आपदा-काल में भास का सहारा

‘आपदा को अवसर में बदलना’ – आजकल यह उक्ति प्रायः सुनने को मिल जाती है. आज के समय की जीवित स्मृति में सबसे बड़ी आपदा रही करोना. सब लोग अपने-अपने घरों के अन्दर बन्द हो जाने को मजबूर हो गये थे. ऐसे में, विज्ञान से ले कर नाटक तक हर विषय पर सैंकड़ों-हजारों लोगों ने ‘ऑनलाइन’ या इन्टरनैट पर चर्चा के माध्यम से आपसी सम्बन्ध और संवाद को चलाये रखा, और करोड़ों मनुष्यों के मानसिक सन्तुलन को बनाये रखने में एक प्रशंसनीय भूमिका निभाई!
ऐसी ही एक चर्चा का सहभागी बनने का सौभाग्य मुझे भी मिला. करोना के कालखण्ड में ही ग्वालियर की गीतांजलि गीत ने अपने रंगसमूह ‘मेरा मंच’ के माध्यम से भास के तेरह नाटकों पर भारतरत्न भार्गव के व्याख्यानों की एक श्रृंखला आयोजित की थी. संगीत नाटक अकादमी अमृत सम्मान से सम्मानित, आकाशवाणी, बी.बी.सी. तथा संगीत नाटक अकादमी से जुड़े रहे भारतरत्न भार्गव डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी तथा कवलम नारायण पणिक्कर जैसे दिग्गजों के साथ काम कर चुके हैं, और सम्प्रति टैगोर फैलोशिप ले कर शोध कर रहे हैं.
इन व्याख्यानों की सबसे रोचक बात रही इनका समय! यह व्याख्यानमाला सायं चार बजे से होती थी. उन दिनों में, काम कोई न होने के कारण हम दोपहर में खाना खा कर सो जाते थे. फिर, चार बजे से कुछ ही पहले नींद खुलती थी, भागते-दौड़ते जैसे-तैसे मैं कंप्यूटर खोलता था, कपड़े पहनता था, पत्नी भी जाग जाती थीं, तब तक भारतरत्न जी का व्याख्यान प्रारम्भ हो चुका होता था! व्याख्यान सुनते-सुनते ही पानी पीता था, चाय आ जाती थी, वह भी पीता रहता था, लगता था कि बिस्कुट खा रहा हूँ, और वह नमकीन होता था; कभी नमकीन के चक्कर में बिस्कुट खा जाता था! करोना काल में बचे हुए हम लोगों की बहुत सी दुखद, लेकिन कुछ मधुर, रोमांचकारी स्मृतियाँ भी हैं! उन्हीं में से एक गीतांजलि गीत द्वारा आयोजित व्याख्यानों की यह श्रृंखला भी थी.
भास के नाट्य-साहित्य पर आधारित इस श्रृंखला का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष था प्रतिदिन के व्याख्यान के बाद का प्रश्नोत्तर-काल. इसके लिये भार्गव जी ने यथेष्ट समय माँगा, जिसे गीतांजलि ने मुक्तमन से स्वीकार किया. और सच में, यह श्रृंखला गीतांजलि की श्रृंखला न रह कर भार्गव जी और श्रोताओं की श्रृंखला बन गई! बाद में, सभी ने इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाने का सुझाव दिया. अब सेतु प्रकाशन के संस्थापक-संचालक अमिताभ राय ने, जो इस श्रृंखला से प्रारम्भ से ही इससे जुड़े रहे, इन व्याख्यानों तथा प्रश्न और उत्तरों को ‘महाकवि भास का नाट्य वैशिष्ट्य’ नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है. बातचीत की स्वाभाविकता को बनाये रखने, और इसे आत्मीय संस्पर्श देने के उद्देश्य से इसकी भाषा को यथावत रखा गया है, जो पुस्तक को बहुत पठनीय बना देता है.
“ग्यारहवीं–बारहवीं शताब्दी से जो आक्रान्ता आये, उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे विश्वप्रसिद्ध केन्द्रों को ध्वस्त कर दिया, नष्ट कर दिया” – इस प्रकार का क्षोभ प्रकट करने के बाद इन नाटकों को फिर खोज लिये जाने की कहानी भार्गव जी विषय-प्रवेश में सुनाते हैं, और, कि कैसे ये नाटक केरल के देवालयों अर्थात कुताम्बलम में खेले जाते रहे, लेकिन खोज लिये जाने के लगभग सत्तर वर्षों के बाद भी ये नाटक हमारे लिये अपरिचित ही रहे, और कैसे सन 1974 में शान्ता गाँधी के द्वारा भास के ‘स्वप्नवासवदत्ता’ नाटक को अमेरिका के हवाई विश्वविद्यालय में सफलतापूर्वक खेलने पर भारत के लोगों की नींद टूटी, और उनका ध्यान इन नाटकों की ओर गया. भार्गव जी को पणिक्कर जी ने बताया कि केरल में कुड़ियाट्टम, कथक्कली और नाट्यशास्त्र के विद्वान अप्पुकुट्टन नायर ने तभी केरल संगीत नाटक अकादमी के सचिव बने पणिक्कर जी को कुड़ियाट्टम और नाट्यशास्त्र से परिचित करवाया, जिससे पणिक्कर जी संस्कृत नाटकों के प्रति आकृष्ट हुए. बाकी सब तो जाना-पहचाना इतिहास है.
बाद में पणिक्कर जी ने कालिदास संस्कृत अकादमी में ‘मध्यमव्यायोग’ नाटक का मंचन करके उत्तर भारत के लोगों को भास के नाटकों से परिचित करवाया. भार्गव जी बताते हैं कि इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता है इनके कथानक. कालिदास से पहले के काल में रहे भास के तेरह में से छः नाटक महाभारत पर आधारित हैं. दो नाटक, ‘अभिषेक’ और ‘प्रतिभा’ रामायण पर आधारित हैं. एक नाटक ‘बालचरित’ कृष्ण की कथाओं पर आधारित है. ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘प्रतिज्ञा यौगन्धरायण’, ‘अविमारक’ और ‘चारुदत्त’, ये चार नाटक उनकी मूल कृतियाँ मानी जाती हैं.
‘मेरा मंच’ के माध्यम से भास के तेरह नाटकों पर व्याख्यानों की श्रृंखला, वहाँ उठे प्रश्न और जिज्ञासाओं, और श्रोताओं की रुचि ने भार्गव जी को इन नाटकों के हिन्दी भाषा में पाठान्तर की भूमिका तैयार कर दी. पाठान्तर वाले भास के इन सभी तेरह नाटकों को सेतु प्रकाशन ने ही ‘भास नाट्य समग्र’ के नाम से छापा है. भास के नाटकों के अन्य अनुवादों या पाठान्तरों और भार्गव जी के पाठान्तर में मूल अन्तर यह है, कि उन्होंने इन नाटकों का पद्यात्मक पाठान्तर किया है. यह पाठान्तर करते समय उन्होंने ‘नाट्यशास्त्र में निर्देशित संहिता के अनुसार’ तनिक छूट भी ली है, जिससे ‘इन नाटकों की समकालीन उपयोगिता में यत्किंचित वृद्धि हो सके’. इसीलिये वे इसे अनुवाद न कह कर पाठान्तर कहते हैं, जिससे कि आंगिक और वाचिक अभिनय में भाव, राग तथा ताल के तात्विक गुणों का समन्वय हो सके. सबसे अच्छी बात है, कि इन दोनों पुस्तकों को पाठकों को उचित मूल्य पर उपलब्ध करवाने के लिये प्रकाशक ने इन्हें पेपरबैक में छापा है, जिससे ये पुस्तकें साधारण जन के लिये बहुत आसानी से सुलभ हो सकेंगी.
भास की विलक्षण प्रतिभा को समझने के लिये ‘महाकवि भास का नाट्य वैशिष्ट्य’ का पढ़ना आवश्यक है! और भास के नाटकों को पढ़ने के लिये दूसरी पुस्तक ‘भास नाट्य समग्र’ का पढ़ना तो आवश्यक है ही! और यदि पाठक ‘भास नाट्य समग्र’ को भास के नाटकों के संस्कृत संस्करणों के साथ रख कर पढ़ेंगे, तो उन्हें इन प्राचीन नाटकों के आज के समय में प्रासंगिक होने का भान हो सकेगा!