रात को चैन से सो सकते हैं… इतनी तेज बत्तियाँ गलियों में लग गई हैं कि नींद ही नहीं आती उनके मारे – चैन की नींद तो जैसे सपना ही हो गई है वहाँ!  मैं तो दिल्ली का मकान बेच कर गाँव में जमीन खरीदूँगा, नीचे दुकानें बनाऊँगा, ऊपर दो मंजिलें रहने के लिये!  एक मकान एक दुकान खुद के लिये रखेंगे, एक दुकान एक मकान किराये पर चढ़ाएँगे – थोड़ा-बहुत किराया आयेगा, और ठाठ से अपनी दुकान भी चलाएँगे.”

यह योजना आज तक जिन्दल साहब ने अपनी घर वाली को भी नहीं बताई थी… इस अनजान लड़की के सामने यह पूरी योजना कैसे खुल गई, उन्हें खुद भी समझ नहीं आया!  शायद उस स्त्री की वाचालता का असर उनके जैसे कड़कपन और मितभाषिता के लिये बदनाम बैंक-मैनेजर पर भी हो गया था!

उस स्त्री को भी दिल्ली छोड़ कर गाँव में जा बसने का सपने देखने वाला कोई और व्यक्ति शायद अभी तक मिला नहीं था – यह पहला मनुष्य था जो दिल्ली छोड़ने की पगलाई सी बात कर रहा था.  लेकिन हरियाणा के गाँव उसने देखे थे, अतः बात कुछ-कुछ उसके पल्ले पड़ भी रही थी.

“हओ, गाँव यहाँ के अच्छे तो हैं – सड़कें भी अच्छी हैं, लोग भी अच्छे हैं.  उठाईगिरी, लुच्चागिरी, लफँगई बिल्कुल नईं दिखती.  कभी भी कहीं भी जाऔ, कोई समस्या नईं ऐ… बस, बोली यहाँ की बहुत ख़राब हती… भाषा तो एकदम उजड्ड है… अड़ै-उड़ै करके बोलत ऐं.  इसीलिये हम अपने बच्चौं को अपने साथ दिल्ली में ही रखत ऐं, यहाँ तो हमारे बच्चों की भाषा ख़राब हो जाती.  भाषा ही यदि ठीक नईं है, तो क्या ठीक होएगा!”

यहाँ के समाज का इतना सुन्दर विश्लेषण खुद जिन्दल साहब कभी नहीं कर पाये थे, जो इस ब्रम्हज्ञानी लड़की ने तुरत-फुरत कर दिया!  ज्ञान स्कूल जाकर किताबों से ही मिले, अपने यहाँ तो कभी ऐसी मान्यता ही नहीं रही है!  अगर ऐसा ही होता, तो संसार भर के ज्ञान की बातें नॉएडा की किसी फैक्ट्री में काम करने वाली, कभी स्कूल का मुँह भी जिसने नहीं देखा था ऐसी इस साधारण-सी ग्रामीण महिला के श्रीमुख से धड़धड़ न झर रही होतीं.

साँपला के बस-अड्डे से बस बाहर निकली, तब वह बोली, “बस बहुत धीमे नहीं चल रही ऐ?”

बस तो अपनी गति से ठीक ही चल रही थी!  जिन्दल साहब ने कोई उत्तर नहीं दिया.  जल्दी के चलते चाह तो वे भी रहे थे कि आवाज लगा कर ड्राईवर को बस को थोड़ा और तेज चलाने को बोलें.  लेकिन वे जानते थे कि हरियाणा में ऐसा करना खतरे से खाली नहीं होता था.  अपने यहाँ के ड्राईवरों के कैसे मनोरंजक जवाब उन्हें मिल सकते हैं, वे भली-भांति जानते थे, अतः उन्हें चुप रहना ही ठीक लगा – याद आ गईं बचपन से अब तक की यहाँ की हजारों बस-यात्राएँ… ड्राईवर को बस तेज चलाने के लिये बोलने पर क्या-क्या जवाब सवारियों को मिल सकते थे… एक बार एक ड्राईवर किसी से बोला था, ‘रै डट ले ना ताऊ, जल्दी पहुँच कै के आपणी बुआ के फेरे देक्खैगा!’  मतलब, आदमी को जल्दी केवल बुआ के ब्याह के ही कारण हो सकती है?  एक बार एक ड्राईवर किसी सवारी से बोला था, ‘रै ताऊ, इतनी गारती ना तारै, इबी तै बहुत सावण के झुल्ले झुल्लेगा तौं ताई गेल!’  सावन के झूले!  और यदि उस आदमी का अपनी पत्नी से छत्तीस का आँकड़ा रहता हो, और उनहोंने जीवन भर में कभी एक बार भी इकट्ठे झूला न झूला हो, तो?  लेकिन वह ड्राईवर तो उन दोनों को सावन का झूला झुला कर ही रहेगा, फिर चाहे झूले के पटरे पर दोनों आगे-पीछे एक-दूसरे की तरफ को पीठ करके ही बैठें!  शायद पिछले जन्म में मैरिज काउंसलर रहा हो यह ड्राईवर!  और एक बार तो इतना मजा आया था ड्राईवर का उत्तर सुन कर, ‘के बात सै छोकरी!  न्यूं तो कती बहुत सुथरी लाग्गै है कपड़ेयाँ तै, पर… टिकट ना ले रक्खी के, जो उतरण की जल्दी होण लाग री तन्ने!’  हाँ, इससे यह अवश्य लक्षित होता था कि यहाँ के समाज के ये संवाद हरियाणा में बुआ और ताऊ जैसे सम्मानित और गरिमा-पूर्ण रिश्तों तक ही सीमित रहते थे, उससे आगे नहीं जाते थे…

बस रोहतक से निकल कर छोटे-छोटे गाँवों को पीछे छोड़ती महम की तरफ को बढ़ने लगी थी, जब उसने बोला था कि यहाँ के गाँव गाँवों के जैसे नहीं लगते.  “हरियाणा के और तुम्हारी तरफ के गाँवों में फर्क है,” अपना ज्ञान बघारने का अवसर मिलने पर जिन्दल साहब को बड़ी राहत सी महसूस हुई, बहुत देर से उसकी ही बातें सुनते-सुनते बड़ी घुटन सी महसूस होने लगी थी उन्हें, “यहाँ के गाँवों में तुम्हें कच्चे घर, झोंपड़ी, खपरैल के घर नहीं मिलेंगे, लोगों के पास पैसा बहुत है, खेती-बाड़ी खूब है, रोजगार है, आय अच्छी है; इसलिये सारे घर यहाँ पक्के ही मिलेंगे… इसीलिये यहाँ के गाँव शहरों के जैसे ही लगते हैं, बाकी जगहों के गाँवों से एकदम अलग!”

“अब गाँव भला गाँव के जैसा ना लगे तो वह गाँव क्या हुआ!  घर-मकान सब पक्के हो गये, तालाब और मन्दिर भी सब कुछ पक्का ही पक्का, तो फिर शहर ही क्या बुरा है?”  जिन्दल साहब को एकदम कोई जवाब नहीं सूझा, तो वे इस ब्रह्म-ज्ञानिनी के आगे चुप कर रहे.

थोड़ी देर बाद वे बोले, “हिसार में क्या मायका है तुम्हारा?”

“नहीं, मायका तो मेरा झाँसी में है.  हिसार में तो वो रहत ऐं.”

“वो मतलब…?  अच्छा, वो…!” जिन्दल साहब रिश्तेदारियों का हिसाब लगाने में अक्सर गड़बड़ा जाया करते थे… लेकिन आज तो मतलब, उन्होंने हद ही कर दी… वह लड़की उनकी शक्ल देखने लगी.  वे बोले, “तो मायके से अपने घर लौट रही हो!”

“नहीं, नहीं… हम तो नॉएडा में रहत ऐं, वहीं नौकरी करत ऐं एक फैक्ट्री में… तीन दिन की छुट्टी हुई वहाँ, तो सोचा, उनके पास रह आऊँ!”  एक लम्बी निश्वास लेकर वह बोली, जैसे कितना बड़ा बोझ था पतिदेव के पास जाना!  जिन्दल साहब को लगा, जाने कितना बड़ा एहसान करने वाली थी वह अपने पति पर, तीन दिन उसके साथ रह कर!

“अच्छा! तुमने तो एक नया बिरहा रच दिया… पति तो हिसार में है, और तुम नौकरी करने के लिये दिल्ली में पड़ी हो!”  वह चुप रही.

“सास-ससुर नौकरी करते हैं क्या दिल्ली में?”  जिन्दल साहब ने पूछा, तो वह बोली, “नहीं, ससुर तो ज्यादातर गाँव में ही रहत ऐं; कभी खेती-बारी, कभी घर-परिवार में कोई लगन-बियाह तो कभी कुछ;  मेरी सास मेरे साथ हैं, और दो मोड़ा हैं हमारे, मतलब… मतलब… लड़का… दो लड़का हैं हमारे… नीरज नाम है हमाऔ …”

जिन्दल साहब ने अब तक उसका नाम नहीं पूछा था, सो उसने खुद ही बता दिया!  वह बोलती नहीं थी, शब्दों की मन्दाकिनी आप ही आप उसके गोमुख से प्रवाहित होती थी… भाषा इतनी सुन्दर, उच्चारण इतना स्पष्ट, जैसे काशी के कोई पण्डित प्रवचन कर रहे हों.  बातों-बातों में उसने बताया कि उसके पिताजी अपने घर में हर महीने रामचरितमानस का अखण्ड पाठ रखवाया करते थे, और उसी के बीच में कभी-कभी खुद ही मानस की व्याख्या भी किया करते थे.  “जाति के केवट हते हम लोग,” अत्यन्त दर्प से वह बोली – अपने को रामायण के निषादराज का वंशज मानते थे ये लोग, और मानस-पाठ को उत्तराधिकार में मिली बपौती, “हमईं नै तौ राम चन्नर जी महाराज और सीता मैया कौं गंगा मैया पार करवाई हतीं!”

बाप रे… जिन्दल साहब सोचने लगे, बपौती हो तो ऐसी… मकान-दुकान की बपौती भी क्या हुई भला!

“तुम हिसार में क्यों नहीं रहतीं अपने पति के पास?  वहाँ भी तो अच्छी नौकरियाँ मिल जाती होंगी!  कितनी फैक्ट्रियाँ हैं वहाँ भी!”

“मेरी और मेरे पति की कभी बनी नईं,” वह बोली, एक बेपरवाही, एक बेलौस मस्त तबियत उसके भरे हुए कपोलों और उसकी मानों धधकती हुई आँखों से छलक रही थी… “वो अनुशासन चाहते हते, और हम कभी सासन में बंध कैं रह नाएँ सकत… हमारे पिताजी नै कभी हमें अनुशासन मैं नहीं रखा… स्कूल पढ़ने भेजा, पर कभी नियम नैयें समझाये…!  हमाई सास भी इन्हें डांटती रहत ऐं, पर ये सुनते ही नहीं… तो वो बोलीं, तू चला जा जहाँ तुझे जाना है, हम तो नीरज के पास रहैंगे… ये लड़-झगड़ कै निऐं हिसार चले आये नौकरी कन्नै… हीहीही…”

‘क्या लड़की है यह!’ श्यामलाल जी ने सोचा… “तुमने तो गाय को अपने खूंटे पर बाँध रखा है, उसका बछड़ा तो खुद ही चला आयेगा पीछे-पीछे… कब तक हिसार में रहेगा!” जिन्दल साहब बोले, तो वह इतनी जोर से खिलखिला कर हँसी कि बस की सारी सवारियाँ औंचक सी इनकी तरफ को देखने लगीं.  लेकिन उसे तो यह बात जैसे पता ही नहीं चली.  वह तो बिना स्टॉप के बटन वाले टेपरिकॉर्डर की तरह बस बोले ही जा रही थी, “आँहाँ, ये नईंऐं आते हते दिल्ली होरी-दीवारी छोड़ कै नैयें… हमईं आ जात ऐं हिसार जब मन करत ऐ… नाराज रहत ऐं हम ते, कहत ऐं, हमार महतार और बच्चे अलग कद-दए तुमने तो हम ते… बहुत सीधे हैं हमारे ये…” कह कर खिड़की से बाहर देखने लगी… चारों ओर हरियाली फसलें लहलहा रही थीं… उसने निराश होकर निगाहें बस के अन्दर कर लीं… अभी हिसार के आने में देर थी!

लगभग आधा मिनट चुप रही होगी वो!  श्यामलाल जी ने मोबाईल की तरफ को देखा भर था, कि फिर उसकी आवाज आनी शुरू हो गई, “आप क्या काम ते जाय रए ऐं?  कोई सादी-बियाह?”

“नहीं शादी-ब्याह नहीं!  मैं रिटायर होने वाला हूँ एक-डेढ़ साल में… सोचता हूँ कि तब यहीं गाँव में वापिस आकर रहूँगा!”

“मर्द लोगन कों गाँव ही अच्छा लगत ऐ!  हमारे ये भी गाँव जाने की रट लगाए रक्खैंगे हर टैम!  हमें तो दिल्ली ही अच्छा लगत ऐ!  बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, साफ-सफाई, रोजगार – सब कुछ तो दिल्ली में है, गाँव में क्या रक्खा है?”  कभी वह अपने यहाँ की बोली बोलने लगती थी, फिर शायद उसे लगता होगा कि वह किसी बाबू आदमी से बात कर रही है, तो दिल्ली की भाषा बोलने लगती थी.  कितनी आसानी से ट्रैक बदल लेती थी इस लड़की की भाषा!

‘सब की अपनी-अपनी मजबूरियाँ हैं’, जिन्दल साहब ने सोचा, फिर बोले, “मेरे बच्चे तो पढ़-लिख कर दिल्ली से बाहर चले गये दोनों, अब दिल्ली में मेरा क्या रखा है!  छोटा लड़का कुछ करता नहीं, थोड़ा सीधा है, ज्यादा पढ़ा भी नहीं.  एक छोटी सी दुकान करवा दी है उसे घर के बाहर ही, शादी भी नहीं हुई उसकी.  अब रिटायरमैन्ट के बाद गाँव में आकर कुछ दिन साफ हवा में जिन्दगी बिता लें!  लड़के को भी वहीं अच्छी सी दुकान करवा देंगे!  लेकिन मेरी घर वाली नहीं मानती गाँव वापिस आने को!  वह कहती है ‘दामाद जी क्या गाँव की धूल फाँकेंगे, इतने बड़े जज हैं वो!’  अब, गाँवों में धूल-मिटटी कहाँ रही आजकल?  पक्की गलियाँ, पक्के मकान, पक्के खेत-खलिहान… नहीं नहीं… मतलब… खेत तो अब भी वैसे ही हैं, लेकिन खलिहान तो पक्के हो ही गये हैं!  लेकिन वह नहीं मानती.  अकेला कैसे रहूँगा गाँव में, अभी समझ नहीं पा रहा हूँ… नहीं जानता कि मन की कर पाऊँगा या नहीं.  लेकिन सोचने पर तो जोर नहीं है.  इसलिये दो बार चक्कर लगा चुका हूँ कि पता करूँ, क्या भाव चल रहे हैं गाँव में जमीनों के.  जानकारी पता करके रखने में क्या बुराई है!”

जो सम्भव नहीं है, उसे सम्भव बनाने का प्रयत्न वे कर रहे हैं, ऐसा जिन्दल साहब जानते थे!  लेकिन शायद कोई रास्ता निकल आये, इस अभिलाषा के साथ ही वे दो-चार महीने में गाँव चले आते थे!

“अपने लड़के का बायोडाटा और फोटू वाट्सैप कन्ना हमें, हम गाँव में अपने देवर को भेजेंगे, वह बहुत सादी-बियाह करवाता फिरत ऐ!  अपना कमीसन लेत ऐ, पर रिस्ता ऐसा करवाएगा, कि मोड़ी कईं जाए नईं सकत ऐ एक बार घर में आ जाने के बाद!  बहुत मानत ऐं लोग उसे!  नम्बर ले लओ हमार…”  और फ़ौरन अपना नम्बर उन्हें बोल गई… जिन्दल साहब ने नम्बर अपने फ़ोन में सेव कर लिया…

“हांसी… हांसी… हांसी… ओ चलो भाई हांसी आले… फिर हिसार ते पैल्लां गड्डी कहीं रुकने वाली नहीं ऐ…” कंडक्टर चिल्लाया, तो वो हड़बड़ा कर खड़ी हो गई… और जिन्दल साहब को लगभग ठेलती हुई सी बाहर निकलने को हुई, “हिसार आ गया… उतरिये!”

कैसी हड़बड़ी में थी यह औरत?  अभी तो अपने पति से इतना दूर का सा रिश्ता दिखा रही थी जैसे इसे केवल एक मजबूरी सी में ही हिसार आना पड़ता है.  और अब, हांसी को हिसार समझ कर यहीं बस से बाहर छाल मारने को उतावली हो रही है यह बावली!  यात्रा के प्रारम्भ में जिस पति से कभी न बनने की स्वाभिमान भरी गर्वोक्ति उसके मुख से निकली थी, अब वही मुख-मण्डल अपने उस विरही परदेसी से मिलने की अधीरता में कैसी कोमल रक्तिम आभा से भर आया था!

“हिसार नीं, हांसी आया है इबी… यहाँ मतनी उतर लिये… कदे फिर हल्ला काड्ढा!  आधा घंटा लगागा इबी हिसार आण मैं”, कन्डक्टर ने डांटा, तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी खिड़की से बाहर झाँकने लगी… बस-अड्डा उसे हिसार का सा नहीं लगा, तो अचकचा कर फिर सीट पर बैठ गई… उसके कानों की लौ की गहरी लाली जैसे हवा में घुलने लगी थी… म्लान चेहरे से एक बार फिर बाहर को देखा, और चुप हो रही!  श्यामलाल जी सोचते रहे कि क्या बोलें, फिर अपने मोबाईल में डूब गये… इस बार उसे बोलना शुरू करने में दो मिनट लग गये होंगे… “अपने बेटे का बायोडाटा भेज दीजियेगा हमें…” शुद्ध हिन्दी में वह बोली!

लेकिन बस जैसे ही हांसी के बस-अड्डे से बाहर निकली, कि फिर उसका ध्यान भंग हो गया… अब उसका मन पूरी तरह से विचलित हो चुका था… उसे जैसे अपने उस परदेसिया के अतिरिक्त कुछ और नहीं दीख रहा था, जिससे उसकी बनती नहीं थी!  “हिसार अभी आया दस मिनट में”, हर दो मिनट में यही वाक्य उसकी व्याकुल साँसों से निकल रहा था… जिन्दल साहब सोचने लगे, ‘कौन है हिसार में इसका… जो इससे झगड़ कर दिल्ली छोड़ कर इतनी दूर हिसार में नौकरी करने लगा है, जो हमेशा इससे नाराज़ रहता है कि उसके बच्चों और माँ से इसने उसे अलग कर दिया है… या फिर कोई ऐसा, जिसके बिना अगले तीस मिनट इसके लिये तीन घन्टों के समान बीतने वाले थे?’

बस के हिसार शहर की सीमा में घुसते ही उसके चेहरे पर एक बेबस उतावलापन सा छा गया… श्यामलाल जी की कोई बात अब उसके कानों में नहीं जा रही थी… अपने परदेसी से मिलन की कोमल बेचैनी ने उसके शरीर में एक आतुरता भरा तनाव भर दिया था… ऐसा लगता था कि पूरा संसार ही जैसे एकदम संकुचित होकर किसी एक चेहरे में समा कर बैठ गया था…

आखिर हिसार का बस अड्डा नजर आने लगा!  बस के रुकने के पहले ही वह सीट से खड़ी होकर सुर्ख चेहरा लिये खिड़की के बाहर झाँकने लगी, जबकि बैठ कर वह ज्यादा अच्छी तरह से झाँक सकती थी… बस-अड्डे के प्रवेश-द्वार के बाहर आधा दर्जन भर बसों के पीछे कतार में लगी थी उनकी बस अन्दर जाने के लिये.  लेकिन उसकी निगाहें तो यहाँ बाहर ही चारों तरफ अपने परदेसी को ढूँढ रही थीं… श्यामलाल जी ने बोला कि वे उसे अपने बेटे का बायोडाटा भेज देंगे, वह उसे अपने देवर को भेज दे… लेकिन उसे कुछ भी सुनना बन्द हो चुका था… कोमल अनुराग ने फिर से उसके कानों की लौ को दहका दिया था… उसकी विरही इन्द्रियाँ तो समस्त संसार के कार्य-व्यापार से विकेन्द्रित होकर केवल अपने विरही परदेसिया को ढूँढने में लगी थीं…

गाड़ी के बस-अड्डे में घुसने पर दूर से एक सुर्ख लाल रंग का सफ़ेद-नीली-पीली बिन्दियों से सजा रेशमी रुमाल हिलता हुआ दिखा… वह जैसे उछल कर सीट से खड़ी हो गई…

‘हम्म, तो यह इस विरहन का परदेसिया है…’ जिन्दल साहब ने सोचा… नीरज उन्हें ठेल कर बस के अगले द्वार की ओर को बढ़ी…

बस के पूरी तरह रुक जाने पर जिन्दल साहब चुपचाप पिछले दरवाजे से नीचे उतर गये.  लंगर खाने के बाद फेंक दी गई थर्मोकोल की थालियों और प्लास्टिक की थैलियों के ढेर से बदबू उठ रही थी… श्यामलाल जी सूअरों और कुत्तों की भीड़ से बचते हुए बस से आगे निकले, तो सामने से उन्हें अपनी आँखों में परम-तृप्ति लिये एक अलस सपना अपने परदेसिया के पीछे मोटरसाइकिल पर बैठा, दो मुंदे नयनों में उड़ता नज़र आया… एक सुख भरी नींद अपने उस विरही बालम की पीठ से चिपकी उड़ी चली जा रही थी… बन्द आँखों में कितने ही सपने बटोरे… हवा में उड़ते आँचल और बिखरते बालों से बेपरवाह…

न जाने क्यों जिन्दल साहब को अपनी आँखों में नमी की हल्की सी बाढ़ महसूस हुई… ऐसी, जैसी उन्हें अपनी बेटी की विदाई वाले दिन महसूस हुई थी… फिर अचानक उन्हें याद आया, उन्हें आज शाम ही दिल्ली वापिस लौटना था… उन्होंने अपनी निगाहें टैम्पो वाले की तरफ को दौड़ा दीं… गाँव में बसने के अपने सपने को पूरा करने की ओर को कदम आगे बढ़ाने के लिये…

First Published in Shabdyatn (Ed. Partap Sehgal)




निर्जन कारावास

समीक्षक — अनिल गोयल

हिन्दी में मूल नाटकों के अभाव की बात सदैव से कही जाती रही है. ऐसे में किसी नये नाटक का आना अवश्य ही स्वागत-योग्य कहा जायेगा! ‘जयवर्धन’ के नाम से लिखने वाले जे.पी. सिंह का नया नाटक ‘निर्जन कारावास’ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी, योगी, दार्शनिक और कवि महर्षि अरविन्द घोष के जीवन पर लिखा गया एक नाटक है. 1872 में कलकत्ता में जन्मे महर्षि अरविन्द का जीवन बहु-आयामी था – उन्होंने इंग्लैंड में आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण करने से लेकर बड़ौदा (अब वदोदरा) में एक प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षक, क्रान्तिकारी, पत्रकार, योगी, दार्शनिक और कवि तक की भी भूमिकाएँ निभाईं. उनके जीवन को एक नाटक में समो सकना असम्भव है. जयवर्धन का प्रस्तुत नाटक महर्षि अरविन्द के एक वर्ष के निर्जन कारावास वाले काल-खण्ड को प्रदर्शित करता है, जब उन्हें प्रसिद्ध अलीपुर बम काण्ड में गिरफ्तार किया गया था.

बड़ौदा में कुछ समय प्रशासनिक सेवा से जुड़े रहने के बाद अपने को वहाँ से मुक्त कर के वे बंगाल लौट आये थे. वहाँ अरविन्द घोष असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन से जुड़ गये, जिस काल में उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और भगिनी निवेदिता के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया. वे बाहरी रूप से तो कांग्रेस की गतिविधियों से जुड़े, लेकिन उन्होंने अपने को गुप्त रूप से भूमिगत क्रान्तिकारी गतिविधियों से भी जोड़ लिया. क्रान्तिकारी गतिविधियों से युवाओं को जोड़ने के लिये उन्होंने युवाओं को युवा क्लब स्थापित करने को प्रेरित किया. इसके पहले, सन 1902 में बंगाल के सुप्रसिद्ध ‘अनुशीलन समिति’ क्रान्तिकारी समूह को स्थापित करने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई थी. वे देश भर में क्रान्तिकारियों को संगठित करने के लिए घूमते फिरे. उन्होंने बाघा जतिन और सुरेन्द्रनाथ ठाकुर को भी क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने को प्रेरित किया

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अपनी इन गतिविधियों के कारण वे ब्रिटिश सरकार की निगाहों में आ गये. उनकी गतिविधियों को रोकने के लिये उन्हें अलीपुर बम काण्ड में गिरफ्तार कर लिया गया, जहाँ मुकदमा चलने के काल में उन्हें एक वर्ष तक ‘निर्जन कारावास’ में रखा गया. ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य था उन्हें फाँसी पर चढ़ाना; ब्रिटिश वाइसराय के सचिव की सोच थी कि अरविन्द घोष समस्त क्रान्तिकारी गतिविधियों के मस्तिष्क हैं, और वे अकेले ही क्रान्तिकारियों की पूरी सेना खड़ी करने में सक्षम हैं. परन्तु उनके विरुद्ध पर्याप्त प्रमाण जुटा पाने में विफल रहने पर सरकार मुकदमा हार गई, और उसे अरविन्द घोष को छोड़ देने पर बाध्य होना पड़ा. कारा से बाहर आने पर उन्होंने अंग्रेजी में ‘कर्मयोगी’ और बंगाली में ‘धर्म’ नामक प्रकाशन प्रारम्भ किये. इस समय पर पहली बार उन्होंने अपने उत्तरपाड़ा व्याख्यान में अपने चिन्तन में अध्यात्मिक रुझान के आने के संकेत दिये. इसके बाद वे फ्रांसीसी आधिपत्य वाले क्षेत्र पांडिचेरी चले गये, लेकिन ब्रिटिश गुप्तचरों ने वहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा. इसके बाद क्रान्तिकारी गतिविधियों से सन्यास ले कर वे पूर्ण रूप से योगी बन गये.

जे.पी. सिंह ने अपने इस नये नाटक की पहली प्रस्तुति 5 दिसम्बर 2022 को दिल्ली के श्रीराम प्रेक्षागृह में दी. इस प्रस्तुति के लिये उन्हें भीलवाड़ा औद्योगिक समूह की ओर से सहयोग मिला. यह हर्ष का विषय है कि स्वतन्त्रता-संग्राम के जो चरित्र अब तक हिन्दी रंगमंच से नदारद थे, वे अब भारतीय जनता के समक्ष जीवित हो रहे हैं.
लेकिन जे.पी. सिंह के अरविन्द आध्यात्म में डूबे हुए अरविन्द हैं, उनकी उस समय की वास्तविकता से थोड़े दूर! यदि अरविन्द सचमुच आध्यात्म में इतने ही डूबे हुए थे, तो सरकार को उन्हें निर्जन कारावास में रखने की क्या आवश्यकता थी? तथ्य बताते हैं कि अलीपुर बम काण्ड के समय तक अरविन्द इतनी गहराई के साथ आध्यात्म की ओर को नहीं मुड़े थे. योग और प्राणायाम से तो वे काफी पहले जुड़ गये थे, कविता भी करने लगे थे. परन्तु बहुत गहराई के साथ आध्यात्म की सीढ़ियाँ चढ़ना उन्होंने अभी प्रारम्भ नहीं किया था. जेल में, प्रारम्भ में उन्हें घर के कपड़े पहनने, अपने पास किताबें रखने और कागज-कलम और दवात तक के प्रयोग की अनुमति भी नहीं थी, जिस की अनुमति उन्हें जेल में रहने के काल में काफी समय के बाद मिली थी. जेल में स्वामी विवेकानन्द की आत्मा दो माह तक उनसे मिलती रही, ऐसा उन्होंने बाद में एक पत्र में लिखा. लेकिन यह भी सत्य है, कि यदि जेल में ही सरकारी गवाह बन गये नरेन गोस्वामी की हत्या न कर दी गई होती, तो अरविन्द को आध्यात्म की ओर को मुड़ने का अवसर भी मिल पाता या नहीं! कांग्रेस में भी वे प्रारम्भ से ही गरम दल के साथ जुड़े थे, तिलक के साथ उनका सामीप्य यही सिद्ध करता है.

इसलिये, नाटक की प्रस्तुति में एक प्रशासनिक अधिकारी, राजनीतिक विश्लेषक, शिक्षक, क्रान्तिकारी, पत्रकार, योगी, दार्शनिक और कवि की उनकी भूमिकाओं को उभारना आवश्यक है. इससे इतने बड़े व्यक्तित्व वाले इस क्रान्तिकारी के चरित्र को एकांगीपन से बचा कर कर उसे उसकी बहु-आयामिता में प्रस्तुत करना सम्भव होगा, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है. अभी नाटक का पहला ही प्रदर्शन हुआ है. नाटक के अन्य प्रदर्शनों तथा इसके प्रकाशन के पूर्व जयवर्धन को इस विषय पर थोड़ा और गहराई के साथ शोध करके उनके निर्जन कारावास के समय की उनकी वास्तविक मनोस्थिति को उभारना होगा, तभी इस ऐतिहासिक चरित्र के साथ न्याय हो सकेगा. नाटक में रूप-सज्जा इत्यादि पर और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि साधारणजन के मन में महर्षि अरविन्द के चित्रों के माध्यम से उनकी एक छवि बनी हुई है, जिसका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है. बाऊल संगीत का प्रयोग करके जे.पी. सिंह नाटक में संगीत-पक्ष का कुशलता से प्रयोग कर सके हैं. नाटक को वास्तविकता के समीप लाने के लिये, नाटक के प्रमुख चरित्र अरविन्द घोष के पात्र को निभाने वाले अभिनेता विपिन कुमार को भी अपने को एक बहुत ही विनयशील, सौम्य, धार्मिक पुरुष की छवि से निकाल कर एक अंग्रेजी वातावरण और ईसाई प्रभाव में पले-बढ़े क्रान्तिकारी, प्रशासक और पत्रकार के चरित्र में आना होगा, सदैव किसी सन्त की भांति भावहीन चेहरे से कहीं दूर क्षितिज की ओर को देखते रहने से बचने की आवश्यकता है.




हरियाणवी संस्कृति का एक नया अध्याय

लेखक – अनिल गोयल

1968 में बनी पहली फिल्म ‘धरती’ से होता हुआ हरियाणवी फिल्म उद्योग ‘चंद्रावल’ (1984) और ‘लाडो बसन्ती’ से होता हुआ आज ‘दादा लखमी चन्द’ तक आ पहुँचा है। इस बीच अश्विनी चौधरी की फिल्म ‘लाडो’ (2000) ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता, और इसके चौदह साल बाद राजीव भाटिया की हरियाणवी फिल्म ‘पगड़ी दि आनर’ (2014) ने तो दो-दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त किये! ‘दादा लखमी’ क्षेत्रीय फिल्मों की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी है। इसने साठ से भी अधिक अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। फ्रांस के प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह के फिल्म बाजार में दिखाई जानेवाली ‘दादा लखमी’ सच्चे अर्थों में एक ऐसे सिनेमाई मुहावरे को गढ़ती है, जहाँ से हरियाणवी फिल्मों के लिये अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के द्वार खुल सकते हैं। हरियाणा की पारम्परिक लोकनाट्य विधा ‘सांग’ इसकी क्षमता रखती है। आमजनों की अपनी सहज भाषा में सहज जीवन के वात्सल्य से लेकर देशभक्ति, इतिहास, दर्शन और पौराणिकता तक का ज्ञान आमजन तक इन सांगों के माध्यम से पहुँचता रहा है।

लोक-परम्परा की इसी कड़ी में, हरियाणा के सूर्यकवि लखमी चन्द के सांग पिछली लगभग एक शताब्दी में हरियाणा के सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में स्थापित रहे हैं। उन्हें “हरियाणा का कालिदास” भी कहा जाता है। उनका बचपन बहुत अभावों में बीता! केवल अठारह-उन्नीस वर्ष की आयु में ही लखमी चन्द ने अपने गुरुभाई जैलाल नदीपुर माजरावाले के साथ मिलकर साँग मंचित करने के लिये अपना अलग बेड़ा बनाया। उनकी प्रतिभा ने एक वर्ष के अन्दर ही उनके बेड़े को लोगों के बीच स्थापित कर दिया था। कुल बयालीस वर्ष की आयु तक ही जीवित रहे लखमी चन्द ने लगभग दो दर्जन सांगों की रचना की। शीघ्र ही पण्डित लखमी चन्द ‘साँग-सम्राट’ के रूप में विख्यात हो गये। वे कट्टर अनुशासन-प्रिय व्यक्ति थे। उनके बेड़े में हरियाणा के उत्तम से उत्तम कलाकार भी सम्मिलित होना चाहते थे। उन्होंने साँग की कला को उन ऊँचाईयों तक पहुंचा दिया, जिसका मुकाबला आज तक भी कोई और व्यक्ति नहीं कर पाया है।

इन्हीं सूर्यकवि पण्डित लखमी चन्द पर हरियाणा के अभिनेता-निर्माता-निर्देशक यशपाल शर्मा ने ‘दादा लखमी चन्द’ फिल्म बनाई है. इसमें यशपाल शर्मा, मेघना मालिक, राजेन्द्र गुप्ता, आदि ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं। फिल्म में लखमी चन्द के बचपन की भूमिका में योगेश वत्स, और युवावस्था की भूमिका में हितेश शर्मा ने बहुत सशक्त अभिनय किया है। योगेश वत्स ने सुन्दर अभिनय करने के साथ-साथ इस फिल्म में गाने भी गाये हैं, जिसके मधुर गायन ने दर्शकों को बहुत आकर्षित किया. युवा लखमी की भूमिका निभा रहे हितेश का गायन और सांगी की भूमिका करते समय उनका नर्तन और अभिनय दर्शकों को लगातार बाँधे रखता है।

बहुत बार देखा गया है कि कोई अभिनेता-निर्देशक अपने को ही फिल्म के ऊपर हावी हो जाने देता है। लेकिन यशपाल शर्मा ने अपने को इससे बचाये रखा है। प्रारम्भ में कुछ समय को छोड़ कर बाकी की फिल्म में वे परदे से गायब हो जाते हैं।

लखमी के बाल्यकाल और किशोरावस्था की भूमिकाओं में भी अन्य कलाकार नजर आते हैं। लेकिन इन सब के ऊपर, अभिनय के आधार पर इस फिल्म को मेघना मलिक की फिल्म कहा जा सकता है। यशपाल शर्मा ने जिस प्रकार से मेघना मलिक के माध्यम से एक माँ के हृदय की वेदना को उभारा है, वह अतुलनीय है। मेघना की हरियाणवी भाषा में संवादों की अदायगी इतनी प्रभावशाली है, कि उनके बोलते समय पर पिक्चर-हॉल में सन्नाटा पसर जाता है; विशेषकर वह प्रसंग अत्यन्त मार्मिक बन पड़ा, जब तीसरी-चौथी बार लखमी के घर से भाग जाने पर वह थक कर कहती है, ‘इसे जाने दो।।।’ कैसे एक माँ अपने उद्दण्ड बेटे से हार जाती है, और ना चाह कर भी, मजबूरी में उसके घर से चले जाने को स्वीकार कर लेती है!

यह फिल्म यशपाल शर्मा की छः वर्षों की मेहनत का फल है। इसमें रागनी-गायन एकदम ठेठ देसी है, जो सीधा दिल में उतर जाता है। फिल्म की असली जान ही है उसका संगीत, जिसके द्वारा लखमी चन्द के सांग दिखाये गये हैं। एक कवि और सांगी की कहानी सुना कर यह पिक्चर फिल्म-निर्माण के क्षेत्र में एक नई राह दिखा रही है। उत्तम सिंह द्वारा तैयार किया इस फिल्म का उत्तम संगीत भारत की इस फिल्म को ऐमी अवार्ड दिलवाने की क्षमता रखता है।

बहुत समय के बाद परिवार के साथ बैठ कर देख सकने योग्य साफ-सुथरी फिल्म आई है। रवीन्द्र सिंह राजावत और यशपाल शर्मा द्वारा निर्मित इस लघु बजट की हरियाणवी फिल्म में समाज में पारिवारिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की शक्ति है… इसे देख कर गाँव के सहज, सरल जीवन की ओर को वापसी का विचार मन में आता है। यह बच्चों को भी दिखाने योग्य फिल्म है, ताकि आधुनिकता की दौड़ में अन्धी होती हरियाणवी संस्कृति को पुनर्जीवन मिले।
यह फिल्म हरियाणवी फिल्मों को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने का दम रखती है। फिल्म देखते हुए कई बार हॉल में व्याप्त सन्नाटे से दर्शकों के रोंगटे खड़े होने का आभास होता था। इस फिल्म ने हरियाणवी रागिनी और सिनेमा, दोनों को जिन्दा कर दिया। फिल्म के एक-एक दृश्य में हरियाणा के ग्रामीण जीवन और संस्कृति दिखाई देते हैं। जिस प्रकार बाहुबली और आर.आर.आर. जैसी अरबों रूपये के बजट वाली दक्षिण भारतीय/क्षेत्रीय फिल्मों ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को एक नई दिशा दी, वही काम आज ‘दादा लखमी चन्द’ जैसी एक छोटी सी, कम खर्चे की फिल्म कर रही है।

यह फिल्म पण्डित लखमी चन्द के जीवन का पहला भाग दर्शाती है। बाकी जीवन-चरित जानने के लिये फिल्म के दूसरे भाग की दर्शकों को प्रतीक्षा रहेगी।




प्रेम रामायण

लेखक: अनिल गोयल

महरषि वाल्मीकि की रामायण ने पिछले लगभग सात-आठ हजार वर्षों में कितने ही रूप धारे हैं. हर काल में वाल्मीकि–रचित इस महाकाव्य को हर कोई अपने तरीके से सुनाता चला आया है. इसकी मंच-प्रस्तुतियों ने भी शास्त्रीय से लेकर लोक-मानस तक हजारों रंग भरे हैं. पारसी शैली की रामलीला को देख कर भारत की कितनी ही पीढ़ियाँ भगवान राम की इस कथा को मन में धारती आई हैं. कुमाँऊँनी रामलीला से लेकर कोटा क्षेत्र के पातोंदा गाँव, ओड़ीसा की लंकापोड़ी रामलीला और हरियाणा में खेली जाने वाली सरदार यशवन्तसिंह वर्मा टोहानवी की रामलीला जैसी कितनी ही सांगीतिक रामलीलाओं की लम्बी परम्परा हमारे यहाँ है. भारत ही नहीं, विदेशों में भी इसकी अनेकों प्रस्तुति-शैलियाँ पाई जाती हैं. इंडोनेशिया में बाली की रामलीला की तो अपनी अलग ही मनोहर शैली है.

हमारे देश में भी कलाकार रामलीला को अपनी दृष्टि से मंच पर प्रस्तुत करने के नित नये तरीके और शैलियाँ ढूँढ़ते रहते हैं. प्रवीण लेखक, निर्देशक और निर्माता अतुल सत्य कौशिक ने, जो प्रशिक्षण से एक चार्टर्ड अकाउंटेंट और अधिवक्ता हैं, अपने नाटक ‘प्रेम रामायण’ में प्रेम की दृष्टि से इस महाकाव्य की विवेचना की है. रामायण की अपनी व्याख्या पर आधारित नाटक ‘प्रेम रामायण’ का प्रदर्शन अतुल ने 5 अक्टूबर 2022 को दिल्ली के कमानी प्रेक्षागृह में किया. उनकी इस नाटक की यह पच्चीसवीं या छब्बीसवीं प्रस्तुति थी, जोकि हिन्दी रंगमंच के लिये एक गर्व का विषय है.

हमारे यहाँ प्रेम-भाव का प्रयोग प्रायः कृष्ण-कथाओं की प्रेम-मार्गी प्रस्तुतियों में किया जाता है. परन्तु अतुल ने बाल्मीकि की रामायण के मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जीवन पर आधारित रामायण को प्रेम के भाव की प्रस्तुति का माध्यम बनाया है, जहाँ रामायण के चरित्र ईश्वरीय अवतार होने के साथ-साथ अपने मानवीय रूप, स्वभाव और संवेदनाओं के संग नजर आते हैं.

Atul Satya Kaushik

इसकी प्रेरणा उन्हें कैसे मिली, इसके उत्तर में वे कहते हैं, “मैं किसी एक प्रोजैक्ट के लिये बाल्मीकि रामायण पढ़ रहा था, और क्रौंच-वध के प्रसंग को पढ़ते हुए मुझे लगा कि इस महाकाव्य की उत्पत्ति तो एक प्रेम-आख्यान से हुई है. तो रामायण की विभिन्न कथाओं में प्रेम को ढूँढ़ने की प्रेरणा मुझे इसी आदि-काव्य से मिली!”
इसके लिये उन्होंने रामायण में छुपी पाँच प्रेम-कथाओं को चुना है. प्रेम-कथाओं के इन पन्नों में से सबसे पहले वे एक लगभग अनजानी सी कहानी ‘अकाल’ ले कर आते हैं, जिसमें श्रीराम की बड़ी बहन, दशरथ और कौशल्या की पुत्री शान्ता और उनके पति ऋषि श्रृंगी या ऋष्यश्रृंग की कहानी दिखाई गई है. दूसरी कहानी ‘रथ से निकला पहिया’ कैकेयी और दशरथ की जानी-पहचानी कहानी है. तीसरी कहानी ‘स्वर और शान्ति’ में वे सीता और राम के मन की संवेदनाओं की कथा सुनाते हैं. इसके बाद ‘उल्टी करवट मत सोना’ में लक्ष्मण और उर्मिला की कहानी देखने को मिलती है. और अन्त में, ‘उस पार’ के माध्यम से सुलोचना और मेघनाद की करुण प्रेम-कथा के दर्शन होते हैं.

विरह या अपने प्रिय से अलगाव ही प्रायः प्रेम-आख्यानों का आधार रहता है. इन पाँच में से शान्ता की कहानी के अतिरिक्त अन्य सभी चार कहानियाँ अपने-अपने कारणों से जन्मे उसी विरह की वेदना को दर्शाती हैं. सभी कहानियों में स्त्री-मन की अथाह गहराइयों को दर्शाने का प्रयास स्पष्ट नजर आता है, जिसके लिये अतुल कभी-कभी इन कथाओं की अपने अनुसार विवेचना भी कर लेते हैं.

दशरथ के मित्र और अंगदेश के स्वामी राजा रोमपद ने शान्ता को पाला था. युवा होने के उपरान्त परिस्थितियोंवश एक बार शान्ता का सामना ऋषि श्रृंगी या ऋष्यश्रृंग से हुआ. ऋष्यश्रृंग ने अपने पिता विभान्तक या विभंडक के क्रोध से शान्ता की रक्षा की, और उसी क्षण शान्ता ऋष्यश्रृंग की हो गई! (इन ऋषि विभंडक के नाम पर ही आज का मध्य प्रदेश का भिंड नगर बसा हुआ है!) ऋष्यश्रृंग ने भी जीवन के हर क्षण में शान्ता को अपने साथ रखा, उसे पूरी बराबरी का सम्मान दिया! शान्ता के जीवन के उन्हीं क्षणों का चित्रण अतुल ने पूरी कुशलता के साथ किया है.

‘स्वर और शान्ति’ में अतुल ने सीता और राम के मन की ध्वनि को एक अनूठे ही तरीके से सुनाया है. अतुल की सीता अयोध्या की सीता नहीं हैं, वे मिथिला की बेटी सीता हैं, मन से एक चंचल बालिका, सुकोमल भावनाओं से ओत-प्रोत, कर्तव्यों के गाम्भीर्य के बीच अपने मन की संवेदनाओं के कोमल स्वरों को भी सुनने वाली सीता. अयोध्या के राम जितने शान्त थे, मिथिला की सीता उतनी ही चपल और चंचल थीं. आज भी मिथिला और नेपाल के गीतों में उनका यही रूप अधिक प्रचलित है, जनकपुर की बेटी का रूप! राम का स्वरुप भी यहाँ अयोध्या के युवराज का नहीं, बल्कि मिथिला के जामाता का है, जिसके साथ ठिठोली भी की जाती है! सीता के इसी स्वर, और राम के गहन-गम्भीर, शान्त स्वभाव की कथा है यह कथा! यह प्रेम रामायण है, तो उसमें अतुल ने कलात्मक स्वतन्त्रता लेकर सीता की प्रचलित एकदम गम्भीर, आदर्श छवि से हट कर, सीता को अपने पिता की लाडली बेटी, एक बच्ची के रूप में दिखाने का प्रयास किया है!

लेकिन पूरे नाटक में सबसे अधिक मार्मिक और करुणा भरे क्षण रहे लक्ष्मण और उर्मिला की विदा के क्षण! मैथिलीशरण गुप्त ने भी अपने महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग में घर में रह कर वनवासिनी का जीवन जीती उर्मिला की कहानी कही है. आसन्न विरह के आभास और सीता के वनवास जाने से उत्पन्न हुए कर्त्तव्य के बीच अद्भुत सन्तुलन बनाती हुई उर्मिला… इन चारों बहनों में से सबसे बड़ी सीता तो वन चली गईं . अब बाकी तीनों में उर्मिला ही सबसे बड़ी हैं. तीन सासें तो अपने वैधव्य को भोग रही हैं. उन तीनों सासों की, अपनी दोनों छोटी बहनों की, दोनों देवरों की, और इतने बड़े राजभवन की सम्पूर्ण जिमेवारी अब उर्मिला की हो जाने वाली है. लेकिन इन सब कर्त्तव्यों के बीच उसका अपना आसन्न विरह भी तो है, जिसे न चाह कर भी उर्मिला ने स्वीकार कर लिया है. लेकिन लक्ष्मण के वन जाने के पहले वह एक बार लक्ष्मण से मिल कर अपने को अयोध्या के राजभवन के अपने चौदह वर्षों के वनवास के लिए तैयार कर लेना चाहती है. वह वन-गमन की तैयारी करते लक्ष्मण को बुला भेजती है.

लक्ष्मण एवं उर्मिला दोनों को ही पता है कि उनका यह मिलन एक क्षणिक मिलन-मात्र है। उर्मिला के उलाहनों से प्रारम्भ हुए इस अल्पकालीन मिलन में दोनों में से कोई भी अपने अन्तर के ज्वार भाटे से दूसरे को अवगत नहीं करा पाता है। उन दोनों को ही पता है कि दोनों को अगले चौदह वर्षों का भीषण वियोग सहना है। उर्मिला का उर अश्रुओं से गीला है। लेकिन जाते हुए वह लक्ष्मण को दुःख नहीं देना चाहती… अतः अपनी चपलता को बनाये रखने का असहज सा प्रयास करती है. गरिमा और दीप्ति का आविर्भाव इस बालिका, उर्मिला में अभी होना बाकी है. मायके में माता-पिता, और अयोध्या में सीता के संरक्षण में पली-बढ़ी उर्मिला अभी तक एक चपला बालिका भर ही तो रही है…

अतुल के लक्ष्मण ने ऐसे एकाकी क्षणों के लिये अपनी उर्मिला को ‘मिला’ नाम दिया है. वे आते हैं, और अपनी ‘मिला’ से पूछते हैं, “तुम्हें क्या बात करनी है?”
ये कुछ क्षण आसंग विरह के पूर्वरंग के समान हैं. दोनों ही सोच रहे हैं कि क्या बात करें, कैसे एक-दूसरे से विदा लें. वह भी लक्ष्मण के साथ वन जाना चाहती है, परन्तु उसे पता है कि यह सम्भव नहीं है… उसका विराट कर्त्तव्य उसके सामने नजर आ रहा है.
लेकिन कर्त्तव्य के साथ-साथ उसका अपना विरह भी तो है… एक नन्हा सा, कोमल भावनाओं से भरा हृदय भी तो उसके पास है! यहाँ पर अतुल ने उर्मिला को एक छोटी सी, लगभग नन्हीं सी नवविवाहिता किशोरी के रूप में दिखाया है, चौदह वर्षों का लम्बा विरह जिसके आगे प्रस्तुत होने को ही है! वह कहती है, “मुझे? मुझे क्या बात करनी है?”
लक्ष्मण कहते हैं, “मैं चौदह वर्ष के लिये वन जा रहा हूँ और तुम्हें मुझसे कोई बात नहीं करनी?”
उर्मिला आज इन कुछ पलों में जैसे अपने आने वाले चौदह वर्षों को जी लेना चाहती है, अपने सायास ओलाहनों से बातचीत को सहज करने का प्रयास करती, “तुम्हें भी कहाँ करनी है बात! तुम तो सुनते ही तैयार भी हो गये, जैसे प्रतीक्षा में थे कि कब अवसर आये और तुम मिला से दूर जाओ। मैं बहुत लड़ती हूँ ना तुमसे!”
लक्ष्मण तो ठहरे सदा के गम्भीर! लेकिन अपने कर्तव्यों के बीच उन्हें उर्मिला के उर में समाते जा रहे विरह का भान भी था. वे उस चंचला से बोले, “तुम कहाँ लड़ती हो। कदाचित लड़ने के कारण मैं ही देता हूँ तुमको। अब चौदह वर्ष का समय मिला है तो सोचूँगा कहाँ सुधार हो सकता है।”
दोनों का वार्तालाप चलता रहता है, स्तब्ध बैठे दर्शक सुनते रहते हैं, अपने अश्रुओं को रोकने का असफल प्रयास करते हुए…
लेकिन आसन्न विरह के इस क्षण में उर्मिला उतनी चंचला भी नहीं रह पाती, जिसका प्रयास वह अब तक कर रही थी! वह नन्हीं सी बच्ची, वह चंचला किशोरी अब अपने लक्ष्मण को उपदेश दे रही है, “… आज मुझे लड़ना नहीं है। सुनो, तुम ना… भैया-भाभी की सेवा में, कुछ अपना ध्यान भी रख लेना। खिला के भैया-भाभी को कुछ अपने नाम भी रख लेना। समय पे उठना, समय पे खाना, उल्टी करवट मत सोना। याद मेरी आ भी जाये, भैया के आगे मत रोना।”
‘उल्टी करवट मत सोना…’ उस दिशा में शैया पर उर्मिला होती थी! अब जब वह वहाँ नहीं होगी, तो लक्ष्मण को अपनी मिला की याद आयेगी, उन्हें सन्ताप होगा! अपने विरह से बड़ा उस मानिनी के लिये है अपने प्रिय के विरह का भान!

लेकिन विरह-सन्ताप के साथ-साथ इस सीता-भगिनी को कर्त्तव्य-बोध भी है! ‘याद मेरी आ भी जाये, भैया के आगे मत रोना।’ अपने व्यक्तिगत सन्ताप के क्षणों में भी कर्त्तव्य-बोध के होने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है!
दोनों के बीच वार्तालाप सतत प्रवाहमान है. प्रेक्षागृह का वायुमण्डल प्रेक्षकों की निस्तब्ध साँसों और आँखों की नमी से बोझिल होता चला जाता है. लक्ष्मण कहते हैं, “मिला… ना राम को, ना सीता को, ना लक्ष्मण को ये श्राप मिला। यदि सच में मिला किसी को तो उर्मिला को ये वनवास मिला। मिला, तुम महलों में रह कर भी वनवास का जीवन भोगोगी। मोर के संग मोरनी को देखोगी, तो भी रो दोगी। पर आह, दुर्भाग्य। मेरी मिला का वनवास ना वतर्मान याद रखेगा, ना इतिहास। उर्मिला का वनवास कोई याद नहीं रखेगा।”

लेकिन उर्मिला को अपने लक्ष्मण पर अटूट विश्वास है, “झूठ कहते हो, कोई याद रखे या ना रखे, मिला का वनवास, लक्ष्मण याद रखेगा। रखेगा ना।” और फिर दोनों ही अपने को रोक नहीं पाते… संयम के सारे बांध टूट जाते हैं… दोनों गले मिल कर फफक कर रो पड़ते हैं। उर्मिला का लक्ष्मण पर यही अटूट विश्वास बहुत वर्षों के बाद लक्ष्मण को रूपवती राक्षसी सूर्पणखा से दूर रखने में सफल होता है! सावित्री की कथा इतिहास में कितनी बार दोहराई गई है!
नाटक के लेखक, निर्देशक और प्रस्तुतकर्ता अतुल सत्य कौशिक ने अपने नाटक को कथावाचक के फॉर्मेट में तैयार किया है. मंचाग्र में दाहिने हाथ पर कुर्सी पर बैठ कर अतुल पूरी कथा के सूत्र को अपने हाथ में थामे, एक कुशल नाविक की भांति दर्शकों को इस कथा-गंगा की यात्रा करवाते हैं. इस कथा-यात्रा की पतवार हैं नृत्य और सजीव गायन, जिसमें लोक से लेकर शास्त्रीय तक सबका समायोजन अतुल ने किया है. अंजली मुंजाल की अत्यन्त सुन्दर और प्रीतिकर नृत्य-संरचनाओं को सुष्मिता मेहता और साथियों ने कत्थक नृत्य के द्वारा प्रस्तुत किया.

एक घंटे और चालीस मिनट के इस नाटक को अतुल ने केवल तीन कलाकारों सुष्मिता मेहता, अर्जुन सिंह और मेघा माथुर के द्वारा प्रस्तुत किया है, जो दृश्यों के अनुसार विभिन्न चरित्रों को बारी-बारी से निभाते हैं. नाटक के आकर्षण का प्रमुख आधार-स्तम्भ है लतिका जैन का गायन. दूसरा स्तम्भ है नाटक में नृत्यों का प्रयोग. आज हिन्दी रंगमंच में गायन और नृत्य का प्रयोग लगभग समाप्त हो चुका है. कविता, गीत, गानों, गजल इत्यादि के माध्यम से निर्देशक ने विभिन्न भावों और संवेदनाओं को दिखाया है. मैथिल सुहाग-गीत ‘साँवर साँवर सुरतिया तोहार दुलहा, गोरे गोरे लखन … दुलहा’, अवधी के विदाई गीत ‘काहे को ब्याही बिदेस’, रामनिवास जाजू की हिन्दी कविता, और हिन्दी, उर्दू, फारसी, बृजभाषा इत्यादि के एक प्रसिद्ध गीत जेहाल-ए-मिस्कीं इत्यादि को प्रयोग करके अतुल ने आज के समय में एक साहसिक प्रयोग किया है… जिसकी बानगी हमने बापी बोस के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में भी देखी थी. कुछ लोग इस नाटक को डांस-ड्रामा या नृत्य-नाटिका का नाम देंगे. मैं इस प्रकार के पश्चिमी वर्गीकरण के विरुद्ध हूँ… हमारे नाट्यशास्त्र में कलाओं को एक समग्र तरीके से देखने का प्रावधान है, ना कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करके देखने का, जो मुझे ज्यादा उचित लगता है. अतुल के सैट की परिकल्पना में भी कहीं अल्पना जैसी पारम्परिक शैलियों की झलक मिलती है.

नाटक में प्रकाश-व्यवस्था तरुण डांग ने और ध्वनि-व्यवस्था दीप्ति ग्रोवर ने सम्भाली थी. संगीत निर्देशन अनिक शर्मा का रहा. गायन जीवन्त था, लेकिन संगीत कराओके था, क्योंकि, ‘संगीतकारों को साथ लेकर चलना सम्भव नहीं हो पाता!’, अतुल कहते हैं. हिन्दी रंगमंच की यही विडम्बना है, कि एक प्रस्तोता को कितने ही समझौते करने पड़ते हैं!




‘TRUNK TALES’ lives up to Neelam Mansingh’s unique presentation style

Neelam Mansingh Choudhry is a well-known name in Hindi theatre world.  A student of Ebrahim Alkazi at the National School of Drama, she has been running her group, The Company in Chandigarh since 1983.  Her work always shows the high standards of production in her presentations, displaying the values inculcated by Alkazi in his students.  Her plays like Kitchen Katha, Yerma, Naked Voices, Nagmandal etc. have received loud applause from the public, as well as received rave reviews from the critics.  Her work has also earned her well-deserved international recognition.

Recently she brought her Hindi/English/Punjabi play ‘Trunk Tales’ to the IHC Theatre Festival in Delhi.  It was a solo performance, although bearing the same old well-known mark of hers on the production.  Her plays are generally based on her everyday observations and experiences of day-to-day life.  She is master of creating magical moments out of the daily mundane chores of household.  Remember the childhood games… ‘Akkad bakkad bambe bo assi nabbe poore sau…’, or ‘Machhli jal ki rani hai…’?  That innocence of the childhood was present on the stage in this play… the innocence, which remains with us through our life-time, but which also becomes the ‘other’ thing of our life as we grow old!

A non-scripted performance piece, the play ‘Trunk Tales’ revolved around telling stories in a Dadi-Nani style, bringing out stories out of their ‘potlis’… only that, here, the ‘potlis’ have been replaced in this play by four trunks kept on the stage.  Stories tumble out of these trunks one by one, bringing us face to face with that ‘otherness’ in life.  The point she wanted to stress upon was that we generally live within certain boundaries, as per the set rules of behaviour.  Anything not conforming to these sets of rules creates a sense that the person going beyond these boundaries of rules is not one of us… he is the ‘other’ person in the society.  She takes support of poems, childhood stories and little play-songs, small episodes, some memories for presenting her ‘non-linear’ stories, to tell about the people who don’t really fit in,” she said to someone in an interview.

These stories strived to present the ‘otherness’ in life… stories on politics of water, body-abuse including rape and child abuse representing no control on one’s own body, hunger, and finally trans-gender behaviour…  It is difficult to present the ‘otherness’ in gender in a palatable way, but Vansh Bhardwaj deserves applause for performing this difficult task so well… he knows how to use his body on the stage.  “I had to develop different body languages and understand the psychology of the characters.” Vansh said in an interview some time ago!  I have seen Swatilekha Sengupta performing a full two and a half hours long solo ‘Shanu Roychoudhury’ on this very stage many many years ago.  I hope to watch Vansh repeat that wonder some time, under the direction of Neelam Mansingh Choudhry sometime in future.

A Scene from Trunk Tales

In ‘Trunk Tales’, she had kept a few trays filled with water on the floor of the stage.  With water, she wanted to present an essential element of life, which has a flexible nature, a fluidity, and gets easily moulded to take any shape.  Water worked as the element of life represented in the stories told by the actor on the stage, who presented stories full of vigour and vibrancy of every daily life!  Keeping the sets to a minimal is her known style as well as the need of the hour in today’s constrained situations as far as presenting a play in an auditorium is concerned.  Keeping the sets to a minimal also helps her create the ambience through the props and the activities of her actors on the stage.

She has done a play ‘Kitchen Katha’ on the theme of fire (although she concedes that the theme of fire was not on her mind when she did ‘Kitchen Katha’, neither was water on her mind while doing this play).  Now she has done a play with water as its theme.  We hope she comes out with the remaining three elements of life, earth, air and pran!

The thing that we missed the most in this play was live music by the folk singers of Punjab, her famous hallmark.  She has done a lot in the past to revive Punjab’s folk music, which had suffered a severe blow in the troubled times of Khalistani terrorism in Punjab in the eighties of the twentieth century.  She tells that it is Corona to be blamed for missing on music… our theatre-persons have not been able to come out of the after-effects of Corona still.  She avers, “we are still coming out of the effects of Corona, and it will take some time before we can come back to our own basics”.

Best thing about her plays is that she does not try to make them a make-believe world… she actually brings the reality to the auditorium.  Some of you might have enjoyed hot jalebis prepared by the ‘halwai’ in the auditorium itself while watching her play ‘Kitchen Katha’!  Alas, the jalebis did not reach me, as I was sitting in the sixth-seventh row on that day!  She had taken inspiration from her childhood impressions of the tradition of ‘langar’ in Punjab for ‘Kitchen Katha’, where community cooking used to take place.  In ‘Trunk Tales’ also, Vansh has a thali full of real food, and enjoying it actually on the stage, instead of empty thalis, cups and glasses, through which the directors ask the actors to pretend eating or drinking … this adherence to ‘reality’ makes Neelam’s plays a REAL treat for the eyes!

She plans to do Girish Karnad’s Hayavadana in Hindi coming February.  It is being planned to be done on a big scale.  She avers that the actors from across the country will be a part of this production.  She is using Karanth’s translation for this production, although with some new insights into the play, keeping in mind the sensibilities of the modern times.

Neelam Man Singh
Neelam Man Singh

On the issue of the trends in play-writing these days, she does feel that more new plays are needed with newer sensibilities in mind.  She feels that there should be deeper connection between the writer and director while developing new plays.  Making one’s own script by the director, in collaboration with the actor/s, is a new trend according to her, although it is not new… it has always been resorted to by the directors and writers.  She quoted the making of Mohan Rakesh’s plays by Alkazi, and also pasting of the new plays on the walls of Paris by Moliere, to solicit the response from the public directly during the writing of the play!