किसका मोती, किसकी झोली?
किसका मोती किसकी झोली

बचपन में देखा था उसे पहली बार।
उसकी माँ हमारे यहाँ काम करती थी। एक दिन संग बेटी को ले आई। बोली,”आज कुछ हरारत सी लगे है बीबी जी। इसे ले आई हूँ, कुछ हाथ बंटा देगी।”
मेरी माँ बोलीं”अच्छा किया, दोनों मिल कर काम कर लो।”
इतवार था सो मैं भी घर पर थी। लड़की ने झटपट काम करना शुरू कर दिया।
मैं छटी कक्षा में थी। नाश्ते के बाद पढ़ने बैठ गई थी। काम करती लड़की को कनखियों से देख रही थी।
गोरा चिट्टा धूप जैसा रंग, सुतवां नाक, पलकें ऐसीं कि झुके तो चेहरा छू लें उठे तो भौंहें। लंबे काले बाल, ये मोटी मोटी दो चोटियां लाल रिबन में बंधी हुई, दंतपंक्ति कुछ टेडी मेढ़ी पर चेहरे को और भी सलोना बना रहीं थी। गूदड़ी में लाल कहावत याद आ गयी।
मैंने इशारे से बुलाया”क्या नाम है तुम्हारा?”
माथे से मोती जैसे पसीने को कुर्ती की बाँह से पोंछ, इंच भर लंबी पलकें उठा कर बोली” मीत।”
“कितने साल की हो?” पूछा मैंने
“पता नहीं, माँ कहती है शायद 12 की, बाबा को तो कुछ पता नहीं, पड़ोस के एक अंकल जी कहते हैं, सोलह की लगती हूँ।” एक साँस में फर्राटे से बोल गई लड़की।
तभी उसकी माँ आ गई,”री छोरी, बस फिर बतियाने लगी। हे राम, कैसी औलाद दी है तूने। बाँस की तरह बढ़ रही है पर ये नहीं के कुछ काम ही कर ले। कुछ तो मुझ बुढ़िया को आराम मिले।”
माँ क्या थी, हिडिम्बा का अवतार, किसी पहलवान सी कद काठी, काला भुजंग रंग, बीड़ी पी पी कर काले पड़े दाँत,चौड़ी गुफ़ा से नथुने,चेहरा चेचक के बचे प्रसाद से भरा।
“हाय राम! इस राक्षसी सी माँ की ऐसी रूपवती सन्तान। जाने कौन से पीर से मांग कर लायी होगी !”
मेरी उम्र तब 11 की थी। मुझे वो हमउम्र ही लगी। पहले ही दिन दोस्ती हो गयी। अब वो अक्सर आ जाती अपनी माँ के संग।
एक दिन चाय बनाते हुए बोली,”जिज्जी तुम गुड़ की चाय चखी हो कभी?”
“न, नहीं तो, चाय में गुड़ कौन डालता है मीत?”
उन दिनों चाय में गुड़ डालने का कारण बस ये था कि चीनी मेंहगी थी, गुड़ सस्ता,, तो निचले तबके के हिस्से में गुड़ आता। आज की बात और है,अब सफेद चीनी को बुरा कहते हैं।
आज सोचती हूँ क्या पैसा दे कर हम ज़हर खरीदते थे अब तक और अमृत गरीबों की थाली में सजता था?
ख़ैर गुड़ की उस चाय का नैसर्गिक स्वाद
जिह्वा आज तक नहीं भूली।
फिर तो बड़ों से छुप छुप कर इमली गटारे, कच्चे आम, चूर्ण, आम पापड़ जाने कितने चटखारों को प्रसाद सा चढ़ाया अपनी जिह्वा की चटोरी देवी को हम दोनों ने।
पास ही एक गाँव जंडली में रहती थी मीत। उसके पिता का छोटा सा खेत था। कभी कभी माँ से पूछ मैं मीत के संग गाँव चली जाती।
मीत उछल उछल कर खेतों में आगे आगे चलती, मैं पीछे। आज सोचती हूँ कि ध्यान से देखती तो उसके पाँव के नीचे शायद पंख दिख ही जाते !
खेतों में कभी लाल सुर्ख़ गाजर उखाड़, पानी से धो,दो टुकड़े कर देती,एक उसका एक मेरा और कभी अमरूद के पेड़ पर गिलहरी सी चढ़ अमरूद तोड़ लाती।
बड़ी अजीब बात है कि बचपन में ढूंढते थे तोते का खाया अमरूद। हमारी खोज और अनुभव के अनुसार ऐसे अमरूद शर्तिया मीठे होते थे। और अब फल चाहिए एकदम बेदाग, भले ही मसाले से पके हों। फ़िर न तो बगीचे वाले घर हैं न पेड़ों पर चढ़ने वाले बच्चे।
दो तीन साल ऐसा ही चला। हम बड़े होते गये। मुझ पर पढ़ाई का बोझ बढ़ने लगा,, मीत पर जिंदगी का, दो तीन और भी घरों में काम करती पर जब तब हम दोनों मिलने का समय निकाल ही लेते।
धीरे धीरे मीत का आना कम होता चला गया। उसकी मां ने बताया उसकी शादी की बात चल रही है।
अरे वाह ! मन मे सोचा जिद करके मैं भी चली जाऊंगी मीत की शादी में। दुल्हन बनी मीत को देखूँगी। यूँ ही जो रूप की खान थी, दुल्हन बन कर तो स्वर्ग की अप्सरा ही लगेगी।
कभी कभी कहती थी वो, जिज्जी,क्या करूँ इस निगोड़े रूप को,,, लोग ऐसे देखते हैं जैसे बदन टटोल रहे हों। पराये भी और कुछ अपने भी। जिज्जी गरीब की बेटी को सुंदर नहीं होना चाहिए न,, कहते कहते कंचन से चेहरे पर जैसे कोई बदरी छा जाती।
पर मीत की शादी में न जा पाई,अनुमति नहीं मिली।
फिर एक दिन वो आई। लाल साड़ी, सिर पर पल्लू लिए, ढेर लाली सिंदूर माँग में,कलाईयों में कांच की खनखन करती हरी लाल चूड़ियां कानों में सोने के बुन्दे सोने जैसे चेहरे के रंग से होड़ लगाते हुए।
“जिज्जी” कह कर लिपट गई। मैंने भी गले लगा लिया। लिपटी ही रहती पर अचानक माँ कह कर किसी ने पुकारा। देखा तो 7,8 साल का एक बच्चा पल्लू खींच रहा था।
“कौन है ये, किसका बच्चा है,, माँ किसको बुला रहा है?” मैंने गोली से प्रश्न दाग दिए।
मुझसे अलग हुई कुछ कहने को थी कि टक टक की आहट हुई जैसे बैसाखी हो।
सचमुच ही बैसाखी टेकता एक अधेड़ पुरुष आ खड़ा हुआ। गहरा कोयले सा रंग,सिर पर छितरे से लाल बाल, पान से एक गाल फूला हुआ।
कौन हो भई तुम,, पूछने ही वाली थी कि बड़े अधिकार और अभिमान से उसने अपनी पुष्ट चौड़ी हथेली मीत के कंधे पर रख दी। खींसें निपोरता हुआ बोला,”आप से मिलने की बहुत इच्छा थी हमारी पत्नी जी की, इसीलिए ले आये। देवी का हुकुम कोई टालता है भला? और हमारा बिटवा तो नई माँ को छोड़ता नहीं पल भर को।”
मैं स्तब्ध, अवाक मुंह बाए देखती रह गई।अब क्या ही पूछना बाकी रह गया था? एक अधेड़ विधुर की दूसरी पत्नी, 8 साल के बच्चे की नवविवाहित माँ 18 -19 बरस की मीत ही थी।
कलेजे पर पत्थर रख उस अनोखे परिवार को चाय नाश्ता करवाया। अकेले में मीत से बात करने का मौका ही नहीं मिला,उसके मालिक ने अपनी सम्पति ने नज़र एक पल न हटाई। मां ने चलते हुए मीत को शगुन दे कर विदा किया।
हरदम चिड़िया सी चहचहाने वाली मीत पूरे समय कुछ भी न बोली, मुंह मे शब्द नहीं थे और आँखों मे जैसे प्राण न थे। बस एक सजी धजी काठ की गुड़िया लग रही थी, बेजान गुड़िया कभी बोलती है क्या?
शाम को उसकी माँ काम करने आई तो मैंने आड़े हाथों लिया,” क्या मौसी, कैसी माँ हो तुम, कहाँ ब्याह दी लड़की,,,उस बुढ्ढे दुहाजू के साथ, जरा दया नहीं आयी निरीह गाय सी लड़की को जिबह करते हुए,, तुम्हारी तो अपनी जाई थी वो” क्रोध और आवेग में मैं बरस पड़ी।
मौसी का खुरदुरा काला चेहरा जैसे पिघलने लगा। मोटे मोटे ऑंसू झुर्रियों की पगडंडियों पर बहने लगे
“सुन री बिटिया,, मेरी जाई न थी वो। आज बताती हूँ सब कुछ।कई साल पहले मेर घर वाला लाया था, बोला टेसन पर अकेली खड़ी रो रही थी। भीड़ में माँ बाप से बिछड़ गई थी।मैं ले आया।लड़की की जात, किसी गलत हाथ पड़ जाती। अब अपनी ही बेटी समझ। अब तू निपूती न रही।”
हिचकियों के बीच वो बोली”पर बिटिया मैंने तब से ही अपनी जाई सा प्यार किया था अभागी को। पाल पोस कर बड़ा किया। हमारे दामाद गांव के साहूकार और हमारे मकान मालिक हैं। बड़ा कर्ज़ा था उनका हमारे सर। एक दिन बोले या तो उधारी चुकता करो या मकान खाली कर दो। नहीं तो अपनी बेटी ब्याह दो मुझे।सारा कर्ज माफ़ कर दूँगा और 5000 रुपये भी दूँगा।
क्या कहूँ बिटिया मैं बहुत रोई पर इसके बापू ने हां भर दी। कमबख्त ने बेच डाली बेटी। असली बाप होता तो शायद न कर देता।”
आँसू मेरी भी आंखों में थे। सचमुच अभागी ही थी, जाने कौन घर में जन्मी, कहाँ पली और कैसे घर ब्याही। तभी तो,नैन नक्श रंग रूप कुछ भी नहीं मिलता था अपने माँ बाप से।
जिंदगी की इस नाइंसाफी का इंसाफ शायद उसे कभी न मिलेगा।