अब पितृ दिवस मेरा सूना है। – ज़िले सिंह

पिता तो मेरे चले गए,
अब पितृ दिवस मेरा सूना है।
जैसे लोभी का धन लुट गया,
और लगा मोटा चूना है।
अब यादों में रहे शेष बस,
मूरत नहीं दिखाई देती।
कहां ठहाका रहा हंसी का,
खुशियां नहीं दिखाई देती।
कहां छुपी वो आशीषें जो,
हमको सदां दिया करते थे।
हमारी खुशियों में खुश थे,
और दुख में सदां दुखी दिखते थे।
थे निश्छल, निष्कपट भाव वो,
ऐसा कोई कहां मिलता है।
रिश्तों में स्वारथ सधता है,
और मनों में छल पलता है।
मेरे पिता तो, देवलोक की,
सीधी ऐक निशानी थे।
हुंकारों से रोम खड़े हो,
ऐसे वो लासानी थे।
मगर वो माली चला गया,
जहां बाग पल्लवित होते थे।
क्या मजाल कोई घर में आये,
खुल्लम खुल्ला सोते थे।
पिता गये,वो रति गयी जो,
उनके होने पर होती।
आज अगर जिन्दा होते तो,
ऐसी गति नहीं होती।
जिनकी कोई औकात नहीं,
मुझ पर आरोप लगाते हैं।
गले लगाते रहे मगर वो,
छूट छूट कर जाते हैं।
मेरे पिता ने मुझसे जो चाहा,
वो मैं कर जाऊंगा।
सब रुठे फिर भी मैं अपना,
वचन निभाकर जाऊंगा।
मेरे पिता हैं, मैं भी पिता हूं,
ये धारा है जीवन की।
मैं भी पुत्र हूं,मेरा पुत्र है,
यही व्यवस्था हर तन की।
जहां देने का भाव रहे,
बस पिता वही कहलाता है।
जहां सेवा का भाव रहे,
बस पुत्र वही कहलाता है।
फिर कहता हूं दुनिया में कोई,
मेरे पिता सा पिता नहीं।
मुझे भाग्य से मिले पिता,
मेरी थी औकात नहीं।
मैं उनके गुण क्या लिक्खू,
वो लिखने में नहीं आयेंगे।
राई से क्या पहाड़ तुलेगा,
तोल तोल मर जाएंगे।
है ईश्वर से एक निवेदन,
पुण्य अगर कोई बाकी हो,
फिर से पिता बने मेरे,
दीदार वही, वही झांकी हो।

श्री लालाराम यादव( पितृ दिवस पर सादर समर्पित जिले सिंह )

सबके बस की बात नहीं है।

फूल छोड़ कर कांटे चुनले,
सबके बस की बात नहीं है।
महल छोड के वन को चुन लें,
ये सब की औकात नहीं है।
भावों का भी एक जगत है,
जो लौकिक में नहीं समाता,
द्रष्टि से भी परे दृष्य़ है,
जो आंखों में नहीं समाता।
उसको जो कोई देख सके
ये सबके बस की बात नहीं है।
महल छोड़ कर….
शब्दों का छोटा सा दायरा,
पकड़ पकड़ के कहां पकड़ोगे,
बुद्ध और महावीर की वाणी,
शब्दों से कैसे पकड़ोगे।
जहां शब्दों की पकड़ छूट जाये,
उसको तुम कैसे पकड़ोगे।
सुधा छोडके गरल को पीना,
सबके बस की बात नहीं है।
महल छोड़ कर…
मानव यूं मानव नहीं होता,
जैसे सब मानव होते हैं।
मानवता जिनके अन्दर हो,
वो मानव थोड़े होते हैं।
जो मानव मानव बन जाये,
ये सब की औकात नहीं है।
महल छोड़ कर…
अन्धो को कैसे समझाए,
वेद व्यास भी हार गए हैं।
जीते जागते कृष्ण न दीखे,
सब कौरव बेकार गये है
सबकी झोली में आ जाये,
ये ऐसी सौगात नहीं है।
महल छोड़ कर…
कविता गढ़ दूं, और मैं गा दूं,
फिर भी इससे क्या होता है।
गीता और रामायण लिख दी,
फिर भी अपना मन सोता है।
दर दर पर जो लुट जाये,
ये ऐसी खैरात नहीं है।
महल छोड़ कर…
अंतस का जब भाग्य उदय हो,
और संगत परवान चढे तो,
कभी पुण्य का उदय होय तो,
और सज्जन सत्कार बढ़े तो।
तभी ज्ञान की वर्षा होगी,
ऐसी फिर बरसात नहीं है। फूल छोड़ कर कांटे चुन लें,
सबके बस की बात नहीं है।
महल छोड़ कर …

देखो ये कैसी मजबूरी

दीपक की ये मजबूरी है,
जले नहीं तो और करें क्या।
और पतंगें की मजबूरी,
जान के जल गया और करें क्या।
मजबूरी ऐसी ब्याधा है,
इसको बस मजबूर ही जाने।
क्ई बार मजबूरी में तो,
खुद को पड़ते प्राण गंवाने।
फिर भी हल नहीं हुई समस्या,
देखो ये कैसी मजबूरी।
वो न कभी जान पायेगा,
जिसने नहीं देखी मजबूरी।।
आत्मघात सस्ता होता हो,
मर न सके वो है मजबूरी।
पर ये सब मजबूर ही जाने,
जना न सके ये है मजबूरी।
घोर कष्ट देना मालिक,
पर मत देना ऐसी मजबूरी।
सीता जैसी नारि त्याग दी,
बनी राम की वो मजबूरी।
राम त्याग दिए दसरथजी ने,
जानो थी कैसी मजबूरी।
प्राण त्याग देते सस्ता था,
पर नहीं त्यागे थी मजबूरी।
नारद,शेष, महेश,जिन्हें,
दिन रात रटे,करते मजदूरी,
उनका घर से देश निकाला,
दसरथ की कैसी मजबूरी।
राम तो बड़े उदाहरण है,
पर बड़ी बहुत होती मजबूरी।
जहां समझ और ज्ञान हार जाये,
वो देखी हमने मजबूरी।
मेरा अपना ऐसा अनुभव,
मेरी भी अपनी मजबूरी।
धर्म ध्वजों के ऊपर ही,
हावी होती देखी मजबूरी।
मगर धर्म का साधक ही,
होता मजबूर,यही मजबूरी।
अधम और नीचो की देखो,
नहीं होती कोई मजबूरी।
मैं कहता हूं मजबूरी में,
यों मजबूर कभी मत होना,
धर्म डुबो दो मजबूरी में
ऐसी नहीं होती मजबूरी।
पुत्र कटे,धन दौलत लुट गई,
ऐसी भी होती मजबूरी,
मगर धर्म को लील जाये जो,
ऐसी नहीं होती मजबूरी।
विश्वासो को लील जाए जो,
ऐसी भी होती मजबूरी,
मगर धर्म को लील जाए जो,
ऐसी नहीं होती मजबूरी

फिर ये नूतन,नूतन कैसा है?

सब नूतन होय पुरातन तो,
फिर ये नूतन,नूतन कैसा है।
आज़ का नूतन,कल पुरातन,
भ्रम का एक फंदा जैसा है।
युगों युगों से सभी पुरातन,
नूतन देह बदलते आये।।
आशा और सपनों के सपने,
हमको सदां दिखाते आये।।
पर मानव का मन ऐसा है,
सपने में ही सुख पाता है।।
और पुरानी दीवारों पर,
रंग रोगन करता जाता है।।
नया पुराना कुछ नहीं होता,
जो जैसा है,बस वैसा है।।
एक मिलन है एक विदाई,
पर सब वैसा का वैसा है।।
जिसमें तुम्हें शकुन मिलता हो,
देता हूं नव वर्ष बधाई।।
मंगलमय जीवन हो सबका,
और पुण्य की बढ़े कमाई।।
रहे निरोगी काया सबकी,
मात पिता की हो सिवकाई।
परिवारों में मेल बना रहे,
बहिनें सदां सुहागिन होवें।।
आज्ञाकारी पुत्र सुखी हो,
पुत्री सदां चहकती होवें।।
सुन्दर नारि सदां सुख पावें,
शाकाहार बने सब घर में।।
भारत वर्ष महान बने,
जिसका परचम फहरे अम्बर में।।

(जिले सिंह)

ये जीवन आना जाना है।

ये जीवन आना जाना है।
आज यहां कल जायेगा।।
सूरज चांद सितारे सबको,
काल एक दिन खायेगा।।
धरती से अम्बर तक देखो,
एक ही चीज सनातन है।
सच्चे गुरु का ज्ञान अमर है,
तुझे अमर कर जायेगा।।

कभी बने जो राजमहल थे,
आज बने खण्डर देखो ।
जहां अप्सरा नृत्य करे थी,
अब उसका मंजर देखो।।
क्षण क्षण सोना मिट्टी होता,
मिट्टी सोना होती है।।
इतनी बात समझ में आये,
तो फिर जीवन बदलेगा।।
सच्चे गुरु….
एक धुरी है एक चाक है,
ऐसा सबका जीवन है।।
सभी चाक पर घूम रहे हैं,
चाक बना जीवन धन है।।
सन्त धुरी को देख रहे हैं,
पल पल पैनी नजरों से।
और अज्ञानी चाक देखता,
घूम घूम मर जायेगा।।
सच्चे गुरु..
नित्य सदां रहता दुनिया में,
और सदां रह जायेगा।‌।
लाख संभालो सपने को तुम,
पर सच नहीं बन पायेगा।।
जान के बन्दे गोता खाये,
ये ही तो भव सागर है,
बाहर निकल जा जैसे तैसे,
सौने का हो जायेगा।।
सच्चे गुरु..

कवि ज़िले सिंह, Delhi Police. (Studied in MSJ College, Bharatpur)